Dr. Pramod Pathak
यह कैसा विरोधाभास है कि एक तरफ हम आजादी की 75 वीं वर्षगांठ को अमृत महोत्सव के रूप में मना रहे हैं तो दूसरी तरफ लोकतंत्र के मंदिर के रूप में स्थापित संसद में बैठने वाले एक बड़े वर्ग को लग रहा है कि लोकतंत्र की अस्मिता खतरे में है. दार्शनिक विचारक अरस्तु ने कहा था कि गणराज्यों की कमजोरी पहले लोकतंत्र के रूप में परिलक्षित होती है और फिर वे धीरे-धीरे तानाशाही में बदल जाती हैं. कोई 2000 वर्षों से भी ज्यादा पहले कही हुई बात पर आज बहस चल रही है, यह सोचने का विषय है. यदि हम दुनिया भर की शासन व्यवस्था का अवलोकन करें तो पाएंगे कि कमोबेश तानाशाही प्रवृत्तियां बढ़ी हैं. तो क्या इतिहास का पहिया पीछे की ओर घूम रहा है ? क्या हम फिर से हिटलर और मुसोलिनी के दौर की ओर लौट रहे हैं ?
बहस का तार्किक निष्कर्ष निकलना जरूरी : इन प्रश्नों के उत्तर हमें ढूंढने होंगे. न केवल वैश्विक बल्कि भारतीय संदर्भ में भी. अमेरिका जैसे सुदृढ लोकतंत्र में भी राष्ट्रपति ट्रंप ने यह कोशिश की थी. भारत के लिए तो यह प्रश्न और भी जरूरी है क्योंकि हम लिच्छवी साम्राज्य के रूप में दुनिया के पहले लोकतंत्र के वाहक होने का दावा करते हैं. बल्कि यदि हम थोड़ा और पीछे जाएं तो आदर्श राज्य की जो प्रतिमूर्ति हम लोकतांत्रिक व्यवस्था में ढूंढने की कोशिश करते हैं वह त्रेता युग के राम राज्य के रूप में माना जाता है. आज जो बहस शुरू हुई है उसका तार्किक निष्कर्ष निकलना चाहिए.
लोकतंत्र के दर्शन को समझना होगा : इससे पहले हमें लोकतंत्र के दर्शन को समझना होगा. अखिल लोकतंत्र है कैसी व्यवस्था. एक लोकप्रिय व्याख्या के रूप में हम अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन के शब्दों को उद्धृत कर सकते हैं कि लोकतंत्र जनता की, जनता के द्वारा जनता के लिए चुनी गई सरकार है. लेकिन प्रश्न है कि सरकार बन जाने के बाद जनता का स्थान कहां होता है. दरअसल सबसे बड़ा भ्रम है कि लोकतंत्र का मतलब है कि जनता अपनी बात शासन तक पहुंचा सकती है. किंतु यह तो आधा लोकतंत्र हुआ. यानी रूस और चीन जैसे देशों से बेहतर. लेकिन पूर्ण लोकतंत्र तो वह है जहां जनता की बात सुनी भी जाती है. राम राज्य का उदाहरण यहां सटीक बैठता है.
लोकतंत्र में शासक नहीं, शासन प्रणाली होती है स्थायी : लोकतंत्र मूल्यों पर आधारित व्यवस्था है. कुछ बुनियादी उसूल होते हैं जिन पर लोकतंत्र की सफलता निर्भर रहती है. हम तो लोकतंत्र का ही मूल्य लगते हुए देख रहे हैं. लोकतंत्र ऐसी व्यवस्था है जहां शासक स्थायी नहीं होता, शासन प्रणाली स्थायी होती है. यही एक बात लोकतंत्र की कसौटी है. जब शासक स्थायी होने की मंशा दर्शाए तो लोकतंत्र तो तानाशाही का स्वरूप ले ही लेगा. आखिर हिटलर और मुसोलिनी भी तो लोकतांत्रिक ढंग से शासन में आए थे. लेकिन उसके बाद क्या हुआ ?
लोकतंत्र में संस्थाओं की स्वायत्तता महत्वपूर्ण : राहुल गांधी का यह कथन बिल्कुल सही है कि लोकतंत्र में संस्थाओं की स्वायत्तता महत्वपूर्ण है. इसके जवाब में भले ही यह दलील दी जाए कि आपातकाल में कांग्रेस ने संस्थाओं को कमजोर किया था. तो क्या सब को ऐसा ही करना चाहिए. भले ही आपातकाल कांग्रेस ने लगाया. लेकिन यह बात भी माननी पड़ेगी कि आपातकाल को हटाकर चुनाव कराने का फैसला भी कांग्रेस ने ही लिया था. यही नहीं, वर्ष 1989 में भी लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में कांग्रेस ही उभर कर आई थी. इसके बावजूद राजीव गांधी ने कहा था कि हम सरकार बनाने का दावा नहीं पेश करेंगे, क्योंकि जनादेश की भावना हमारे पक्ष में नहीं है. उन्होंने विपक्ष में बैठने का फैसला किया था. आज क्या हो रहा है ? जनादेश की धज्जियां उड़ा कर येन केन प्रकारेण सरकार बनाने के लिए हर हथकंडा अपनाया जा रहा है. चुनी हुई सरकार गिराकर भी. ऐसा कौन कर रहा है इस पर भी तो बहस हो. वैसे यह भी तो तर्कसंगत नहीं है कि एक की भूल ने दूसरे को यह हक दे दिया कि वह भी वैसा ही करें.
हकदार को मार कर राजगद्दी हासिल करना राजतंत्र के हथकंडे : लोकतंत्र का आधार होता है राजधर्म. यानी न्यायोचित और धर्म आधारित शासन व्यवस्था. अनाधिकार चेष्टा कर शासन पर कब्जा तो राज धर्म नहीं है. इतिहास में ऐसे कई उदाहरण है जहां सही हकदार को मारकर राजगद्दी हासिल की गई. यह सब राजतंत्र के हथकंडे थे. राजधर्म अलग चीज है. इसे समझना है तो रामायण से सीखना होगा. राम और भरत दोनों ही राजगद्दी पा सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया, क्योंकि उनके अनुसार यह राज धर्म के विपरीत था. खड़ाऊं का शासन इसी बात का प्रतीक है कि लोकतंत्र में शासक नहीं शासन महत्वपूर्ण है.
शासक मजबूत होने लगे तो बढ़ जाती है निरंकुशता : प्रश्न है कि भारत जैसी समृद्ध पृष्ठभूमि वाले देश में आज लोकतंत्र क्यों कटघरे में खड़ा है ? इसका सीधा सा जवाब है कि लोग स्थायी सत्ता चाह रहे हैं. सत्तालोलुपता और अहं के मद में राज धर्म की मर्यादा लुप्त हो गई है. मनुस्मृति में राज धर्म की व्यापक विवेचना की गई है. शासन मजबूत होना चाहिए शासक नहीं. जब शासक मजबूत होने लगे तो निरंकुशता बढ़ जाती है. यह लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है और तानाशाही की ओर बढ़ने का संकेत. ऐसा क्यों होता है, इसका उत्तर रामचरितमानस के सुंदरकांड के इस दोहे में है-
सचिव वैद्य गुरु तीन जो, प्रिया बोलहि भय आस.
राज धर्म तन तीनि कर, होई बेगहि नास.
यानी मंत्री, वैद्य और गुरु यदि यह तीन राजा को खुश रखने के लिए अथवा उसके भय से या निजी लाभ की आशा से राज्य हित की बात ना कर कर्णप्रिय बात बोलें तो राज्य, राजा और धर्म सब नष्ट होते हैं. लोकतंत्र मान्यताओं और मर्यादाओं पर आधारित व्यवस्था है और जब यह टूटती है तो लोकतंत्र कमजोर होता है.
डिस्क्लेमर : लेखक स्तंभकार और आईटीआई -आइएसएम के रिटायर्ड प्रोफेसर हैं, ये उनके निजी विचार हैं.