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ओवैसी संयोग हैं, प्रयोग हैं या सितारों का योग है?

Manish Singh कहना कठिन है. पर ये साफ है कि आजादी के बाद पहली बार धार्मिक आधार पर एक राष्ट्रीय स्तर का मुस्लिम दल खड़ा हो रहा है. अब तक राजनैतिक रूप से हिंदुस्तान की सबसे सेकुलर जमात मुस्लिम रहे हैं. ऐसी एकमात्र जमात जिसने अपनी जाति/ धर्म की पार्टी न बनाई. वह मुख्यधारा की पार्टियों में ही अपना नेतृत्व देखता रहा, जिनकी लीडरशिप, जिनकी तासीर, जिनका आधार गैरमुस्लिम था. अबुल कलाम से अब्दुल कलाम तक, उसने कांग्रेस, वाम, समाजवादियों और यहां तक कि भाजपा को भी समर्थन दिया. धर्म निरपेक्षता से लेकर "सबका साथ सबके विकास" को अपना हाथ दिया. इन पार्टियों में मुस्लिम लीडरों के मिलने वाले दोयम दर्जे को भी, कमोबेश स्वीकार लिया था. मगर जब वक्त आया, तो ये सब अपनी जिम्मेदारी में असफल रहे. मैं बात मुस्लिमों के आर्थिक विकास, सब्सिडी या धार्मिक स्वतंत्रता की नहीं कह रहा. मैं राजनीति में, भारत की 20 करोड़ जनता की भागीदारी की बात कह रहा हूं. पिछले आधी शताब्दी में अंतुले और गफूर के बाद, किसी प्रमुख राज्य में (कश्मीर छोड़) कोई मुस्लिम मुख्यमंत्री नहीं आना, एक बैरोमीटर है. जहां 5-6% आबादी के जाति वर्ग को साधने के लिए उनके लीडर्स को टॉप पोजिशन्स मिल जाती हैं, 18% मुस्लिम्स बस कहार बने रहे. मुख्यधारा के दलों ने उन्हें एक रखने, और दिशा देने लायक साइज के लीडर खड़े नहीं किये. लोकतन्त्र में इतने बड़े तबके के बीच लीडरशिप के संकट का मतलब आप समझते हैं? आपके पास इतनी बड़ी आबादी के दिलों में झांकने की विंडो ही नहीं है. यह एक धर्म या राजनीति का नहीं, हमारे लोकतंत्र की गुणवत्ता का संकट है. और अब ये संकट, इस जडमूर्ख रेजीम के दौर में, एक अलग ही तरह के Existintial क्राइसिस में मुसलमानों को अकेला छोड़ देने से गहरा गया है. हम हिंदुस्तानी, सेक्युलर, गंगा जमुनी तहजीब में यकीन रखने वाले लोग बेसब्री से इंतजार करते रहे, कि कोई माई का लाल तो आएगा. जो इस विभाजन की राजनीति के सामने सीना ठोककर, सहमे, भयभीत समाज को गले लगाकर, देश में उनके सम्मानजनक स्थान का एश्योरेंस देगा. मेरे अपने शहर में शाहीनबाग बैठा. मुसलमानों से ज्यादा उस पंडाल में दूसरे लोग थे. हम लोग थे. मगर सेकुलरिज्म का नाम जपने वाले दलों के नेता नदारद थे. वो दिल्ली और लखनऊ में नदारद थे. पटना मुम्बई में भी नदारद थे. इतिहास का एक बड़ा मौका वे चूक गए. उल्टे हमने मंदिरों की दौड़ और सॉफ्ट हिंदुत्व नाम का प्रहसन देखा. बीजेपी का स्पष्ट है, देश की 20% आबादी को टाइट करना उनकी नीति है, जो 30% जहरीली आबादी में उन्हें गहराई देती है. मगर इन दोनों के बीच का 50% हिंदुस्तानी इस विभाजन से आहत है. वह मेल मिलाप चाहता है. वह परपीड़ा देख द्रवित है, परेशान है, चिंतित है. उनसे उम्मीद सिर्फ मुसलमानों को न थी, वह हम चिंतित, आहत, द्रवित और सच कहिये तो आशंकित हिंदुस्तानियों को भी थी. वह अवसर तमाम सेकुलर दल, और कांग्रेस चूक गए. यह चूक साधारण नहीं थी. यह विभाजन की अगली फेज में ले जाने वाला धक्का था. सामाजिक विभाजन के बाद अब राजनैतिक विभाजन की फेज आ चुकी है. इस दौर में कोई न कोई नेता उभरना था. तब सावरकर के जस्टिफिकेशन पर जिन्ना का उभार हुआ. दोनों ने एक दूसरे का भय दिखाकर अपने अपने एजेंडे चलाये. आज उसी दौर की हूबहू पुनरावृत्ति है. मुस्लिमों के दूसरे विकल्प खत्म कर दिए गए हैं. सरकार उन्हें ओवैसी की तरफ धकेल रही है. अब हम आप चाहें न चाहें, ओवैसी का उभार तय है. पर याद रखिये, आग से खेलने वाले वानरों के हाथ से खेल निकलना तय है. ओवैसी का तय दायरे से, बाहर निकलना तय है. तीस सालों में सामाजिक विभाजन किया गया. अब राजनैतिक विभाजन का दौर है. अगर इतिहास पर आपकी नजर रही है, तो क्रोनोलॉजी समझ लीजिए कि अगला फेज देश को भौगोलिक विभाजन की ओर ले जाएगा. खुदा न करे, मगर आने वाले वक्त में इन संयोगों और प्रयोगों की यही दिशा है, यही सितारों का योग है. डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.

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