Faisal Anurag
तो क्या सचमुच किसानों को विपक्ष भड़का रहा है जैसा कि प्रधानमंत्री बार-बार बोल रहे हैं. प्रधानमंत्री का इशारा साफ है कि किसानों की स्पष्ट मांग के बावजूद मोदी सरकार तीनों कानूनों को रद्द किये जाने के लिए तैयार नहीं हैं. कच्छ में तो प्रधानमंत्री ने स्प्ष्ट कर दिया है कि किसान आंदोलन उन भटके हुए लोगों का है, जो विपक्ष के इशारे पर चलते हैं. इससे जाहिर होता है कि केंद्र किसानों के सवालों के प्रति तब भी गंभीर नहीं है. जब किसान साफ कर चुके हैं कि अब आगे केंद्र से किसी भी तरह की बातचीत कानूनों को रद्द करने के प्रस्ताव पर ही होगी.
आखिर केंद्र हर तरह के आंदोलन के लिए विपक्ष को ही दोषी क्यों मानती है. प्रधानमंत्री ने यह भी कहा है कि किसानों की आशंकायें निराधार हैं और तीनों कानूनों से कृषि क्षेत्र में नये परिवर्तन होंगे. किसान भी तो इन्हीं परिवर्तनों को लेकर सवाल उठा रहे हैं. यह परिवर्तन कितना कॉरपारेट के पक्ष में जायेगा और कितना किसानों के विवाद तो इसी पर है.
कच्छ में प्रधानमंत्री मोदी पंजाब और हरियाणा से कच्छ में बसे किसानों से मिले. ये वही किसान हैं, जो 1965 के बाद कच्छ में खेती कर रहे हैं. इन किसानों का अपना दर्द है. ये किसान न केवल अपनी जमीन बचाने के लिए संघर्ष बल्कि 2010 के बाद से जमीन पर अपने हक के लिए कानूनी जंग कर रहे हैं.
यह लड़ाई तब से जारी है, जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे. गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में मोदी सरकार को कृषि क्षेत्र में बड़ा बदलाव लाने वाला मॉडल प्रचारित किया गया था. गुजरात से आंदोलन में भाग लेने आये किसानों ने बताया है कि गुजरात में कृषि संकट कितना व्यापक हो चुका है. अमेरिका के मॉडल पर भारत की कृषि को लाने की पहल बेहद घातक साबित हो सकती है. किसान संगठन मान रहे हैं कि इन कानूनों से उनकी पहचान,जमीन और स्वायत्त्ता नष्ट होगी. कॉनट्रैक्ट फार्मिंग को जो कानून बनाया गया है, वह पहले से कुछ क्षेत्रों में जारी कॉन्ट्रैक्ट सिस्टम से कोइ सबक नहीं हासिल कर सका है. पंजाब में जिन किसानों ने पेप्सी या इसी तरह की अन्य कंपनियों को जमीन दी है, वे आज गहरे संकट में हैं. इनमें कई किसान तो आत्महत्या तक कर चुके हैं.
सिंधु बार्डर पर किसानों ने आत्महत्या करने वालों के परिवारों के सदस्यों को भी आमंत्रित किया है ताकि किसानों की कहानी से देश परिचित हो सके. 20 दिनों से जारी आंदोलन में अब तक 20 किसानों की मौत हो चुकी है. किसान संगठनों ने उन्हें शहीद बताते हुए श्रद्धांजलि भी दी है. आंदोलन का असर अब तो दिल्ली के आसपास के औद्योगिक क्षेत्रों पर भी पड़ने लगा है. द हिंदू ने इस आशय की एक रिपोर्ट प्रकाशित की है. रिपोर्ट् के अनुसार बहादुरगढ़ की सैकड़ों औद्योगिक यूनिट बुरी तरह प्रभावित हुए हैं.
टिकरी बार्डर पर बहादुरगढ़ लेदर इंडस्ट्री का बड़ा केंद्र है. इन इकाइयों में उत्पादन आधा से भी कम हो रहा है. बहादुरगढ़ चेंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री के वरिष्ठ उपाध्यक्ष नरेंद्र छिकारा ने द हिंदू अख़बार से बातचीत में कहा कि मॉडर्न इंडस्ट्रियल स्टेट (एमआईई) के ‘पार्ट बी’ में क़रीब 1600 इकाइयां हैं, जिनमें फुटवियर, इलेक्ट्रॉनिक्स, प्लास्टिक, ऑटो-पार्ट्स और केमिकल की इकाइयां सबसे बुरी तरह से प्रभावित हुई हैं.
किसान नेता लंबी लडाई के लिए तैयार हैं. वे सरकार की इस रणनीति को समझ रहे हैं कि वह प्रोपेगेंडा से आंदोलन में दरार पैदा करने का प्रयास कर रही है. अमेरिका सहित कई यूरोपीय देशों में किसान आंदोलन के समर्थन में प्रदर्शन हो रहे हैं, इससे किसानों को महसूस हो रहा है कि सरकार पर उनका दबाव बना हुआ है. किसान आंदोलन पर किसी प्रोपेगेंडा का असर नहीं दिख रहा है इससे भी सरकार की परेशानी हर दिन बढ़ रही है. संसद के शीतकालीन सत्र नहीं बुलाने की सरकार की घोषणा को किसान अपनी लंबी लडाई की तैयारी के रूप में देख रहे हैं.
किसानों ने बातचीत के दौरान केंद्र से साफ कहा था कि वह ससंद का विशेष बुलाकर तीनों कानूनों को रद्द करे. यह तो स्प्ष्ट हो ही गया है कि बीच का कोई रास्ता निकालने की सरकार की कोशिशें नकाम हो गयी हैं. किसानों ने भी बारगेनिंग की बजाय अपनी मांग पर दृढ बने रहने का रूख दिखाया है. किसान दिल्ली को जोड़ने वाले सभी चार राजमार्गों को लगभग बंद करा चुके हैं.
दिल्ली से जयपुर जाने वाले मार्ग पर भी हरियाण के बॉर्डर पर चार दिनों से किसान जमे हुए हैं. सरकार के तमाम रणनीतिकारों के लिए किसान आंदोलन एक ऐसी चुनौती है जिसका कोई तोड़ नहीं दिख रहा है.
सरकार के पास अब अत्यंत सीमित आप्शन है क्योंकि मोदी सरकार पहली बार साख के संकट में है.