Faisal Anurag
केंद्र सरकार ने बंगाल हिंसा के ताजा घटनाक्रम के बाद बंगाल के मुख्यसचिव और डीजीपी को तलब किया है. ममता बनर्जी की पार्टी राज्य में केंद्र के दखल को बेवजह बता रही है. केंद्र बनाम राज्य के एक नये टकराव कर पृष्ठभूमि भी बंगाल में बन रही है. अगले साल के शुरू में बंगाल में विधानसभा चुनाव होने को हैं. इस बीच केंद्र और बंगाल सरकार के बीच राजनैतिक टकराव बढ़ता जा रहा है.
चुनाव तो चार राज्यों में होनेवाले हैं, लेकिन इस समय बंगाल की चर्चा ज्यादा हो रही है. अगले साल अप्रैल-मई में बंगाल के साथ ही तमिलनाडु, पुंडिचेरी,असम और केरल में भी चुनाव होंगे. हालांकि हैदराबाद नगर निगम में भारतीय जनता पार्टी ने जबरदस्त प्रदर्शन किया है, लेकिन उसे पता है कि कर्नाटक को छोड़कर दक्षिण के राज्यों में सत्ता में आने की उसकी संभावना नहीं है. लोकसभा चुनाव में 31.8 प्रतिशत वोटशेयर हासिल करने के साथ ही भाजपा ने बंगाल में सत्ता का दावेदार मान लिया है.
हाल के घटनाक्रमों, जिसमें भाजपा के अध्यक्ष नड्डा के काफिले पर हमले के बाद बंगाल के चुनाव में हिंसा की वापसी का एक नया दौर शुरू होता दिख रहा है. बंगाल और केरल दो ऐसे राज्य हैं, जहां राजनीतिक हत्याओं और हिंसा का आरोप लंबे समय से लगता रहा है. विधानसभा चुनाव के ठीक पहले राज्य में ममता बनर्जी को सत्ता से अपदस्थ कर राज्यपाल शासन के हालात पैदा करने के प्रयास भी किये जा रहे हैं. हालांकि इसकी राह आसान नहीं है. बंगाल राजनैतिक तौर पर एक संवेदनशील राज्य है, जहां का राजनीतिक समीकरण और संस्कृति देश के दूसरे राज्यों से भिन्न है.
बंगाल में दूसरे दलों के वोट शेयर में सेंध के हरसंभव प्रयास किये जा रहे हैं. बंगाल के इतिहास में आजादी के बाद यह पहला ही चुनाव होने जा रहा है, जिसमें धार्मिक ध्रुवीकरण भी तेज है. विदेशी घुसपैठ के सवाल को भाजपा ने जिस तरह उठाया है, उससे जाहिर होता है कि उसने अपने तरकश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ही प्रभावी तीर है. 1942 से 1950 तक बंगाल भयावह संप्रदायिक दंगों के दौर से गुजरता रहा है. ब्रिटिश भारत में बंगाल ही दो अन्य राज्यों के साथ वह राज्य है, जहां हिंदू महासभा ने मुस्लिम लीग के साथ मिलकर सरकार बनायी थी.
लेकिन आजादी के बाद बंगाल के संस्कृति के नये उभार के दौर में बंगाल के चुनाव का ट्रेंड बदल गया. वामफ्रंट के लंबे शासनकाल में ही बंगाल में राजनैतिक हिंसा होती रही थी. माना जा सकता है कि बंगाल में चुनाव और राजनैतिक हिंसा का गहरा संबंध है और उससे एकबार फिर दहशत पैदा होने की संभावना प्रबल है.
भारतीय लोकतंत्र की यह त्रासदी ही है, मुद्दों के बजाय चुनाव में ध्रुवीकरण वाले सवाल प्रमुख होते हैं. सिंगुर और नंदीग्राम के किसानों के आंदोलनों ने वामफ्रंट के शासनकाल का अवसान कर दिया. 2019 के लोकसभा चुनाव में तो वामफ्रंट को मात्र 14.4 प्रतिशत ही वोटशेयर हासिल कर सका. 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को मात्र 17 प्रतिशत ही वोटशेयर हासिल हुआ था, जबकि तृणमूल कांग्रेस को 39.8 प्रतिशत और वामफ्रंट को 23 प्रतिशत और कांग्रेस को 9.7 प्रतिशत.
हालांकि विधानसभा चुनाव 2017 में तृणमूल ने 211 सीट जीती थी. 2021 का चुनाव का परिदृश्य भिन्न है. भाजपा लोकसभा 2019 के चुनाव से बेहतर प्रदर्शन करने की तैयारी को अंजाम दे चुकी है. भाजपा के शीर्ष नेताओं के निशाने पर बंगाल की सत्ता है.
हिंसा की घटनाओं को अपने-अपने वोट शेयर की हिफाजत और उसमें बढोत्तरी के नजरिये से ही अंजाम दिया जा रहा है. हार-जीत तो चुनाव परिणाम के बाद ही पता चलेगी. लेकिन बंगाल में जिस तरह के सामाजिक सांप्रदायिक विभाजन की तस्वीर तैयार की जा चुकी है, उसके संकेत बेहतर नहीं हैं.
बंगाल में केंद्र, राजभवन और भाजपा के गठजोड़ साफ दिखायी दे रहे हैं. नड्डा पर हुआ हमला निश्चय ही दुखद है. लेकिन इसपर बंगाल में जिस तरह की राजनीति हो रही है, उससे भविष्य में बडी हिंसा की संभावना बनती दिख रही है. त्रिपुरा में वामफ्रंट को सत्ता से हटाकर भाजपा ने पूरे पूर्वोत्तर भारत पर कब्जे की रणनीति बना रखी है. बंगाल उसमें एक ऐसा द्वार है, जो उसके लिए अब तक अभेद्य है.बंगाल में यदि हिंसा नहीं रुकती है तो पटकथा भिन्न भी हो सकती है. बावजूद इसके बंगाल की राजनीतिक समझ रखने वालों की माने तो बंगाल अब भी भाजपा के लिए एक बड़ी चुनौती है और मीडिया के तमाम दावों के बावजूद प्रतिबद्ध वोटशेयर में बिखराव आसान नहीं होगा. लोकसभा में भाजपा की भी छलांग वामफ्रंट के वोट शेयर के गिरावट के कारण संभव हुआ. भाजपा इस तथ्य को समझ रही है कि विधानसभा चुनाव 2019 के लोकसभा चुनाव की तुलना से भिन्न है. बंगाल को हिंसा में धकेलना या राजनैतिक अस्थिरता पैदा करना लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए चिंताजनक ही साबित होगा.