Satyendra Ranjan
तीन कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहा किसान आंदोलन दुनिया भर में चर्चित हुआ है. भारत में इसमें निहित संभावनाओं पर चर्चा चल रही है. इस सिलसिले में कहा गया है कि किसानों ने सत्ता के सामने सच बोला है और वो सच अब आम जुबान पर है. बेशक ये बात या आरोप पहले कभी इतनी चर्चा में नहीं थी कि वर्तमान केंद्र सरकार केवल दो उद्योगपतियों के हित में काम कर रही है. कुछ गंभीर लेखों और खासकर राहुल गांधी के ट्विट और वामपंथी नेताओं के बयानों में ये बात जरूर जब-तब कही जाती थी, लेकिन जितने आम ढंग अब ये बोली जा रही है, ऐसा इसके पहले नहीं था.
अब तक आरएसएस- बीजेपी के इकॉसिस्टम से बाहर के समूहों में अक्सर आक्रोश का निशाना दो नाम (नरेंद्र मोदी और अमित शाह) होते थे. अब उनके साथ दो और नाम (अंबानी और अडानी) जुड़ गये हैं.
इस आंदोलन की ये खूबी भी है कि लंबे समय बाद इसने राष्ट्रीय विमर्श को आर्थिक मुद्दों पर केंद्रित किया है. वरना, पिछले तीन दशकों में आइडेंटिटी (जाति, धर्म, क्षेत्र, लिंग) के आधार पर हुई गोलबंदियां ही राजनीति में हलचल पैदा करती रही थीं. इस रूप में किसानों के आंदोलन को पिछले साल इन्हीं दिनों हुए नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) विरोधी आंदोलन की श्रेणी में रखा जा सकता है, जिस दौरान वो उसूल व्यापक गोलबंदी का हिस्सा बने थे, जिन पर हमारा संविधान आधारित है.
मगर विडंबना यह है कि इन दोनों आंदोलनों को एक श्रेणी में रखना आज के बहुत से किसान आंदोलनकारियों को रास नहीं आया है. इसकी मिसाल बीते 10 दिसंबर को देखने को मिली, जब मानवाधिकार दिवस के दिन भारतीय किसान यूनियन (एकता- उग्राहन) के सदस्य सीएए विरोधी आंदोलन के सिलसिले में गिरफ्तार हुए कई कार्यकर्ताओं की तस्वीरें लेकर विरोध स्थल पर बैठे.
इस पर प्रतिक्रिया यह हुई कि 32 दूसरे किसान संगठनों ने सार्वजनिक रूप से खुद को इस कदम से अपने को अलग करने का एलान किया. इतना ही नहीं उन्होंने यह कहा कि उग्राहन गुट के इस कदम से मौजूदा किसान आंदोलन को नुकसान हुआ है. दरअसल आंदोलन के दो समूहों में समझ का यही फेर मौजूदा किसान की आंदोलन की सबसे बड़ी सीमा है. इससे ये अहम सवाल उठा है कि ये आंदोलन राजनीतिक है या राजनीति से दूर है? दरअसल, जिस तरह आंदोलन की मांग का समर्थन कर रहे विपक्षी दलों को इस आंदोलन से दूर रखने की कोशिश की गयी है, उससे भी यही जाहिर होता है कि इस आंदोलन में इस अहम सवाल पर स्पष्टता बनाने की अहमियत नहीं समझी गयी है.
सवाल है कि मोदी सरकार ने ये कृषि कानून क्यों बनाये? या उसके साथ ही श्रम संहिता में बदलाव क्यों किये? और उसने नागरिकता कानून में संशोधन क्यों किया था. इन सवालों का दायरा और दूर तक जाता है. लेकिन फिलहाल हम इसे यहीं तक सीमित रखते हुए इस बात पर विचार करते हैं. कृषि कानूनों के सिलसिले में स्वदेशी जागरण मंच की इस राय पर गौर किया जाना चाहिए कि इसके पीछे सरकार की नीयत अच्छी है, लेकिन ये कदम ठीक नहीं है. इसलिए इन कानूनों में बदलाव किया जाना चाहिए. मुद्दा यह है कि सरकार की नीयत किसके हित में ठीक है?
यहां यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि इस आंदोलन से जुड़े अनेक किसान संगठन और नेता आरएसएस-बीजेपी इकॉसिस्टम का हिस्सा हैं. वो सब समाज को जो पैगाम देते हैं, उसका सार यही होगा कि सरकार की नीयत पर शक नहीं किया जा सकता. 2017 में उभरे किसान आंदोलन के हश्र पर अगर गौर करें, तो इस सोच से जुड़ी समस्या स्पष्ट हो जाती है. इसलिए कि 2019 के चुनाव में जब निर्णय का वक्त आया, तो किसानों के बहुमत ने नीयत पर भरोसा करते हुए ही अपनी तमाम शिकायतों के बावजूद मोदी सरकार को दोबारा जनादेश देने का फैसला किया.
पहले से अधिक ताकत के साथ सत्ता में लौटी मोदी सरकार ने अगर पिछले सितंबर में बिना संसदीय समिति में गये और बिना संसद में यथोचित बहस कराये ये कानून बना लिये, तो इसकी ताकत उसे 2019 के आम चुनाव से ही मिली थी. इस संबंध में कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के इस बयान का जिक्र करना प्रासंगिक होगा कि सरकार के पास उपरोक्त कानून बनाने और उस अमल करने के लिए (लोकसभा में) 303 सदस्यों का बहुमत है.
तो जाहिर है, मोदी सरकार ने ये कानून इसलिए बनाये हैं, क्योंकि उसकी राय है कि अपने राजनीतिक उद्देश्यों के मुताबिक, कदम उठाने का जनादेश उसे है. ये कदम (या ये कानून) उसकी राजनीति का हिस्सा हैं. 2014 में बतौर प्रधानमंत्री उम्मीदवार मैदान में उतरे नरेंद्र मोदी ने ‘न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन’ का नारा सबके सामने रखकर अपनी ये राजनीति स्पष्ट कर दी थी. यानी उन्होंने किसी को भ्रम में नहीं रखा था. नव-उदारवाद के इस नारे का सार अगर मतदाता नहीं समझ पाये, तो इसके लिए मोदी को दोष नहीं दिया जा सकता.
ठीक उसी तरह जैसे तभी उन्होंने खुद को ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ बताकर ये साफ कर दिया था कि वे इस राष्ट्र के बुनियादी स्वरूप को बदलने का इरादा रखते हैं. स्पष्टतः ये दोनों ही बातें उनकी राजनीतिक विचारधारा का हिस्सा हैं.
इसीलिए वर्तमान किसान के आंदोलन के संदर्भ में भी मुख्य सवाल राजनीति का ही है. इस बात को ना मानना सिर्फ अपने को भ्रम में रखना है. और ऐसा करना खुद अपनी नाकामी की राह तैयार करना है. दुर्भाग्य से किसान आंदोलन इसी राह पर है. अगर ये किसान आंदोलन अपने को राजनीतिक मानता, तो वह समर्थन दे रहे दलों से सौदेबाजी करता. उनसे वादा लेता कि अगर वे सत्ता में आये, तो इन कानूनों को रद्द कर देंगे.
वादा करने वाले दलों की ताकत का इस्तेमाल तब आंदोलन की रणनीति का हिस्सा होता. इससे आंदोलन को व्यापकता मिलती. लेकिन किसान आंदोलन ने ये विकल्प छोड़ रखा है.
साथ ही उस स्थिति में आंदोलनकारी यह बेहतर ढंग से समझ पाते कि सीएए भी वर्तमान सरकार की उसी राजनीति का नतीजा है, जिसके परिणामस्वरूप कृषि कानून या नया श्रम संहिता कानून बनाया गया है. या जिसके तहत बिजली कानून में संशोधन प्रस्तावित है. तब एंटी-सीएए प्रोस्टेट को लांछित करने के लिए टुकड़े-टुकड़े गैंग, बिरयानी, पाकिस्तान से तार जुड़े होने जैसी बातों से एक खास नैरेटिव बनाया गया था. अब खालिस्तानी, पिज्जा, चीन-पाकिस्तान के हाथ और आखिरकार टुकड़े-टुकड़े गैंग की आंदोलन में मौजूदगी की बातें की जा रही हैं. अगर कुछ किसान नेता सोचते हैं कि एंटी-सीएए प्रोटेस्ट के नेताओं की तस्वीरों से बच कर वे इस लांछन अभियान से बच जाएंगे, तो इसे उनका भोलापन ही कहा जा सकता है. लेकिन इससे भी ज्यादा मुश्किल बात यह है कि बहुत से किसान संगठन और नेता सचमुच एंटी-सीएए आंदोलन के समय आरएसएस-बीजेपी की तरफ से प्रचारित नैरेटिव में यकीन करते हैं.
अपने आंदोलन को पवित्र और दूसरे मुद्दे पर हुए आंदोलन पर सरकारी नैरेटिव को सहज स्वीकार कर लेने के इस नजरिये पर आखिर क्या कहा जाना चाहिए?
अभी की सच्चाई यह है कि किसान आंदोलन को लेकर गतिरोध कायम हो चुका है. ये बात लगभग साफ है कि सरकार आंदोनकारियों की मांग को मानते हुए कृषि कानूनों को वापस नहीं लेगी. ऐसे में किसान आंदोलन का क्या हश्र होगा? क्या ये हश्र एंटी-सीएए प्रोटेस्ट से अलग होगा? फिलहाल, ऐसा मानने की कोई वजह नहीं है.
इसके बावजूद राजनीतिक नजरिये से ये आंदोलन अहम है. यह एक मशहूर कहावत है कि कई बार ऐसे आंदोलन होते हैं, जो कामयाब नहीं होते, लेकिन दीर्घकाल के लिए ऐसी समझ और समझदार कार्यकर्ता तैयार करते हैं, जो भविष्य में बदलाव की बुनियाद बनते हैं. ऐसा इस आंदोलन के साथ होगा, यह उम्मीद जरूर रखी जा सकती है. पिछले साढ़े छह साल में भारत का मूल स्वरूप बदल गया है. हिंदुत्व की विचारधारा ने यहां अपना पूरा वर्चस्व कायम कर लिया है. इस विचारधारा से मोहभंग एक लंबी प्रक्रिया होगी. एंटी सीएए प्रोटेस्ट और मौजूदा किसान आंदोलन दोनों को इस प्रक्रिया का हिस्सा माना जा सकता है.
यानी अल्पकाल में भले इसे कामयाबी मिलने की गुंजाइश बहुत कम दिखती हो, लेकिन दीर्घकालिक संदर्भ में ये आंदोलन अहम है. राजनीति में अगर गतिरोध बनते रहें, तो दीर्घकाल में उनके असर से कोई व्यवस्था बच नहीं सकती.
जहां तक सत्ता के सामने आकर सच बोलने की बात है, तो यह काम तो इस आंदोलन ने किया ही है. इससे वो सच अब दबी जुबान से खुलकर बोला जाने लगा है, जिससे देश की अर्थनीति तय हो रही है.
बहरहाल, कहा जाता है कि सत्ता के सामने सच बोलना साहस भरा काम होता है, लेकिन अगर ऐसा करने वाला समूह सच अपने पास रखता है और सत्ता उन लोगों के पास ही रहने देता है जो उस सच को सुनना नहीं चाहते, तो बात अधूरी रह जाती है. चूंकि किसान आंदोलन सत्ता और राजनीति के सवाल पर चुप रहना चाहता है, या इसकी समझ से वह दूर है, तो उसकी बात भी फिलहाल अधूरी ही रहेगी, ये बात भी लगभग बेहिचक होकर कही जा सकती है.
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.