Faisal Anurag
किसान देश में अराजकता फैलाने की साजिश रच रहे हैं, यह आरोप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारतीय जनता पार्टी के स्थापना दिवस पर बोलते हुए लगाया है. ये वही किसान हैं जिनके साथ प्रधानमंत्री मोदी की सरकार ने दसियों राउंड बातचीत की है. इन्हीं किसानों को उन्होंने कृषि कानून को डेढ़ साल तक स्थगित रखने का प्रस्ताव दिया था. इस प्रस्ताव को किसानों ने ठुकरा दिया था. अराजकता फैलाने की साजिश एक गंभीर आरोप है. यदि आरोपों में सच्चाई है तो सरकार ने फिर किसान नेताओं से वार्ता करने का जोखिम क्यों उठाया? असम में चुनावी भाषणों में नरेंद्र मोदी ने हथियार उठाये संगठनों के प्रति न केवल नरमी दिखायी है, बल्कि नौजवानों से मुख्यधारा में शामिल होने की अपील भी की है. लेकिन किसानों के आंदोलन के प्रति सरकार की हिकारत और उन्हें बदनाम करने के रवैये छुपे हुए नहीं हैं. प्रधानमंत्री ने सीएए के खिलाफ हुए आंदोलनों को भी साजिश का हिस्सा ही करार दिया है.
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हर आंदोलन को देश के खिलाफ साजिश देखने का रिवाज जिस प्रचलन में है, उसने तमाम पुराने रिकार्ड को ध्वस्त कर दिया है. आंदोलनकारियों को अमेरिकी खुफिया एजेंसी का एजेंट बताया जाता है. अब तो राष्ट्रवाद की ऐसी परिभाषा प्रचलित की गयी है जिसमें हक के लिए अवाज उठाने वालों को देशद्रोही बताया जा रहा है. संसद में प्रधानमंत्री ने किसानों के आंदोलन के संदर्भ में तो आंदोलनजीवी और परजीवी जैसा जुमला उछाल दिया था. आखिर आंदोलनों को साजिश बताने का रवैया क्या साबित करने का प्रयास है. चुनावों की जीत से किसी सरकार की नीतियों को सही नहीं ठहराया जा सकता. चुनाव में जिस तरह सांप्रदायिक कार्ड खेले जाते हैं, उसका आर्थिक नीतियों से कोई लेनादेना नहीं है.
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अराजकता का संदर्भ अचानक नहीं है. किसानों के आंदोलन के 128 दिन हो चुके हैं. किसान आंदोलन के बिखरने के तमाम अनुमान विफल साबित हो चुके हैं. किसान आंदोलन को लेकर जिस तरह की एकजुटता का माहौल बना है, सरकार इससे परेशान है. बंगाल में भाजपा के सांप्रदायिक कार्ड की परीक्षा होने जा रही है. असम में सीएए के खिलाफ हुए आंदोलन ने भाजपा के लिए बड़ी परेशानी पैदा की है. पूरे चुनाव में भाजपा के बड़े नेताओं ने सीएए के सवाल को उठाने से परहेज किया है. सीएए आंदोलन ने असम के राजनीतिक समीकरण को बदल दिया है. खास कर जिस तरह के नये समीकरण उभरे हैं, उससे भाजपा की बेचैनी बढ़ी है. असम के चुनाव अब खत्म हो रहे हैं. बंगाल में पांच चरणों के चुनाव बाकी हैं. बंगाल में सीएए के सवाल को भाजपा ने उठाया है.
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इसका एक बड़ा कारण उन हिंदू वोटरों को आकर्षित करना हैं, जो सीएए और एनपीआर से घुसपैठ के सवाल का निदान चाहते हैं. उनके निशाने पर मुसलमान है. भाजपा ने घुसपैठ को बंगाल में एक कार्ड की तरह इस्तेमाल किया है. भाजपा के एजेंडे पर न केवल घुसपैठियों को देश निकाला देने की बात है, बल्कि हिंदू वोटरों को आकर्षित करना भी है. अब तो पाकिस्तान की वापसी भी बंगाल चुनाव में हो गयी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बांग्लादेश स्वतंत्रता के 50वें समारोह में भाग लेने ढाका गये. बांग्लादेश की प्रधानमंत्री से उनकी बातचीत हुई, लेकिन घुसपैठ का मुद्दा उठा नहीं. बांग्लादेश से घुसपैठ को चुनावी कार्ड बनानेवाली भाजपा के नेता आखिर इस सवाल को बांग्लादेश से आधिकारिक बातचीत में क्यों नहीं उठाया जाता है.
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सवाल है कि क्या सच में किसान अराजकता फैला रहे हैं? 128 दिनों के आंदोलन में यदि 26 जनवरी की घटना को छोड़ दिया जाये, तो किसानों का आंदोलन न केवल शांतिपूर्ण है, बल्कि उसने सरकार की आर्थिक नीतियों को कारपोरेट परस्त साबित किया है. केंद्र सरकार पर देश के दो घरानों अंबानी और अडानी के हितों के लिए नीति बनाने और उसे लागू कराने की धारणा आम होती जा रही है. किसान आंदोलन की इसमें बड़ी भूमिका है. किसानों ने तो दोनों के ही उत्पादों का बहिष्कार किया है. उसका असर अब भी है. इससे इन दोनों के उत्पादों को ले कर देश भर के एक तबके में चर्चा हो रही हे. किसान नेताओं के दौरे देश के कई राज्यों में हो रहे हैं. गुजरात में किसान नेता युद्धवीर सिंह को तो बीच प्रेस कांफ्रेस से खींच कर गिरफ्तार किया गया. टिकैत ने गांधीनगर को ट्रैक्टरों से पाट देने का आह्वान गुजरात पहुंच कर किया है.
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किसान नेताओं के राज्यों के दौरे को लेकर भाजपा परेशान है. जिन पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं, उनके जनादेश जो भी हों, किसान आंदोलन की धमक वहां भी है. प्रधानमंत्री के आर्थिक सुधारों की राह में किसान आंदोलन तन कर खड़ा है. अब मजदूर भी सड़क पर उतने का एलान कर चुके हैं. दुनिया भर में किसानों के आंदोलन ने हलचल पैदा की है. भारत के किसानों के आंदोलन पर उन ताकतों की भी नजर है, जो भारत में निवेश के बारे में सोच रहे हैं. ऐसे में आर्थिक सुधारों की राह की इस सबसे बड़ी बाधा से निपटने के लिए अब अराजकता का जुमला खड़ा किया जा रहा है. लेकिन पहले के तमाम आरोपों के बावजूद किसान आंदोलन न तो बदनाम हुआ है और न ही कमजोर.
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