Faisal Anurag
ठीक एक साल पहले यही 26 नवंबर का दिन था. सत्ता संविधान दिवस की याद में प्रतिबद्धता के कासीदे पढ़ रही थी लेकिन पंजाब हरियाण से दिल्ली कूच कर रहे किसानों के लिए न केवल सड़कों को खोद का बड़ी बड़ी खाई तैयार किया गया था बल्कि कंटीले बाड़, कंटेनर और मजबूत अवरोध खड़े किए गए थे. वह संविधान जो हम भारत के लोगों को समर्पित है और हम भारत के लोगों को विरोध, असहमति प्रकट करने के लिए प्रदर्शन की वकालत भी करता है. बावजूद इसके एक साल तक किसानों को दिल्ली के बोर्डर पर रोक कर रखा गया, उन पर वाटर कैनन से बौछार की गयी,लाठियों से पीटा गया, 700 से अधिक किसानों ने इस विरोध प्रदर्शन में जानें दीं. हालांकि किसान जिन तीन काले कानूनों की वापसी की मांग करने कर रहे थे उसकी वापसी हो गयी. लेकिन इसकी भारी कीमत किसानों को चुकानी पड़ी है. किसानों ने गुरूवार को एक बार फिर दिल्ली में जुट कर अपनी एकता, संकल्प और कृषि क्षेत्र की स्वायत्तता की रक्षा का संकल्प व्यक्त किया है. यही नहीं एक सालों में किसानों ने भारतीय राजनीति का एक नया ट्रेंड भी तय कर दिया है. किसानों ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि वे वास्तव में भारत की आत्मा हैं जिसका व्यापक प्रतिनिधित्व भारत का संविधान करता है.
कृषि क्षेत्र और जलवायु परिवर्तन के एक बड़े नाम सुहास पलसीकर ने कहा है : भारत का संविधान सिर्फ लोकतंत्र पर एक कविता नहीं है यह कानून के शासन पर एक निबंध भी है. जहां हमारा सार्वजनिक प्रवचन कविता का पाठ करता रहता है, वहीं हमारी सार्वजनिक प्रथा लापरवाही से जब कभी कानून के शासन की अवमानना करती है हम भारत के लोगों का प्रतिरोध उसे सही रास्ते पर ला कर खड़ा कर देता है. किसान नेताओं ने संविधान के इसी संकल्प और उससे हासिल साहस के सहारे एक जीत तो हासिल की है लेकिन उनकी मंजिल सिर्फ इतनी भर नहीं है. 1975 के संवैधानिक भटकाव (इमरजेंसी) के खिलाफ रास्ते पर युवाओं और छत्रों ने किसानों मजदूरों के साथ मिल कर ही ला खड़ा किया था और इमरजेंसी एक शोकगीत में बदल दिया था.
किसानों के एक बड़े नेता जोगिन्दर सिंह उगराहा ने एक लेख में कहा है ”निःसंदेह इस संघर्ष का पहला चरण जीत लिया गया है. लेकिन मंडियों में फसलों को रौंदने से बचाने के लिए और पीडीएस के माध्यम से मेहनतकश जनता के लिए भोजन का अधिकार हासिल करने के लिए एक लंबे संघर्ष की आवश्यकता है. यह संघर्ष अब एक उच्च और दीर्घकालिक एकता की मांग करता है. जरूरत इस बात की है कि संघर्ष के अंगारे को तब तक जलाए रखा जाए जब तक कि जीत की घोषणा हकीकत में तब्दील न हो जाए.” वर्तमान समारोहों के बीच, बड़ी चिंताओं को नज़रंदाज़ नहीं करना चाहिए. किसानों नेताओ की यही सजगता किसी भी एकाधिकारवादी सत्ता जो कभी संवाद पर भरोसा नहीं करती बड़ी नसीहत देती है. किसानों ने प्रतिरोध की एक नयी प्रवृति और प्रक्रिया का संचालन किया. किसान आंदोलन में 40 से ज्यादा किसान संगठन शामिल हैं लेकिन किसान आंदोलन का कोई एक नेता नहीं है जिसे सरकार झांसा देकर अपने पक्ष में कर ले. संयुक्त किसान मोर्चा ने सामूहिक निर्णय और नेतृत्व के माध्यम एक साल में ही ऐसी विरासत बना दी है जो भविष्य के भारतीय राजनीति को नयी दिशा देने वाला है.
किसान नेता उगराहा ने यह भी लिखा है जो भविष्य के किसान आंदोलन के लिए अहम है ”” प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में तीन कानूनों के तहत काम कर रहे कृषि के कारपोरेटीकरण के जोर को जबरदस्ती जायज ठहराने की कोशिश की है. उन्होंने इन कानूनों के पीछे पूरे देश के किसानों की सार्वभौमिक सहमति और किसानों के व्यापक प्रतिरोध को एक छोटे से वर्ग की अप्रियता के रूप में दावा किया है. उन्होंने अपने संबोधन के माध्यम से वास्तव में वैश्विक साम्राज्यवादी कंपनियों और बड़े कॉरपोरेट्स से इन कानूनों पर लोगों को धोखा देने में सफल नहीं होने के लिए माफी मांगी है. साथ ही उन्होंने अपने पहले के पथ पर चलते रहने की अपनी प्रतिबद्धता दोहराई है. तथाकथित ‘सुधारों’ के हितों के लिए शून्य बजट खेती और फसल विविधीकरण जैसे विचारों को दोहराया गया है. प्रधानमंत्री के संबोधन के बाद नरेंद्र तोमर ने अपने एक बयान में कृषि में ‘सुधारों’ को आगे बढ़ाने के लिए वैकल्पिक तरीके अपनाने की बात भी कही है.
किसान नेताओं ने सरकार को यह भी संदेश दिया है कि कृषि क्षेत्र के वास्तविक मुद्दों से सरकार के कतराने का दौर खत्म हो चुका है. सरकार को जरूरत इस बात की है कि वह कारपारेट के हितो के लिए भारत की कृषि संरचना की विशिष्टताओं से नहीं खेले और कृषि और किसान की अस्मिता और गरिमा पर चोट नहीं करे. संविधान दिवस के दिन किसानों का यह संदेश बताता है कि आने वाले दिनों में किसान न केवल राजनीति को बदलने की दिशा में कदम उठाने के प्रति गंभीर हैं बल्कि किसानों के आंदोलन को और धार देने के लिए तत्पर हैं.