आहटों का बड़ा महत्व होता है. कवियों शायरों ने आहटों पर अपनी कलम तोड़ दी है. कदमों की आहट सुन लेने को एक रोमांटिक मामला माना जाता है. आहट पहले से ही सुन ली जाए इसके लिए ही संभवतः पायल पैंजनी वगैरह का फैशन शुरू हुआ होगा. रूनझून छुनछुन आदि शब्द हिंदी फिल्मी गीतों को मिले. रसोई घर की आहटों के बारे में बेशुमार किस्से कहावतें हैं और ज्यादातर महिलाओं को अपमानित करने वाले हैं. मसलन नई बहू रोटी कम बनाती है चूड़ी ज्यादा खनकाती है. यह सास की ओर से बहू पर लगाया गया वह आरोप है, जब सास के एकछत्र साम्राज्य को चुनौती दी जाती है. चोर और बिल्लियां दबे पांव आने और आहट नहीं करने के लिए मशहूर होते हैं, लेकिन फिर भी कभी कभी पकड़ में आ जाते हैं.
रोमांस से अलग हर आहट में एक भय, एक आशंका का भाव होता है जो थ्रिल भी पैदा करता है. महबूबा की आहट से मन आशा से भर जाता है तो खतरे या मौत की आहट पर हृदय कांप जाता है. शायर जब कहता है कि बहुत पहले से उन कदमों की आहट जान लेते हैं/तुझे ऐ जिंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं तो जिंदगी की जगह महबूबा का नाम, पिटने की आशंका से नहीं लिख पाता, जबकि कहना वही चाहता होगा. इसलिए मामले को दार्शनिक बना देता है.
अब आपको लग रहा होगा कि आखिर आहटों पर इतनी बातें करने का क्या मतलब है अभी. दरअसल उस बड़ी कार्रवाई की आहट हवाओं में सुनाई देने लगी है जिसे लोकतंत्र का महापर्व वगैरह कहकर भोलीभाली जनता को धकेल दिया जाता है. वैसे तो हर पांच साल में बेचारी तैयार ही रहती है, लेकिन कभी-कभी बीच में भी यह जिम्मेदारी आ पड़ती है. शायर यह जिम्मेदारी उठाना नहीं चाहता इसलिए कहता है कि जम्हूरियत वह तर्जे हुकूमत है कि जिसमें/बंदों को गिना करते हैं तौला नहीं करते.
अरे भाई! गिनकर ही न तय किया जायेगा कि किस तरफ ज्यादा लोग हैं. अगर किसी बेईमान की तरफ ज्यादा लोग होंगे तो बेईमानी हमारा राष्ट्रीय धर्म बन जायेगा. नफरती नेता के पक्ष में संख्या होगी तो हम सब नफरत को राष्ट्रीय कर्म घोषित कर देंगे. संख्या बल का तो यही आनंद है. किसी भी बेवकूफाना फैसले को आप सही ठहरा सकते हैं. पचास लोग नाक से पानी पी रहे हैं तो मुंह से पानी पीने को सही कैसे ठहरा सकते हैं. खैर अभी तो और कोई बेहतर तरीका भी नहीं है. तो आहट से मन कांप रहा है उसी आहट से जिसके बारे में गीत में कहा गया है- जरा सी आहट होती है तो दिल सोचता है कहीं ये वो तो नहीं…