फैसल अनुराग/ प्रवीण कुमार
अस्मिता,सांस्कृतिक विशिष्टता की रक्षा ओर स्वतंत्रता का परचम मुंडाओं की पहचान है. उलगुलान एक ऐसे इतिहास ओर संघर्ष की प्रेरणा है जिसने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को भी नया तेवर दिया. इतिहासकारों ने भले ही इस पर कम लिखा हो लेकिन अब यह अवधारणा मान्य है कि झारखंड के आदिवासियों ने अंग्रेजी साम्राज्य को चुनौती दी थी. आदिवासियों की लडाई केवल क्षेत्रीय विक्षोभ का नतीजा नहीं था. बल्कि उसका एक राष्ट्रीय संदर्भ भी है.
121 साल पहले डुबांरीबुरू पर बहा आदिवासियों का खून भारत का पहला जालियानवाला बाग था. कितने मुंडा मरे इसके ठीक से विवरण तो उपलब्ध नहीं है. अंग्रेजों और लोगों के दावे अलग अलग है. पूरा सइलकब ही खून से लाल हो गया था. हालांकि अंग्रेजी शासन ने दर्जन भर लोगों के मरने के तथ्य को स्वीकार किया. वह भी कलकत्ता के दो अखबारों के दबाव के बाद. उलगुलान के एलान के बाद खूंटी थाने को मुंडाओं ने दिसंबर 1899 में जला दिया था. अंग्रेज कप्तान को बिरसा मुंडा की तलाश थी. पुलिस कप्तान बंदगांव में जमे हुए थे. सइलरकब पर मुंडाओं की बढ़ती भीड की सूचना उन्हें 7 जनवरी 1900 को मिल गयी थी. अगले दिन सूचना मिली की बिरसा मुंडा भी अपने साथियों के साथ वहां पर है. उसी दौर का एक मुंडा लोगगीत है जिसमें कहा गया है कि
डोम्बारी बुरू चेतन रे ओकोय दुमंग रूतना को सुसुन तना
डोम्बारी बुरू लतर रे कोकोय बिंगुल सड़ीतना को संगिलकदा
डोम्बरी बुरू चतेतन रे बिरसा मुंडा दुमंग रूतना को सुसुन तना
डोम्बरी बुरू लतर रे सयोब बिंगुल सड़ीतना को संगिलाकदा
डोम्बारी पहाड़ पर कौन मंदर बजा रहा है
यानी लोग नाच रहे है, डोम्बारी पहाड़ के नीचे कौन बिगुल फूंक रहा है, डोम्बारी पहाड़ पर बिरसा मुंडा मांदर बजा रहे है और लोग नाच रहे हैं, डोम्बारी पहाड़ के नीचे अंग्रेज कप्तान बिगुल फूंक रहा है. लोग पहाड़ की चोटी की ओर ताक रहे हैं,
लेकिन इस लोकगीत की ऐतिहासिकता को लेकर इतिहासकारों के बीच भ्रम है. इतिहासकारों का एक तबका मानता है कि बिरसा मुंडा डुबंरीबुरू पर नहीं थे जब कि एक तबके का मान्यता है कि मुंडा नेताओं ने बिरसा मुंडा पर खतरे को भांपते हुए उन्हें डुबंरीबुरू से पहले ही जाने के लिए कहा था. सच्चाई जो भी हो लेकिन इस तथ्य को तो नकारा नहीं जा सकता है कि अंग्रेजो ने मुंडाओं का खून बहाया था और 121 सालों से सइलरकब की धरती पर डुबारी आदिवासी आंदोलनों की प्रेरणा का केंद्र रहा है.
बिरसा उलगुलान ने तिलका मांझी के प्रतिरोध की परंपरा को एक राजनैतिक स्वर दिया. संताल हुल के संदर्भ में कार्ल मार्क्स की टिप्प्णी बेहद महत्वपूर्ण है जिसमें इसे भारत का पहला किसान आंदोलन कहा गया है. बिरसा के आंदोलन की बुनियाद भी कृषि और भूमि का ही सवाल है. बिरसा मुंडा ने होश संभालने के बाद से ही देखा था कि अकाल की भयावहता किस तरह आदिवासियों को लील रही है. इसके साथ ही खूंटी क्षेत्र में जमींदारों का जुल्म भी चरम पर था. साम्राज्य ओर सामंती उत्पीड़ा के दोहरे शिकार आदिवासियों ने बिरसा मुंडा और उनके साथियों ने उलगुलान की विचारधारा और फिलासफी दी. हालांकि इसे समझने में देश दुनिया के लोगों को एक सदी लग गयी.
बिरसा उलगुलान कोई सामान्य प्रतिरोध नहीं था. सामाजिक आर्थिक उत्पीडन और शोषण के खिलाफ इंसाफ और आजादी का बुलंद आवाज था. जिस ने आदिवासी राजनैतिक विरासत के आधुनिक दौर की बुनियाद रखी. यही कारण है कि बिरसा मुंडा का संदर्भ संस्कृति,समाज और स्वशासन का स्वच्न गढता है. आज दुनिया के हर हिस्से के आदिवासी बिरसा उलगुलान की इस विरासत से स्वयं को अभिभूत करते हैं. नाइजिरिया हो या कीनिया या फिर दक्षिण अफ्रीका. इन सभी देशों के आदिवासियों के कारपारेट साम्राज्य के खिलाफ संघर्ष में बिरसा मुंडा को याद किया जाता है. झारखंड के एक आदिवासी के लिए यह गर्व का विषय है कि उनका क्रांतिकारी नायक सरहदों से परे संघर्षो का प्रतीक बन गया है.
हर साल डुबारी पर लोग जुटते हैं. नाचते गाते हैं और जंगल जमीन बचाने का संकल्प लेते हैं. डुबारी एक ऐसा प्रीत बन गया है जो आज भी आदिवासियों के लिए संघर्ष की प्रेरणा देता है. आदिवासी लोकगीतों में सबसे ज्यादा उल्लेख बिरसा मुंडा की ही होती है. बिरसा मुंडा ने संताल हूल को नया गौरव दिया. दोनों के बुनियादी आधार एक जैसे ही थे. जुल्म और शोषण, जीन की लूट और आदिवासी स्वशासन पर प्रहार के खिलाफ डुबारी की चेतना लोगों को लडने की प्रेरणा देती है. यही कारण है कि खूंटी के आदिवासी बिरसा मुंडा और डुबारी को केवल इसलिए याद नहीं करते कि डुबारीबुरू अस्मिता और उलगुलान का प्रतीक है बल्कि एक इतिहासबोध के साथ जीने का स्वाभिमान भी है.