विधानसभा चुनाव महागठबंधन हेमंत के नेतृत्व में लड़ा जाना था. इससे साफ जाहिर था कि स्थिति बनी तो बिना किसी इफ-बट के हेमंत सोरेन ही मुख्यमंत्री बनेंगे. यह बात शायद बाबूलाल को कचोट रही थी. दूसरे यह भी समझा जाता था कि भाजपा उनकी ओर टकटकी लगाये बैठी थी. चार दलों के महागठबंधन में सीट शेयरिंग भी एक बड़ी समस्या थी. इस स्थिति में जैसे भाजपा से आजसू को कन्नी काटनी पड़ी, वैसे ही इधर जेवीएम ने महागठबंधन को बाय-बाय कर दिया. उन दिनों यानी सितंबर-अक्टूबर यहां तक कि नवंबर के भी प्रथमार्द्ध में भाजपा, कांग्रेस और झामुमो से बेटिकट हुए नेताओं के लिए आजसू और जेवीएम तीर्थ बन गये. जो भी आया, टिकट ले चुनाव मैदान में कूद पड़ा.
Shyam Kishore Choubey
रांची में बात जमी तो झामुमो, जेवीएम, कांग्रेस और राजद के प्रमुख नेता दिल्ली गये. राहुल तो समझौते के लिए रांची आ न सकते थे. दिल्ली में चारों दलों के लिखित समझौते और सीट शेयरिंग पर संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस भी होनी थी. जैसा कि बताया जाता है, दिल्ली में बाबूलाल का मन बदल गया. उन्होंने संयुक्त समझौता पत्र पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया. इसलिए वहां संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस नहीं की जा सकी. पूरी महफिल रांची लौट आयी. यहां आने पर जैसा कि पता चला, प्रदीप यादव ने एक बार और प्रयास किया तो बाबूलाल राजी हो गये. इस प्रकार तीनों दलों के नेताओं के हस्ताक्षर युक्त संयुक्त समझौता पत्र जारी करते हुए प्रेस कांफ्रेंस की गयी. लोकसभा चुनाव 2019 की कमान राहुल गांधी के हाथों में रही. सीट शेयरिंग पर काफी अरसे तक जिच बनी रही. जेवीएम के हिस्से दो सीटें कोडरमा और गोड्डा गयी थीं, जबकि झामुमो पांच सीटों दुमका, राजमहल, गिरिडीह, खूंटी तथा जमशेदपुर पर दावा कर रहा था लेकिन कांग्रेस उसको चार ही सीटों पर मना रही थी. कांग्रेस उसको जमशेदपुर और खूंटी में से एक सीट लेने का दबाव बना रही थी. अंततः अपना वोट बैंक देखते हुए झामुमो ने खूंटी सीट पर दावा छोड़ जमशेदपुर चुना, जहां से चंपाई सोरेन को प्रत्याशी बनाया गया. झामुमो का पकड़ संताल परगना और कोल्हान में अधिक है. इसी बात को ध्यान में रखते हुए उसने जमशेदपुर पर स्वयं को केंद्रित किया. वहां मांझी, महतो और मुस्लिम वोट पर उसकी नजर थी, जिसमें से खासकर मांझी और महतो वोट पर अर्जुन मुंडा, डॉ अजय और अब विद्युत वरण महतो के सांसद रहते सेंध लग रही है. चंपाई को टिकट देने का उद्देश्य ही था कि उनके नाम पर ये वोट उसके पाले में वापस लाना है, जो और नहीं तो विधानसभा चुनाव में एकजुटता प्रदर्शित करें.
कोल्हान प्रमंडल के पश्चिम सिंहभूम संसदीय इलाके की छह विधानसभा सीटों में से पांच पर उस समय झामुमो के विधायकों का कब्जा था, जबकि एक जगन्नाथपुर पर जय भारत समानता पार्टी की गीता कोड़ा का. बाकी आठ सीटों में से एक चतरा राजद के हवाले कर सात सीटों पर कांग्रेस ने अपने प्रत्याशी दिये. उसी समय गीता कोड़ा को कांग्रेस जाॅइन कराकर सिंहभूम से उम्मीदवार बनाया गया. इन विधायकों को गीता के पक्ष में काम करने को बड़ी मुश्किल से मनाया जा सका. एकजुटता और कोशिशों का प्रतिफल बस इतना ही मिला कि राजमहल से झामुमो के विजय हांसदा और सिंहभूम से कांग्रेस की गीता कोड़ा की जीत हो सकी. लोहरदगा और खूंटी में कड़े मुकाबले में मामूली अंतर से कांग्रेस हार गई. यहां तक कि दुमका से झामुमो के शिबू सोरेन हार गए. एनडीए के हिस्से में 12 सीटें आईं, जिनमें से एक गिरिडीह उसके गठबंधन पार्टनर आजसू को मिली. यह ठीक है कि एनडीए इस चुनाव में 12 सीटों पर कब्जा जमाने में कामयाब रहा, लेकिन इसे मोदी लहर नहीं कहा जा सकता क्योंकि पांच साल पहले 2014 में हुए आम चुनाव में अकेले भाजपा को 12 सीटें मिली थीं. भाजपा को 2009 में आठ, जबकि 2004 में महज एक कोडरमा सीट मिली थी. अलबत्ता 13वीं लोकसभा के लिए 1999 में हुए चुनाव में भाजपा ने 12 सीटें जीती थी. उस समय झामुमो का खाता तक न खुल सका था, जबकि कांग्रेस के हाथ लगी थीं दो सीटें- कोडरमा और राजमहल. कोडरमा से तिलकधारी सिंह विजयी हुए थे, जबकि राजमहल से वर्तमान झामुमो सांसद विजय हांसदा के पिता थाॅमस हांसदा विजयी रहे थे. थॉमस बाद में झारखंड प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष भी रहे. उसी चुनाव में वनांचल प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी ने दुमका में शिबू सोरेन को मात दी थी और केंद्र की वाजपेयी सरकार में मंत्री बने थे. 14-15 नवंबर 2000 की दरम्यानी रात करीब डेढ़ बजे उनके सिर पर झारखंड के पहले मुख्यमंत्री का ताज रखा गया था. इस संवैधानिक बाध्यतावश उनको दुमका संसदीय सीट छोड़नी पड़ी तो उपचुनाव में झामुमो के शिबू सोरेन जीत गए. बगल की गोड्डा सीट से चुने गये भाजपा सांसद जगदंबी प्रसाद यादव का असामयिक निधन होने पर उपचुनाव की बाध्यता आई तो भाजपा के प्रदीप यादव ने जीत हासिल की थी.
ऐसा माना जाता है कि लोकसभा चुनाव में देवघर की घटना के कारण बाबूलाल का प्रदीप से यत्किंचित मोहभंग हुआ. पूर्व में जितने भी बड़े नेता जेवीएम से अलग हुए थे, प्रायः हर किसी ने प्रदीप पर तानाशाही का आरोप लगाया था. इन्हीं परिस्थितियों में विधानसभा चुनाव आते-आते महागठबंधन की चौकड़ी में से जेवीएम अलग हो गया. प्रदेश में कार्यरत डबल इंजन की भाजपा सरकार के विरूद्ध जो माहौल बन गया था, उसको बाकी सभी देख रहे थे, केवल भाजपा ही नहीं देख रही थी और वे नेता भी नहीं देख रहे थे, जिनको भाजपा में शामिल होने की जल्दबाजी थी.
खैर, लोकसभा चुनाव 2019 में महागठबंधन ने दम के साथ-साथ एकजुटता भी दिखायी, लेकिन जिस पर दारोमदार था, वे राहुल गांधी या कांग्रेस के अन्य बड़े नेताओं ने इस छोटे से स्टेट को उतना समय नहीं दिया. उनकी तुलना में प्रधानमंत्री रहते नरेंद्र मोदी, उनके प्रमुख सिपहसालार भाजपा प्रमुख अमित शाह और अन्य नेताओं ने खूब चुनावी दौड़धूप की. इनके पास न तो संसाधनों की कमी थी, न ही महत्वाकांक्षा की और न संगठन की. इस लोकसभा चुनाव ने जैसी करनी, वैसी भरनी को साबित किया. खास बात गोड्डा इलाके में ही हुई. वहां से महागठबंधन, जिसे मोदी मंडली महाठगबंधन कहा करती थी, के जेवीएम प्रत्याशी प्रदीप यादव पूरी ताकत से भाजपा के निशिकांत दुबे को मात देने में लगे हुए थे. लेकिन चुनाव अभियान के बीच ही देवघर में एक ऐसी घटना हो गई, जिससे दुबे का हौसला बुलंद हो गया. प्रदीप यादव पर उनके ही दल की एक महिला पदाधिकारी ने होटल में अपने साथ बदसलूकी की जाने का न केवल आरोप लगाया, अपितु मामला आगे बढ़कर पुलिस थाने तक जा पहुंचा. इधर से इसे भाजपा की चाल कहा गया लेकिन प्रदीप का शेष समय सफाई देते ही गुजर गया. वे हारे सो हारे, जेल भी जाना पड़ा. गोड्डा के ही मोतिया गांव में अडाणी समूह के पावर प्लांट के लिए जमीन अधिग्रहण का प्रचंड विरोध करने के कारण भी वे जेल भेजे गये थे. उस समय प्रदेश में भाजपा सरकार थी. ऐसी स्थिति में एक समय भाजपा के बड़े नेताओं में शुमार रहे विधानसभा चुनाव में प्रदीप का झुकाव झामुमो और कांग्रेस की ओर हुआ लेकिन अंततः वे जेवीएम के ही टिकट पर अपनी परंपरागत सीट पोड़ैयाहाट से चुनाव मैदान में उतरे और विजयी भी रहे.
ऐसा माना जाता है कि लोकसभा चुनाव में देवघर की घटना के कारण बाबूलाल का प्रदीप से यत्किंचित मोहभंग हुआ. पूर्व में जितने भी बड़े नेता जेवीएम से अलग हुए थे, प्रायः हर किसी ने प्रदीप पर तानाशाही का आरोप लगाया था. इन्हीं परिस्थितियों में विधानसभा चुनाव आते-आते महागठबंधन की चौकड़ी में से जेवीएम अलग हो गया. प्रदेश में कार्यरत डबल इंजन की भाजपा सरकार के विरुद्ध जो माहौल बन गया था, उसको बाकी सभी देख रहे थे, केवल भाजपा ही नहीं देख रही थी और वे नेता भी नहीं देख रहे थे, जिनको भाजपा में शामिल होने की जल्दबाजी थी. 4-5 महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा को मिली अच्छी सफलता के आधार पर वे तत्व यह आकलन कर रहे थे. बेशक भाजपा का प्रचार तंत्र तगड़ा था, अद्भुत था लेकिन जनमानस उतना ही विकल था. लोकसभा और विधानसभा चुनाव में वोटर अलग-अलग तरीके से रियेक्ट और एक्ट करता है, इस सच्चाई को समझे बिना भाजपा की ओर नेताओं की भीड़ भागी जा रही थी. यह सब देख भाजपा “अति आनंद उमगि अनुरागा” की स्थिति में थी.
विधानसभा चुनाव महागठबंधन हेमंत के नेतृत्व में लड़ा जाना था. इससे साफ जाहिर था कि स्थिति बनी तो बिना किसी इफ-बट के हेमंत सोरेन ही मुख्यमंत्री बनेंगे. यह बात शायद बाबूलाल को कचोट रही थी. दूसरे यह भी समझा जाता था कि भाजपा उनकी ओर टकटकी लगाये बैठी थी. चार दलों के महागठबंधन में सीट शेयरिंग भी एक बड़ी समस्या थी. इस स्थिति में जैसे भाजपा से आजसू को कन्नी काटनी पड़ी, वैसे ही इधर जेवीएम ने महागठबंधन को बाय-बाय कर दिया. उन दिनों यानी सितंबर-अक्टूबर यहां तक कि नवंबर के भी प्रथमार्द्ध में भाजपा, कांग्रेस और झामुमो से बेटिकट हुए नेताओं के लिए आजसू और जेवीएम तीर्थ बन गये. जो भी आया, टिकट ले चुनाव मैदान में कूद पड़ा. (जारी)
नोटः यह श्रृंखला लेखक के संस्मरणों पर आधारित है. इसमें छपी बातों से संपादक की सहमति आवश्यक नहीं है.)
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