Ashok Singh
अबुआ दिशोम अबुआ राज के नारों के साथ आज से 23 वर्ष पहले झारखंडी जनता के एक लंबे संघर्ष के बाद झारखंड बिहार से अलग हुआ और एक स्वतंत्र राज्य बनकर उभरा. जब 23 वर्ष पहले झारखंड राज्य की स्थापना हुई थी तो झारखंडी जनता ने समग्र देशज विकास का सपना देखा था लेकिन इतने वर्षों बाद भी राज्य का अपेक्षित विकास नहीं होना, झारखंडी जनता और विशेषकर आदिवासी समाज का ठगा-सा महसूस होना, एक बड़ा सवाल खड़ा करता है कि अबुआ दिशोम राज का सपना कितना सरकार हो पाया है ?
राज्य की तस्वीर और तकदीर ऐसी है कि जिन आदिवासी हितों के सवाल पर झारखंड अलग राज्य बना अब वह किसी को याद नहीं है और थोड़े बहुत लोग जिनको याद भी है तो वो आज हाशिए पर हैं. वे सारे वादे जो संघर्षकाल में नेताओं ने झारखंडवासियों से किया था, सबके सब भुला दिए गए. सरकारें आईं और चली गईं. राज्य की जनता ने कई मुख्यमंत्री देखे और उसके कार्यकाल भी. उनके वादे और विकास को लेकर किये जा रहे उनके दावे भी देखे. इतने सालों में विकास के ढेर सारे वादे हुए और राजधानी का प्रसिद्ध मोराबादी मैदान उन कई सारे क्रांतिकारी विचारों का गवाह बना. वह विचार जो विभिन्न राजनीतिक दलों ने रैलियों के माध्यम से व्यक्त किया और झारखंड के आदिवासियों के आर्थिक दुर्दशा इस विचार का हिस्सा बनी परंतु कहीं कोई क्रांति नहीं हुई. क्योंकि इसे होना ही नहीं था. आदिवासी समाज आज भी वहीं खड़ा है जहां पहले था. सत्ता बदली लेकिन सरकार की कार्यशैली और उनके संस्कार नहीं बदले.
मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन जी का कहना है कि 20 सालों तक विपक्ष में बैठे झारखंड विरोधी लोगों ने क्या किया? ये लोग दीमक की तरह राज्य को चाट गये. इन्होंने कभी भी लोगों को उनके हक अधिकार से नहीं जोड़ा. जब हम लोगों को अधिकार दे रहे हैं तो यह बेईमान लोग हमें भ्रष्टाचारी कहते हैं. इन लोगों के झूठ, षडयंत्र और अफवाह से कुछ नहीं होने वाला है. हम राज्य के लिए लड़ने और मरने मिटने वाले लोग हैं. हमें अपने झारखंड अपने अपने झारखंड वासियों की चिंता है जिसके लिए हम दिन रात लगे हैं. ठीक इसके विपरित विपक्ष में बैठे बाबूलाल मरांडी जी कहते हैं कि सरकार हर मोर्चे पर फेल हो गई है जनता ठगा-सा महसूस कर रही है और और परिवर्तन चाहती है. आमलोगों के अपने अपने तर्क हैं. कोई कहता है वर्तमान सरकार में काफी विकास हुआ है लोगों को अपने देखने का नजरिया बदलना होगा. कई लोग ऐसे भी हैं जो यह कहते सुने जा सकते हैं कि झारखंडी जनता का विकास तो नहीं हुआ लेकिन नेताओं ने अपना विकास खूब किया है. आदिवासी समाज के लोगों में भी झारखंड के विकास को लेकर अलग-अलग विचार रहे हैं.
बुद्धिजीवियों का कहना है कि पार्टी और दलीय भावना से ऊपर उठकर आज झारखंड में कोई सर्वमान्य सशक्त नेतृत्व उभर कर सामने नहीं आया जिस पर जनता भरोसा कर सके. सामाजिक नेतृत्व की जगह जातीय नेतृत्व में तेजी से उभार हुआ जो भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है.
अब बात जहां तक बदलाव की है, तो इस दौरान झारखंड ने राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक स्तर पर बदलाव के कई दौर देखे. नि:संदेह कुछ सकारात्मक बदलाव भी सामने आए तो कुछ नकारात्मक. कुछ क्षेत्रों और सेक्टरों का बहुत हद तक विकास हुआ भी तो कुछ क्षेत्र विकास से अछूते रह गए. थोड़ा बहुत जो विकास हुआ भी तो वह भी आधा अधूरा. इस अधूरेपन के पीछे कहीं न कहीं सुनियोजित नीति और विकास को लेकर दूरदर्शिता के अभाव को देखा जा सकता है. नीतियां है लेकिन नीतियों का क्रियान्वन ठीक ढंग से नहीं हो पा रहा है. सिद्धांत तो हैं ही लेकिन व्यवहारिकता से कोसों दूर.
राज्य के शासक वर्ग को अपने कर्म से ज्यादा अपनी कलाबाजियों पर भरोसा है. फलत: वे लगातार सुलगते जनाक्रोश की उपेक्षा कर रहे हैं. तंत्र से त्रस्त लोक अपनी बारी का इंतजार कर रहा है. अपर्याप्त और आधे अधूरे विकास, बढ़ती विषमता, शिक्षा की कमी, नीतियों का सही क्रियान्वयन ना होना और योजनाओं पर भ्रष्टाचार और बिचौलिया संस्कृति का निरंतर बढ़ते जाना झारखंड के समग्र देशज विकास का मार्ग अवरुद्ध कर रहा है.
सत्ता के लिए किसी भी हद को पार करने वाले नेताओं की करतूतें राजनीति की नई परिभाषा गढ़ रही है. कल तक मामूली हैसियत वाले सियासी लोग देखते ही देखते धन कुबेर बन बैठे. जबकि दूसरी तरफ बेरोजगारी और गरीबी का शिकंजा कसता जा रहा है. नतीजा पलायन और बेकारी पहले से ज्यादा बढ़ गई है. भ्रष्टाचार चरम पर है. निर्माण से लेकर कल्याणकारी योजनाओं तक बिचौलिए हावी हैं. आपकी योजना,आपकी सरकार, आपके द्वार कार्यक्रम के माध्यम से वर्तमान सरकार जनता तक जमीनी स्तर पर पहुंचने का प्रयास तो कर रही है लेकिन उसकी भी असलीयत किसी से छिपी हुई नहीं है. कागज पर सिस्टम को जितना भी पारदर्शी बना दिया जाय लेकिन जमीन तक पहुंचने से पहले ही अफसरों की अफसरशाही और सिस्टम में लगे लोग और आम जनता के साथ उनका व्यवहार इस कार्यक्रम को सिर्फ नारों में तब्दील करके रख देते हैं. आधी अधूरी ही सही लेकिन वर्तमान सरकार की मंशा जनता तक पहुंचने की रही है लेकिन अफसरों की अफसरी कार्यशैली और सरकारी दफ्तरों में व्याप्त भ्रष्टाचार इसे जनता तक सहजता से नहीं पहुंचने देती.
बात यहां के उद्योग धंधों की करें तो यह तय है कि खनिज संपदा से संपन्न झारखंड प्रदेश के खनिजों का जब तक मूल्यवर्धन प्रदेश में नहीं होगा, तब तक झारखंड का राजस्व नहीं बढ़ेगा और बिना राजस्व के सामाजिक, आधारभूत संरचना जैसे स्वास्थ्य केंद्र गांव में स्कूल, सस्ती चिकित्सा, सस्ती शिक्षा के बिना आदिवासी जनजाति मूलवासियों का हम विकास नहीं कर पाएंगे. अब तो दूसरे राज्यों के उद्योगपति केवल खनिज खरीदने की बात करने लगे हैं, उद्योग लगाने की नहीं. इन परिस्थितियों के लिए राज्य सरकारें ही जिम्मेदार है. यह सच है कि झारखंडी जनता की अस्मिता जल जंगल जमीन से जुड़ी है उसकी रक्षा होनी चाहिए लेकिन सिर्फ उसे बचाने की आड़ में आम व्यक्ति का विकास भी भूला नहीं जा सकता. जल जंगल जमीन को सुरक्षित रखकर विकास किया जा सकता है जिसको लेकर कोई ठोस पहल होनी चाहिए थी लेकिन हुई नहीं. झारखंड के खनिज का लाभ दुनिया के दूसरे देश प्रदेश गैर कानूनी तरीके से ले रहे हैं. आयरन एवं खनन क्षेत्र पर जाकर देखें तो वहां हजारों क्रेशर दिन रात चल रहे हैं. जमकर खनन का कार्य हो रहा है. ट्रैकों और रेल ट्रैक से लोड हो रहे हैं. वनों की अवैध कटाई से जंगल नष्ट हो रहे हैं. आयरन के कारणों से पर्यावरण प्रदूषण हो रहा है और गैर कानूनी तरीके से गलत प्रशासनिक अधिकारी के नाक के नीचे दूसरे देश एवं अन्य राज्यों में स्मगल हो रहा है. पत्थर खदानों को लेकर हुए यहां बड़े भष्ट्राचार के मामले पिछले कुछ महीनों से सुर्खियों पर रहे हैं और उसमें अफसर से लेकर नेता तक जो बेनकाब हुए हैं वह किसी से अब छुपा हुआ नहीं रह गया.
विगत 23 वर्षों में कोई भी बड़ी कंपनी अपने उत्पादन को ठीक से सफलतापूर्वक आरंभ नहीं कर सकी है. जो कंपनी अपने उद्योग लगा रही है, वह भी प्रशासन की निष्क्रियता के कारण गति नहीं पकड़ पा रही है. बिजली, पर्यावरण सभी विभागों में भ्रष्टाचार चरम पर है. मित्रवत औद्योगिक वातावरण नहीं बन पा रहा है. जिस वजह से झारखंड का औद्योगिक विकास जिस तरह और जितना होना चाहिए था वो हो नहीं पा रहा है.
बात जल जंगल जमीन की करें तो जल जंगल जमीन के संघर्ष करने वाले असली लोग आज हाशिए पर हैं. उनके संघर्ष की अनदेखी कर सरकार सिर्फ उन नारों को भूना रही है. कुछ नेता विकास करना चाहते हैं किन्तु जल जंगल जमीन के नाम पर जो वोट बैंक है उसको खोना भी नहीं चाहते और उनमें विजन की बात करें तो वो तो सबके पास है भी नहीं. जिन थोड़े बहुत नेताओं के पास वो विजन है भी तो वर्तमान राजनीति में उनका कुछ चलता ही नहीं है.
सरकार के साथ आर्थिक शोषण, सामाजिक और समानता के खिलाफ झारखंड की आदिवासी और गैर आदिवासी आबादी के मुक्ति आंदोलन के सपने जुड़े हैं. अलग राज्य का संकल्प सांस्कृतिक अस्मिता की सुरक्षा और आर्थिक तथा सामाजिक शोषण समाप्त करने का कारगर राजनीतिक हथियार मान गया था. सरकार से अपेक्षा थी कि यहां के विविध धार्मिक सांस्कृतिक विरासत वाले समुदायों को संरक्षण देते हुए राज्य के समवेत विकास और प्रगति का मार्ग प्रशस्त करें लेकिन दुर्भाग्य से इतने सालों में भी पूर्णतः ऐसा हो नहीं पाया और जो भी सरकार आई कमोवेश सभी एक विकृत राजनीतिक सोच का शिकार बनकर रह गई. राजनीतिक उधोपतन के साथ सामाजिक जिंदगी का ताना-बाना भी चारों ओर जीर्ण-शीर्ण नजर आ रहा है. नैतिक और मानसिक तौर पर झारखंड की सांस्कृतिक विविध वैभव सामाजिक समरसता, सौहार्द और सहिष्णुता का विलक्षण ऐतिहासिक धरोहर अब समापन के कगार पर दिख रहा है. आदिवासी संस्कृति के संरक्षण संवर्धन की बात सिर्फ सभा सेमिनारों तक ही सिमट कर रह गई है.
विकास और विकास के मॉडल की बात करें तो देश की आजादी और पंचवर्षीय योजनाओं की शुरुआत के बाद गांव की उत्पादकता क्षीण होती गई. भारत के गांव अब कच्चे मालों की आपूर्ति और तैयार मालों की खरीद के केंद्र बनकर रह गए. नई अर्थ नीति ने इसकी गति और भी तेज कर दी है. विकास की वर्तमान नीति से गांव की आत्मनिर्भरता पर जो घातक प्रभाव पड़ा है, उसी का परिणाम है कि गांव में एक परजीवी संस्कृति विकसित हो रही है. गांव के लोग अब थाना कचहरी ब्लॉक के दलालों और छूट भैया नेताओं की गिरफ्त में हैं. गांव में अब वह उल्लास नहीं है, जो पहले था. वह प्रेम और विश्वास भी गायब होता जा रहा है. कहने को ही सिर्फ अखड़ा संस्कृति बची है. उग्रवाद आतंकवाद तेजी से पसर रहा है. क्षेत्रवाद और भाषा व लिपि को लेकर विवाद भी अक्सर यहां होता रहता है. हत्या लूट, अपहरण,रंगदारी, बिचौलियागिरी नए व्यवसाय बन रहे हैं.
इस स्थिति से मुक्त होकर अबुआ दिशोम अबुआ राज के सपनों को साकार करने के लिए क्या उपाय है? इतना तो निश्चित है कि विकास का प्रचलित ढांचा, गांव क्या शहरों के लिए भी उपयुक्त नहीं है. यह मॉडल गांव को तो उजाड़ता है ही, शहरों को भी रखने लायक नहीं छोड़ता. विकास का यह मॉडल अमीरों को अमीर और गरीबों को गरीब बनता है. शोषण इसकी बुनियाद है. देश की आर्थिक प्रगति के बाद भी विश्व बाजार में मंदी और महंगाई बढ़ रही है. शेयर बाजार की गिरावट, पर्यावरण प्रदूषण जैसे खतरे हमें विवश कर रहे हैं कि हम एक वैकल्पिक विकास मॉडल की तलाश करें.
अब ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि इन 23 वर्षों में कुछ विकास हुआ नहीं! इन 23 वर्षों में झारखंड में बहुत कुछ बदला है. कमोवेश सभी सरकारों ने अपने अपने स्तर से प्रयास किए. हर सरकार और उनके कार्यकाल में कुछ न कुछ नया भी हुआ. बात कल्याणकारी योजनाओं की हो या फिर सरकारी नौकरियों की नियुक्ति और स्वरोजगार की. शिक्षा और स्वास्थ्य की हो या कृषि और भौतिक संरचना की. खाद्य सुरक्षा और बिजली पानी सड़क जैसी बुनियादी नागरिक सुविधाओं की भी बात करें तो हर क्षेत्र में प्रयास हुआ है लेकिन वह प्रयास कितना ईमानदार रहा, समग्र और देशज विकास की कसौटी पर कितना खरा उतरा, यह अलग से बहस का विषय हो सकता है.
अगले वर्ष लोकसभा और विधानसभा का चुनाव होने वाला है अब यह वक्त ही बताएगा कि जनता वर्तमान देशज सरकार के तथाकथित विकास से सहमत होते हुए उसके विकास कार्यों पर अपना मुहर लगाती है या फिर सत्ता परिवर्तन कर किसी और को मौका देती है.
नोटः ये लेखक के निजी विचार हैं.