Nishikant Thakur
इस बार फिर राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में होने जा रहे विधानसभा चुनाव पर नजर डालें. कुछ दिन पहले तक प्रचार के कारण ऐसा लगता था जैसे भाजपा और आम आदमी के बीच कांटे की टक्कर है, लेकिन अब जब कांग्रेस ने भी चुनाव में अपना खम ठोक दिया है, तब से लगने लगा है कि यह चुनाव किसी के लिए अब उतना आसान भी नहीं रह गया है. ऐसा इसलिए, क्योंकि अब वह त्रिकोणीय मुकाबला हो गया है.
दिल्ली चुनाव को जिस हल्के तरीके से दोनों दलों (भाजपा और आप) ने लिया था, उस काल के लिए उनकी सोच सही लग रही थी, लेकिन आज ऐसा नहीं है. एक ओर जहां भाजपा के प्रचार के लिए प्रधानमंत्री स्वयं भाषण और रैली करके अपने दल की जीत को सुनिश्चित करने में लग गए हैं, उसी तरह कांग्रेस अध्यक्ष और संसद में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी अपनी पार्टी की जीत सुनिश्चित करने में लग गए हैं. वैसे, पहले जब यह कहा जा रहा था और नारा बुलंद किया जा रहा था कि देश अब कांग्रेस मुक्त होने जा रहा है, लेकिन आजादी के लिए अंग्रेजों से लड़ने वाले दल कांग्रेस ने संकल्प लिया कि वह फिर से खुद को राष्ट्रीय धारा से जोड़कर जनता के सामने अपने आप को पेश करेगा.
ऐसा ही हुआ, जब राहुल गांधी ने कन्याकुमारी से कश्मीर तक की पैदल यात्रा करके देश की जनता के साथ-साथ सत्तारूढ़ दल को दिखा दिया कि कांग्रेस अभी उतनी कमजोर नहीं हुई है, जितना उसे आंका जा रहा है. हालांकि, उस दौरान कांग्रेस के उस दौर के कुछ मौकापरस्त तथाकथित बड़े नेता उसी तरह पार्टी छोड़कर चले गए, जैसे जहाज के डूबने से पहले अपनी जान बचाने के लिए चूहे समुद्र में प्राण रक्षा के लिए कूद जाते हैं, लेकिन आज का हाल देखिए, कुछ को छोड़कर ऐसे अधिकांश नेता वैसे ही अथाह समुद्र में खो गए, जिनका नामलेवा भी आज कोई नहीं है.
अब जरा दिल्ली के राजनीतिक इतिहास को समझते हैं. राष्ट्रीय राजधानी की सूरत बदलने के लिए कांग्रेस की दिवंगत मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को भला कोई क्या भूल सकता है! उन्हें दिल्ली का शिल्पकार कहा जाता है. शीला दीक्षित ने पढ़ाई-लिखाई दिल्ली के मिरॉन्डा हाउस से की थी. कांग्रेस ने उन्हें उस समय दिल्ली की कमान सौंपी थी, जब राजनीतिक राजधानी दिल्ली में मदनलाल खुराना, साहिब सिंह वर्मा और विजय कुमार मल्होत्रा जैसे कद्दावर भाजपा नेता मौजूद होते थे.
इसके बाद भी शीला दीक्षित ने न केवल लगातार कांग्रेस को अपनी जीत कायम रखते हुए लगातार पंद्रह वर्षों तक मुख्यमंत्री बनी रहीं और दिल्ली को पूरी तरह बदल दिया. ऐसे कुछ काम जो उन्होंने बड़े किए, उन्हें भी लगे हाथ जानने की कोशिश करते हैं और जिसके कारण उन्हें दिल्ली का शिल्पकार कहा जाता रहेगा. उनके किए ऐसे कार्यों में दिल्ली मेट्रो, फ्लाईओवर, सड़कों का जाल आदि को गिना जा सकता है. उनके कार्यकाल में 70 फ्लाईओवरों का निर्माण हुआ.
सड़क परिवहन व्यवस्था में प्रदूषण और अराजकता का पर्याय बन चुके ब्लूलाइन बस को चलने की शुरुआत, सीएनजी जैसी दूरदृष्टा ने स्वच्छ ईंधन को बढ़ावा देने के लिए फैसले लिए. कॉमनवेल्थ गेम्स 2010 में कम समय के बावजूद गेम्स को विश्वस्तरीय बनाने का उन्हें श्रेय मिला. इसी प्रकार कई अन्य कार्यों को उनके पंद्रह वर्ष के शासन काल को दिल्ली का स्वर्णिम काल माना जाता है, जिसने एक नई दिल्ली को गढ़ा.
वर्ष 1993 से 1998 तक भाजपा की सरकार रही. इन पांच वर्षों में मदनलाल खुराना, साहिब सिंह वर्मा और सुषमा स्वराज स्वराज मुख्यमंत्री रहे. राज्य के तीसरे मुख्यमंत्री के रूप में मदनलाल खुराना दिल्ली में भाजपा की सरकार बनने पर मुख्यमंत्री बने. खुराना मुख्यमंत्री बनने से पहले दक्षिण दिल्ली से चुने हुए सांसद थे, फिर केंद्र सरकार के मंत्री और आखिर में राजस्थान के राज्यपाल बने. साहिब सिंह वर्मा मुख्यमंत्री बने. उन्होंने दिल्ली शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच समन्वय बनाने का भरपूर प्रयास किया.
फिर बाद में दक्षिण दिल्ली के सांसद चुने गए और केंदीय सरकार के श्रममंत्री बनाए गए. दिल्ली में साहिब सिंह वर्मा के मुख्यमंत्रित्व कार्यकाल को उनके यादगार कार्यों के लिए आज भी याद किया जाता है. वर्मा का निधन एक सड़क दुर्घटना में हो गया. फिर सुषमा स्वराज को दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाया गया. उनका कार्यकाल लगभग दो महीने का रहा, जिन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाई और फिर केंद्र सरकार में शामिल होकर अपने कार्यकाल को दिल्ली तथा देश के लिए यादगार बनाया. फिर कांग्रेस की शीला दीक्षित की सरकार बनी, जिन्होंने पंद्रह वर्षों में दिल्ली के स्वरूप को बदलकर दिल्ली का शिल्पकार कहलाने का गौरव प्राप्त किया.
और अब पिछले तीन चुनाव से दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल हैं. अन्ना आंदोलन से उभरे अरविंद केजरीवाल का पहला कार्यकाल अल्पकाल का रहा था, फिर दो पंचवर्षीय राज्य के चुनाव में उन्होंने भाजपा और कांग्रेस को बुरी तरह से पराजित किया और अपने कार्यकाल को अच्छाई के साथ-साथ विवादों के बीच सदा बनाकर रखा. अपने कार्यकाल में उन्होंने दोनों विधानसभा चुनावों में भारी बहुमत से जीत हासिल कर इतिहास बनाया, लेकिन कुछ विवादों के कारण उनके मुख्यमंत्री रहते उन्हें जेल भी जाना पड़ा.
उनके जेल जाने का कारण विवादों में घिरा हुआ है, लेकिन उसके कारण उनकी छवि एक ईमानदार मुख्यमंत्री की न रहकर विवादित नेता की हो गई है. जेल से जमानत पर छूटने के बाद वह चुनाव में व्यस्त हैं, लेकिन उनकी छवि दागदार तो हो ही गई.
केंद्रीय सत्तारूढ़ दल तो पहले से ही आप सरकार और विशेष रूप से अरविंद केजरीवाल पर हावी रही थी, लेकिन दागदार होने के बावजूद केजरीवाल यह कहते नहीं अघाते कि यह भाजपा की साजिश थी जिसमें उनको बदनाम किया गया. पहले तो सत्तारूढ़ दल ही आप और आप संयोजक पर ही आरोप लगाते रहे हैं, लेकिन अब और कुछ विवादों में केजरीवाल को घेरने का प्रयास किया रहा है. पहला तो यह कि उनके बयान पर चुनाव आयोग ने नोटिस जारी कर कहा है कि वे इस बात को प्रमाणित करें कि हरियाणा सरकार द्वारा यमुना में जहर घोला जा रहा है. यदि वह यह प्रमाणित नहीं कर पाते हैं, तो उनपर कानून सम्मत कार्यवाही की जाएगी. वैसे, अरविंद केजरीवाल ने इसका उत्तर देते हुए इसे और स्पष्ट किया है कि चुनाव आयोग उन्हें न डराए.
चुनाव का हाल तो अब यह हो गया है कि पत्रकार की हत्या और दुष्कर्म के आरोप सिद्ध होने पर गुरमीत राम रहीम, जो लंबी सजा पाए हैं, दिल्ली में प्रचार करने के लिए भाजपा की ओर से मैदान में उतार दिए गए हैं. वैसे, गुरमीत राम रहीम जेल में रहें या बाहर, उन्हें कोई रोकटोक नहीं है. सजायाफ्ता होने के बावजूद जेल और और उसके बाहर आना-जाना उनका तो लगा ही रहता है. खैर, यह तो भाजपा का हाल है, लेकिन जनता फिर भी किसी दल की कीर्ति, यानी किए गए अच्छे कार्यों से नहीं अघाती है और मतदान के समय में वह मतदान अपने हिसाब से ही करती है.
लेकिन क्या कोई ऐसा सोच सकता है कि हत्या और दुष्कर्म के दोषी सजायाफ्ता प्रचार करे और जनता उसके कहे अनुसार मतदान करे? यह लोकतंत्र के लिए अभिशाप नहीं तो और क्या हो सकता है. पहले तो महागठबंधन में होने के कारण आम आदमी पार्टी की आलोचना से कांग्रेस बचती रही थी, लेकिन दिल्ली के इस विधानसभा चुनाव ने भाजपा ने अपने प्रयास में सफल होकर महागठबंधन में आखिरी कील ठोक दी है.
बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने स्पष्ट रूप से अपनी पार्टी को आम आदमी पार्टी को समर्थन देने का आदेश दे दिया है, वहीं कांग्रेस ने भी अपनी टीम को मजबूत करने के लिए अच्छा प्रयास करना शुरू कर दिया है. इसलिए अब यह चुनाव त्रिकोणीय हो गया है. अब तक की गणना और विश्लेषकों का यही कहना है कि अब दिल्ली विधानसभा का चुनाव त्रिकोणीय है, इसलिए रोचक हो गया है. लेकिन, यह तो फिलहाल एक कयास ही है. ताश का इक्का तो जनता के हाथ ही है, जिसे वह 5 फरवरी को खोलकर अपने मनपसंद ‘किरदार’ को दिल्ली की सत्ता पर बैठाएगी.
डिस्क्लेमर: लेखक वरिष्ठ पत्रकार और स्वतंत्र स्तंभकार हैं, ये इनके निजी विचार हैं.