Faisal Anurag
क्या कांग्रेस को उसकी जगह से अपदस्थ कर तृणमूल कांग्रेस भाजपा विरोधी विपक्षी विकल्प का नेतृत्व हासिल कर लेगी. कांग्रेस इस समय दो तरफा संकट से घिरी हुई है. एक ओर उसके कुछ नेता हैं जो लगतार भारतीय जनता पार्टी को कांग्रेस पर हमलावर होने का अवसर देने पर आमादा हैं. तो दूसरी ओर ममता बनर्जी हैं, जो कांग्रेस नेताओं को अपने पाले में लाने के लिए बेताब हैं. नरेंद्र मोदी ने 2013-14 में कांग्रेसमुक्त भारत का जुमला खूब उछाला था. यही नहीं नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह के कालखंड की सरकारों की निष्क्रियिता और कथित गलत नीतियों को राजनीतिक एजेंडा बनाने और लोगों के दिमाग में बैठाने के लिए खूब प्रचार किया था. 2019 के लोकसभा चुनाव में मिली हार के बाद से कांग्रेस को एक ऐसे जहाज के रूप में भटकते दिखाने की कोशिश जारी है, जिसका कोई कप्तान नहीं है.
ममता बनर्जी ने पहले तो केवल बंगाल के भीतर ही कांग्रेस को तोड़ने के अनेक प्रयास किए. यहां तक कांग्रेस के वोट आधार को भी अपनी ओर करने का जोरदार अभियान चलाया. लेकिन 2016 के विधान सभा चुनाव में कांग्रेस के वोट आधार में ज्यादा बदलाव नहीं दिखा और वामफ्रंट के साथ मिल कर उसने चुनाव लड़ा और दूसरे स्थान पर रही. लेकिन 2021 के विधानसभा चुनाव में उसने फिर वामफ्रंट के साथ तालमेल किया. लेकिन न तो वह अपने वोट को बचा सकी और न ही विधान सभा में उसका खाता खुला. वामफ्रंट का भी खाता पहली बार नहीं खुला. भारतीय जनता पार्टी को तृणमूल ने भी अपना प्रतिद्वंदी माना और कांग्रेस वामफ्रंट को नुकसान पहुंचाने के एवज में उसे फलने-फूलने का राजनैतिक माहौल दिया.
ममता बनर्जी ने 2021 के चुनाव को जिस तरह लड़ा और जीता इससे उनकी ख्याति बढ़ी और राष्ट्रीय महत्वकांक्षा भी जगी. आयरन लेडी की छवि के सहारे वे भाजपा से लड़ने वाली अकेली राजनैतिक ताकत दिखने के अभियान में लग कर कांग्रेस को तोड़ने में लगी हैं. गोवा, असम, त्रिपुरा और उत्तर प्रदेश के अनेक नेताओं को तोड़ने में कामयाब हुई हैं. गोवा में वे कांग्रेस का विकल्प बन भाजपा को हराने के लिए जोरशोर से अभियान भी चला रही हैं. हरियाण में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष रहे अशोक तंवर, जिन्होने हाल ही में अलग पार्टी बना लिया था, अब ममता बनर्जी के साथ आ गए हैं. भाजपा से कांग्रेस में आए क्रिकेटर कीर्ति झा आजाद भी तृणमूल में चले गए हैं. प्रशांत किशोर की बनायी रणनीति के तहत पहली बार ऐसा हुआ कि दिल्ली यात्रा के दौरान ममता बनर्जी ने सोनिया गांधी से मुलाकात नहीं किया. ममता बनर्जी के नजदीकी तो यह लगातार कह रहे हैं कि ममता दूसरे विपक्षी दलों के साथ भाजपा विरोधी एक कारगर मोर्चा बनाना चाहती हैं. तो क्या कांग्रेस को नजरअंदाज कर भाजपा के खिलाफ राष्ट्रीय फलक पर कोई गठबंधन बनना संभव है.
मई में संपन्न हुए बंगाल चुनाव के बाद ममता बनर्जी ने कहा था कि वे कांग्रेस समेत सभी विपक्षी दलों को एक साथ एक मंच पर लाने के लिए तत्पर हैं. फिर ऐसा क्या हो गया कि जिन राज्यों में कांग्रेस भाजपा के मुकाबले खड़ा है वहां भी उनकी दिलचस्पी बढ़ गयी है. क्या इससे भाजपा विरोधी वोटों के दिग्भ्रमित होने का खतरा नहीं हैं. क्या एक पार्टी को जड़ मूल से खत्म कर उसकी जगह लिया जा सकता है. ये कुछ सवाल हैं जिनके उत्तर नकारात्मक ही हैं. ऐसे में भाजपा के खिलाफ एकजुटता की बजाय अलग-अलग मंच का प्रयोग कितना कारगर होगा?
इस बीच कांग्रेस के वे नेता, जो 2004 से 2014 तक कांग्रेस की सरकार के महत्वपूर्ण पदों पर रहे हैं, अचानक ऐसी बातें किताबों में क्यो लिख रहे हैं, जिससे कांग्रेस विरोधियों को हमला करने का आधार मिल रहा है. सलमान खुर्शीद के बाद अब मनीष तिवारी की किताब की चर्चा हैं. दोनों ही कांग्रेस से असंतुष्ट चल रहे हैं. मुबंई आतंकवादी हमले के संदर्भ में तिवारी ने जो कुछ लिखा है वह न केवल कांग्रेस को कमजोर पेश करने का कारगर तर्क दे रहा है बल्कि भविष्य के लिए भी चुनौती पेश कर रहा है. ये वही मनीष तिवारी हैं, जिन्होंने 2014 का लोकसभा चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया था. 2019 में वे लोकसभा में आए जो अमरेंद्र सिंह के साथ हैं. दिल्ली में ऐसी चर्चा जोरों पर है. हो सकता है कि अगले कुछ दिनों में वे अमरेंद्र सिंह के साथ पंजाब चुनाव में हिस्सा लेते नजर आएं.
कांग्रेस में जी 23 के नाम पर अनेक नेता हैं, जो कांग्रेस से अलग होने के समय का इंतजार कर रहे हैं. जम्मू कश्मीर में गुलाम नबी आजाद के दर्जनों करीबी नेता कांग्रेस से इस्तीफा दे चुके हैं और आजाद का उन्हें अब भी समर्थन प्राप्त है. कांग्रेस आलाकमान जो पिछले तीन सालों से ऐसी चुनौतियों से घिरा हुआ है, उसकी सबसे बड़ी परीक्षा तो यही है कि वह इससे कैसे बाहर निकलता है या फिर बिखराव का शिकार हो जाता है. हालांकि कांग्रेस की जगह लेने की ममता बनर्जी की महत्वकांक्षा की राह आसान नहीं होने जा रही है.