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LagatarDesk : भारत रत्न एवं संविधान निर्माता बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर की 130वीं जयंती आज पूरे देश में मनायी जा रही है. डॉ अंबेडकर का पुश्तैनी गांव अंबावाडे है. यह महाराष्ट्र के रत्नागिरी जनपद के छोटे से कस्बे मांडनगाड से पांच मील दूर स्थित दापोली के निकट पडता है. अंबेडकर का जन्म मध्यप्रदेश के महु (मिलिट्री हेडक्वाटर) में 14 अप्रैल 1891 में हुआ था. अंबेडकर सूबेदार रामजी सकपाल और भीमावाई की 14वीं संतान थे. भीमराव के पूर्वज लंबे समय से ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में कार्यरत रहे थे. उनके पिता रामजी सकपाल भारतीय सेना की महू छावनी में सेवारत थे. उन्होंने मराठी और अंग्रेजी में औपचारिक शिक्षा प्राप्त की थी.
अंबेडकर ने उच्च शिक्षा विदेश में की
उन्होंने 1915 में अमेरिका की प्रतिष्ठित कोलंबिया यूनिवर्सिटी से इकॉनमिक्स में एमए की डिग्री हासिल की. इसी विश्वविद्यालय से 1917 में उन्होंने अर्थशास्त्र में पीएचडी भी की. उन्होंने वकालत और अर्थशास्त्र की पढाई लंदन से की थी.
अंबेडकर ने सैन्य सचिव के पद भी काम किया
अंबेडकर अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद भारत वापस लौटे थे. भारत वापस लौटने के बाद अंबेडकर ने सैन्य सचिव के पद पर काम किया. आजादी के बाद डॉ अंबेडकर की जयंती बहुत ही कम मनायी जाती थी. बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशी राम के उदय के बाद डॉ अंबेडकर की जंयती मनायी जाने लगी.
व्यक्ति को देवता का दर्जा देना सही नहीं : भीमराव
डॉ अंबेडकर अपना जन्म दिन मनाना पसंद नहीं करते थे. वे कहते थे कि यह व्यक्ति को देवत्व बनाने जैसा है. 1933 में मुंबई में एक भाषण के दौरान उन्होंने कहा कि आप अपनी तरह के एक साधारण व्यक्ति को देवत्व प्रदान कर रहे हैं. यदि आपने व्यक्ति पूजा के इन विचारों को अभी शुरू में ही समाप्त नहीं किया तो ये आपको तबाह कर देंगे. किसी व्यक्ति को देवता का दर्जा देकर आप अपनी सुरक्षा और मुक्ति के लिए एक अकेले व्यक्ति में आस्था जगाते हैं. इसका परिणाम यह होता है कि आपको निर्भरता की आदत हो जाती है. इससे आप अपने कर्तवय के प्रति उदासीन हो जाते हैं. अगर आप इन विचारों के शिकार हो जाते हैं, तो राष्ट्र की जीवन धारा में आपकी नियति काठठ के लठठों से बेहतर नहीं रह जायेगी. आपका संघर्ष व्यर्थ हो जायेगा.
कृतज्ञता की भी एक सीमा होती है : भीमराव
1950 में जब भारत के संविधान के प्रारूप को अपनाया जा रहा था तो उन्होंने राष्ट्र के लोगों को अगाह किया था कि वे अपनी स्वतंत्रता को किसी महान पुरूष के चरणों में ना रखें. और न ही उसे ऐसी शक्तियां सौपें जिससे वह उनकी संस्थाओं को मटियामेट करने पर उतारू हो जाये. उन्होंने कहा कि उन महान पुरूषों के प्रति कृतज्ञ होने में कोई बुराई नहीं है. जिन्होंने जीवन भर देश की सेवा की है. किन्तु कृतज्ञता की भी सीमा होती है.
कोई पुरूष अपने सम्मान की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकता, कोई महिला अपनी आबरू की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकती है और कोई राष्ट्र अपनी स्वंतत्रता की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकता. यह चेतावनी किसी और देश के मुकाबले भारत के संदर्भ में अधिक आवश्यक है. क्योंकि भारत की राजनीति में भक्ति की जो भूमिका है, वह दुनिया के अन्य किसी देश के मुकाबले बहुत बड़ी है. भक्ति मुक्ति का मार्ग हो सकती है. किंतु राजनीति में भक्ति अथवा व्यक्ति पूजा निश्चय ही पतन और अंततः तानाशाही की ओर ले जाती है.
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