कम सीटोंवाले राज्यों की यह एक अलग ही बीमारी होती है, जिसमें गठबंधन के बगैर अकेले किसी दल के लिए सरकार बनाने लायक चुनाव मैदान से विधायक ले आना आसान नहीं होता. गठबंधन निःस्वार्थ तो होता नहीं. यह मौके की यारी होती है. जब गठबंधन कर चुनाव लड़ना होता है तो कहीं न कहीं हर दल के कार्यकर्ताओं पर बुरा असर पड़ता है. शीर्ष स्तर पर मेल के बावजूद जमीनी स्तर पर मित्र दल को वोट ट्रांसफर कराना बेहद कठिन काम है.
Shyam Kishore Choubey
महागठबंधन की 2019 चुनावी राजनीति को समझने के लिए थोड़ा फ्लैशबैक में जाकर 2014 की स्थितियों पर भी ध्यान देना होगा. उस समय झारखंड में लोकसभा चुनाव में कांग्रेस जीरो पर आउट हो चुकी थी. पूरे देश का आलम लगभग ऐसा ही था. 1985 में 414 सीटें पाने वाली कांग्रेस 44 पर सिमट चुकी थी. ऐसे भी कांग्रेस के अंदर के लोकतंत्र का मतलब सामान्यतः गुटबाजी ही होता है. यह महज मतभेद तक नहीं होता. मनभेद भी होता है. दल के संगठन में केंद्रीय स्तर पर राहुल गांधी का वर्चस्व कायम हो चुका था. विधानसभा के आम चुनाव में हारकर उपचुनाव में संभले प्रदेश अध्यक्ष सुखदेव भगत की तूती बोलती थी. प्रदेश अध्यक्ष की तूती बोलनी भी चाहिए बशर्ते ‘मुखिया मुख सो चाहिए…’ पर वह अमल करता हो.
सुखदेव भगत सक्रिय राजनीति में आने से पहले राज्य सेवा के पदाधिकारी थे. वे नौकरी से इस्तीफा देकर 2005 में इधर आये थे. बोलने में तेज-तर्रार और सुदर्शन व्यक्तित्व के कारण राहुल मंडली में शामिल थे. कांग्रेस जॉइन करते ही विधानसभा चुनाव जीतकर उन्होंने कमाल किया था. उनके ठीक पहले डॉ रामेश्वर उरांव एडीजीपी जैसा पद त्यागकर लोहरदगा संसदीय सीट पर काबिज हो चुके थे. लोहरदगा में कांग्रेस का मतलब साहू परिवार से अपनापन जरूरी होता है. इस परिवार के शिव प्रसाद साहू लंबे अरसे तक रांची संसदीय सीट से लोकसभा में रहे. उनके देहांत के बाद धीरज प्रसाद साहू कांग्रेस के प्रदेश कोषाध्यक्ष पद पर आसीन रहने लगे और कालक्रम में वे राज्यसभा के सदस्य हो गये. ऐसे भी लोहरदगा क्षेत्र में दशकों से साहू परिवार की लोगों के बीच अच्छी पैठ रही है. सुखदेव को सरकारी नौकरी त्याग कर राजनीति में लाने में साहु परिवार और रामेश्वर उरांव का योगदान था. सक्रिय राजनीति के लगभग दस वर्ष के खट्टे-मीठे अनुभवों के बावजूद सुखदेव भगत 2014 के विधानसभा चुनाव में एकला चलो की जिद बांध बैठे. उनके आसपास जैसे लोगों का जमावड़ा हो चुका था, उससे वे संभवतः बाहरी दुनिया देखना नहीं चाहते थे. लोकसभा चुनाव में हालांकि भाजपा बारह ही सीटों पर जीत सकी थी, इसके बावजूद बहुप्रचारित मोदी लहर में झामुमो अपनी दो सीटें बचाने में कामयाब रहा था. उसके पास शासन का अनुभव भी था. वह यूपीए का ढांचा राज्य में भी खड़ा करने को उत्सुक था, लेकिन पेंच कांग्रेस की ओर से फंसाया जा रहा था.
राजनीति में कुछ कॉमन सूत्र भी होते हैं, जो अपने हिसाब से इधर की खबर उधर और उधर की खबर इधर देते रहते हैं.
भाजपा लोकसभा की 12 सीटें जीतने के बावजूद विधानसभा चुनाव को लेकर आश्वस्त नहीं थी. तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष डॉ रवींद्र राय ने अनौपचारिक बातचीत में इन पंक्तियों के लेखक से एक बार कहा भी था कि यदि यूपीए में बिखराव नहीं आया, तो हमारी मुश्किलें बढ़ जायेंगी. यहां यह जानना जरूरी है कि राजनीति में कुछ कॉमन सूत्र भी होते हैं, जो अपने हिसाब से इधर की खबर उधर और उधर की खबर इधर देते रहते हैं. भाजपा प्रेमी सूत्र यूपीए में बिखराव लाने के प्रयास कर रहे थे. इस बात को समझे बिना दिल्ली में कांग्रेस के टॉप लीडर अहमद पटेल आदि के साथ हुई संयुक्त बैठकों के बाद भी खासकर पाकुड़ और घाटशिला सीटों पर उलझन बनी हुई थी. कारण यही था कि पिछले चुनाव में दोनों दलों के अलग-अलग मैदान में उतरने के कारण पाकुड़ से झामुमो के अकील अख्तर विजयी रहे थे. कांग्रेस यह सीट गठबंधन में अपने उम्मीदवार आलमगीर आलम के लिए चाहती थी. झामुमो इसे अपनी सीटिंग सीट मानकर गठबंधन में देना नहीं चाहता था. यूं अकील की राजनीति में अक्ल कम ही घूमती थी, फिर भी वे काम के आदमी थे. घाटशिला हालांकि कांग्रेस के प्रदीप कुमार बलमुचू की सीटिंग सीट थी लेकिन झामुमो यहां पेंच फंसा रहा था. मंशा यही थी कि कांग्रेस पाकुड़ की जिद छोड़ दे तो वह घाटशिला पर दावेदारी त्याग देगा. एक बार तो यह भी बात चली कि दोनों सीटों पर दोस्ती कुश्ती आजमा ली जाय. कुल मिलाकर ऐसी ही छोटी-मोटी बातों के कारण और प्रदेश कांग्रेस की मंशा के कारण मामला जम न सका.
इस चुनाव के 16-17 महीने पहले से राज्य में झामुमो के नेतृत्ववाली यूपीए सरकार चली आ रही थी. इस सरकार ने शानदार प्रदर्शन न भी किया हो तो भी ठीकठाक ही काम किया था. इसलिए उम्मीद यही थी कि यदि यूपीए खेमा एकजुट होकर मैदान में उतरे तो सरकार बनाने की स्थिति में आ सकता है. उन दिनों भाजपा में भी कम खेमेबाजी न थी. यह यूपीए के लिए बोनस पाइंट था. इसके बावजूद एका कायम न हो सकी. परिणाम हुआ, झामुमो तो पूर्व के चुनाव के मुकाबले एक अधिक सीट पाकर 19 तक पहुंच गया, जबकि कांग्रेस 13 से घटकर छह पर आ गयी. सुखदेव भगत हों कि प्रदीप बलमुचू हार गये. राजद की तो लुटिया ही डूब गयी.
कम सीटोंवाले राज्यों की यह एक अलग ही बीमारी होती है, जिसमें गठबंधन के बगैर अकेले किसी दल के लिए सरकार बनाने लायक चुनाव मैदान से विधायक ले आना आसान नहीं होता. गठबंधन निःस्वार्थ तो होता नहीं. यह मौके की यारी होती है. जब गठबंधन कर चुनाव लड़ना होता है तो कहीं न कहीं हर दल के कार्यकर्ताओं पर बुरा असर पड़ता है. शीर्ष स्तर पर मेल के बावजूद जमीनी स्तर पर मित्र दल को वोट ट्रांसफर कराना बेहद कठिन काम है. यह संबंधित क्षेत्र के प्रभावशाली कार्यकर्ता ही करा सकते हैं. उनकी चिंता यह होती है कि वोट दूसरों को दिलाकर दूसरे दल के विधायक की जीत सुनिश्चित करा देंगे तो वह अपनी जड़ें जमाने की कोशिश करेगा और खुद उनकी राजनीति मार खायेगी. ब्लॉक और जिला स्तर पर नौकरशाही महत्व नहीं देगी. ऐसे में अपना काम कराना ही दुष्कर हो जाएगा तो अपने फालोअर्स का कितना भला करा पाएंगे. इसके बावजूद समझदार नेता और अनुभवी कार्यकर्ता वोटरों को इधर से उधर करा पाने में सक्षम हो जाते हैं. असल सवाल सांगठनिक मजबूती होती है. इसमें कई फैक्टर काम करते हैं. लोभ-लालच भी उसी का पार्ट होता है, जबकि आश्वासन भी आश्वस्ति देता है. वोटर इन बातों के अलावा राजनीतिक नस्ल पर भी ध्यान देता है. यदि बेमेल का गठबंधन है तो वोटर बिदक जाते हैं. इन बातों की परवाह किये बगैर कांग्रेस ने अकेले दम चुनाव लड़ने का फैसला कर खुद को अंधे कुएं में डाल दिया. (जारी)
नोटः यह श्रृंखला लेखक के संस्मरणों पर आधारित है. इसमें छपी बातों से संपादक की सहमति आवश्यक नहीं है.)
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