Rakesh Kumar Singh
हिंदी कथा साहित्य में विषय-वैविध्य का प्रश्न किसी हद तक अपने गिरेबान में झांकने जैसा है. अपने द्वारा निर्मित आईने में अपना ही चेहरा अधूरा -अपूर्ण दिखता है. कभी गुलशेर खां शानी (काला जल,शालवनों का द्वीप) ने चिंता जताई थी कि हिंदी कहानी से मुसलमान चरित्र गायब होते जा रहे हैं. अर्थात एक विषय वैविध्य गायब होता जा रहा है. शानी की बात आज भी प्रासंगिक है लेकिन उनका क्या जो गायब तो क्या होंगे,जो कभी हिंदी कहानी में उपस्थित ही नहीं किए जा सके? हिंदी कहानी में ईसाई समाज भी कितना है? कुछ वर्ष पहले तक आदिवासी समाज भी प्रायः अनुवादों का ही मुंहताज रहा था. पारसी समाज भी कहां दिखता है? मुझे तो ले-दे कर फिलहाल मात्र दो कहानियां ‘टावर ऑफ साइलेंस'( मनोज रूपड़ा) और उर्दू कहानी ‘डूंगरवाड़ी के गिद्ध ‘(अली इमाम नकवी) ही याद आ रही है.
हिंदी कहानी में कथ्य की विविधता का संकट नया नहीं है. यह कथाकारों द्वारा खुद ओढ़ी हुई समस्या है जो वस्तुत: विभिन्न कथा समयों और कभी विभिन्न कथा-आंदोलनों में स्थापित मुहावरों की अनुकृतियां गढ़ने के अंधानुकरण से उपजा संकट है. इसे कुछ यूं समझा जा सकता है.
आंचलिकता की सीमा
‘नई कहानी’ के ज्वार की कथित तीन बड़ी लहरों (कमलेश्वर -मोहन राकेश -राजेंन्द्र यादव) के आगे निर्मल वर्मा से लेकर शैलेश मटियानी और आगे फणीश्वरनाथ रेणु तक हिंदी कहानी में मखमली भाषा और आंचलिकता के जो मुहावरे हिंदी कहानी में स्थापित हुए,अनेक परवर्ती कथाकार उनसे आगे बढ़ने की बजाय उन्हीं मुहावरों की अनुकृतियां गढ़ने लगे जिसके सबसे बड़े उदाहरण कथाकार शैवाल रहे जो आंचलिकता में इतने गहरे उतरते गए कि अंततः अपने क्षेत्र से बाहर के पाठकों के लिए अपठनीय होने लगे. यह सिलसिला वर्षों तक चला पर हर दौर को कभी न कभी खत्म होना होता है. एक और कथा-आंदोलन…!
साढ़े चार यारों की दास्तां
साठोत्तरी कहानी..! ज्ञानरंजन (बहिर्गमन/घंटा), दूधनाथ सिंह (रक्तपात/रीछ), रवीन्द्र कालिया (नौ साल छोटी पत्नी/काला रजिस्टर), काशीनाथ सिंह (लोग बिस्तरों पर/सुधीर घोषाल) और विजय मोहन सिंह (शेरपुर पंद्रह मील/चाय के प्याले में गेंद)..! चूंकि विजय मोहन सिंह आलोचना में भी सक्रिय थे, इसलिए इन्हें आधे कथाकार की मान्यता दी गई थी. बहरहाल,इस दौर के कथित साढ़े चार यारों ने हंगामों -शगूफों के साथ-साथ अपने समय की हिंदी कहानी का एक नया मुहावरा भी निर्मित किया. इस कथा -समय की एक सीमा यह भी रही कि आदमकद आईने के सामने बैठ कर लिखने वाली इस पीढ़ी का आत्ममुग्ध कथाकार अपनी छवि पर ही रीझता रहा. अपने ही बखान में जुटा रहा. साढ़े चार यारों के सृजन और जीवन ने अपनी पीढ़ी को इतना प्रभावित किया कि वह पूरी पीढ़ी विविधता,नव्यता या नई कथा -भूमियों की खोज को स्थगित कर साढ़े चार यारों द्वारा स्थापित किए जा चुके मुहावरे की अनुकृतियां गढ़ने लगी.
जनवादी कहानी का सच
आगे…’जनवादी कहानी’ के साथ भी यही हादसा पेश आया. कहानी का अंत पहले से तय… उगता सूरज, रक्तिम आंखें, हाथ में पत्थर, वर्गशत्रु के घर की दिशा या घर की दीवार पर पेशाब करना आदि -आदि जैसी कथा निष्पतियों के मुहावरों में बंधा कथाकार स्वयं को धोखे देता रहा कि हिंदी कहानी आगे बढ़ रही है जबकि अपने मानक स्थापित कर लेने और उच्चतम ऊंचाई तक पहुंचने के बाद जड़ता और फिर पतन का अटल विज्ञान अपना काम कर रहा था. फिर तो इस ढलान पर बैठ कर लिखी जा रही उस दौर की अधिकांश कहानियां फार्मूलाबद्धता और वैविध्यहीनता का शिकार होती गईं.
दूसरे पहलू की अनदेखी
गौरतलब है कि प्रगतिशील -जनवादी कहानी के चमकदार दिनों में सांप्रदायिकता पर अनेक महत्वपूर्ण कहानियां सामने आईं. ‘वांग चू’ (भीष्म साहनी), ‘टुंड्रा प्रदेश ‘ (पंकज बिष्ट), ‘भैया एक्सप्रेस’ (अरूण प्रकाश), ‘मर गया दीपनाथ’, (चंद्रकिशोर जायसवाल) ‘मुर्दा स्थगित, (महेश कटारे) ‘ग्रास रूट’ (अवधेश प्रीत)’ और लातूर गुम हो गया ‘(अनंत कुमार सिंह) ‘कामरेड का कोट ‘(सृंजय)… कहानियां और भी हैं परंतु स्थानाभाव !
इस दौर में ढेर -ढेर कहानियां फैशन में भी लिखी गईं परंतु रेखांकित करने योग्य बात यह कि सांप्रदायिकता के राक्षस पर जब भी निशाना साधा गया, मात्र उसकी दाईं आंख पर वार किया गया. इस लिपरोटिक क्वाईन (कुष्ठ रोगियों हेतु निर्मित विशिष्ट प्रकार के सिक्के) के दूसरे पहलू की हिंदी कहानी में प्रायः अनदेखी की गई. हिंदू सांप्रदायिकता पर अनगिनत कहानियां पर हिंदी कहानी मुस्लिम साम्प्रदायिकता पर बयान देने से कतराती रही मानो इस सिक्के के दूसरे रूख को छूते ही जल जाने का खतरा हो. प्रतिरोध की कहानियां लिखते जाने की धुन में मूल्यों की कहानियां रचने का बोध कहीं खो सा गया.
खतरे उठाने से कतराती हिंदी कहानियां
आज पृथ्वी के क्रोड़ लेकर अनंत अंतरिक्ष तक कथा की परिधि में समाते जा रहे हैं फिर विषय वैविध्य का सूखा कैसे हो सकता है ? हां,नए क्षेत्रों की खोज में अकेले पड़ने या विफल होने के खतरे तो होते ही हैं. अपवादों को छोड़ दें तो हिंदी कहानी खतरे उठाने से कतराती रही है क्योंकि हिंदी कहानी ने आलोचना को रचना का निकष मानने की बजाय रचना का नियामक स्वीकार कर लिया और विविधता की बजाय तय फार्मूलों को ओढ़ते -बिछाते रहना अधिक सुरक्षित समझा गया.
आलोचना की सत्ता से आतंकित कहानी
ग्राम्य -कथा के कारीगरों ने भी नागरीय आलोचना की संतुष्टि का अधिक ध्यान रखा. आंचलिकता को अपठनीयता के साथ नत्थी कर कहानी की असंप्रेषनीयता का जो जिन्न खड़ा किया गया उससे आतंकित ग्राम्य -कथाकार परछाईं को प्रेत मान कर अपने अंचल से पीछा छुड़ा कर राष्ट्रीय गांव को खूब-खूब लिखता रहा. नतीजा…? आंचलिक कथा रस, किस्सागोई का लोकधर्मी सलीका,अनेक दुर्लभ परिंदे, वनस्पतियां, मिथकीय आख्यान आदि -आदि की वैविध्य भरी दुनिया कहानी में दर्ज होने से वंचित हो गईं. कथा रसाने की बजाय कथ्य गढ़े जाने लगे. आलोचना की सत्ता से आतंकित कहानी अपने पाठक से अधिक आलोचक के लिए प्रस्तुत होने लगी. हिंदी कहानी से जनपदीय विविधता, रीति- रिवाज, लोकजीवन, लोकवार्ता और मेले -ठेले भी लगातार गायब होते गए. हिंदी कहानी इसी जीतोड़ कोशिश में पिली रही कि नागरीय आलोचना उसे आंचलिकता का शाप देकर, हिंदी कहानी की मुख्य धारा से बहिष्कृत कर साहित्य के स्वर्ग से नीचे न धकेल दे.
ये विषय अछूते से
अभी भी अनेक ऐसे अछूते -अनदेखे इलाके हैं जहां हिंदी कहानी के लिए अनंत संभावनाएं हैं पर नए प्रदेशों में उतरने के प्रयास नगण्य हैं. ‘वह सपने बेचता था ‘(राकेश बिहारी) या ‘तलछट की बेटियां ‘(विनीता परमार) जैसे चंद उदाहरण हैं. बावजूद इसके हिंदी में जहाजियों की कहानियां दुर्लभ हैं. यात्रा -कथाएं अनुपस्थित हैं. आतंकवादियों के मनोविज्ञान,रेल के माल डिब्बों के ताला तोड़ने वाले,नारीदेह के तस्करों, साहित्य के छद्म, प्रकाशकों के शोषण या साहित्यकारों के दो-चेहरेपन भी कितनी कहानियां लिखी गई हैं?
जासूसी साहित्य के लिए कहां जाए पाठक!
जब कथाकार संपादक विशेष की पसंद -नापसंद के अनुसार लिखने लगें या निर्मल वर्मा की मखमली भाषा में उदयप्रकाश के जादुई यथार्थवाद की अनुकृतियां गढ़ते हुए अपने सहयात्री कथाकारों को एकदम से चौंका देने के चमत्कार रचते रहें तो विषय वैविध्य का अकाल तो दिखना ही है…जबकि यह वस्तुत: है नहीं.
छोटी कहानियों के लिए विख्यात ‘एडगर एलन पो’ ने रहस्य,रोमांच और अपराध पर भी खूब लिखा है. हेमिंग्वे ने तो सांडों की लड़ाई पर भी उत्कृष्ट कहानियां लिखी हैं. स्वर्गीय श्रीलाल शुक्ल जी को विरल अपवाद मानें तो हिंदी के जासूसी साहित्य के लिए पाठक किसके पास जाए ?
अन्य भारतीय भाषाओं में देखें तो बांग्ला में शरदेंदु वांद्योपाध्याय के व्योमकेश बख्शी या सत्यजित राय के ‘फेलू दा के कारनामे ‘ जैसा रहस्य -रोमांच-कौतूहल तथा अपराध -अण्वेषण से जुड़ा साहित्य रचने की ललक तो हिंदी कहानी में कभी जगी ही नहीं. जासूसी आज भी हिन्दी कहानी में अछूत विषय है. साहित्य में रहस्य -रोमांच को छूत का रोग मानने वाले कथाकारों के लिए ‘प्रेम की भूत कथा'(विभूति नारायण राय) एक नजीर हो सकती है.
जरूरी है एक नया इंद्रधनुष रचना
हिंदी कहानी के लिए यह आत्मान्वेषण का समय है कि कहीं कहानी के पूर्व में स्थापित तमाम फार्मूले घिस तो नहीं चुके ? पूर्व निर्धारित विषयों पर लिखते -लिखते हिंदी कहानी इतनी पूर्वानुमेय(प्रिडेक्टेबल)तो नहीं हो गई कि दो क्षेपक पढ़ते- पढ़ते पाठक में किसी परिचित लेखक की कलम से निसृत होने वाले उपसंहार का अनुमान लगा लेने की योग्यता विकसित हो चुकी है और पाठक ऐसी कहानियों से उब चुका है ?
पाठक की उब को तोड़ने और हिंदी कहानी की पूर्वानुमेयता का अतिक्रमण करने हेतु कथा -वैविध्य एक अनिवार्यता है. नए कथ्य,नए चरित्र,नया प्रस्तुतिकरण… हिंदी कहानी के क्षितिज पर एक नया इंद्रधनुष रचना अनिवार्यता है. छीजती पाठकीयता के बंजर को सींचने वाली कथा -धारा का मार्ग कथा -वैविध्य के नखलिस्तान से होकर ही गुजरता है.
पठनीयता के कीर्तिमान बनाने वाली ‘हैरी पॉटर’,’लार्ड ऑफ द रिंग्स’ या ‘नॉर्नियां की कहानियां’ जैसी शृंखलाओं की लोकप्रियता पर उंगलियां उठाने की बजाय यदि हिन्दी कहानी देवकीनंदन खत्री-गोपालराम गहमरी आदि की विरासत को सहेज कर विस्तारित कर सके तो पाठक अभी भी गया वक्त नहीं हुआ जिसे वापस लौटाया ही न जा सके. लोकप्रिय साहित्य और गंभीर साहित्य के बीच के फासले को न्यूनतम करना वैविध्य के संकट से मुठभेड़ और पाठकीयता के संकट से निपटने की भांति होगा.