Rajendra Rajan
संविधान पीठ का यह फैसला ऐसे समय आया है, जब निर्वाचन आयोग की विश्वसनीयता काफी दागदार हो चुकी है. इसलिए फैसले की अहमियत जाहिर है. यों तो पहले भी कभी-कभार निर्वाचन आयोग के निर्णयों पर सवाल उठे थे, पर कुल मिलाकर आयोग ने अपनी साख बनाए रखी थी. इसकी गिनती देश की चुनिंदा ऐसी संस्थाओं में होती रही, जिन्होंने अपनी विश्वसनीयता पर आंच नहीं आने दी और अपने काम से देश के भीतर ही नहीं, देश से बाहर भी अपना मान बढ़ाया.
सर्वोच्च अदालत के पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने बीते दिनों निर्वाचन आयोग के मुख्य आयुक्त और अन्य आयुक्तों के चयन की प्रक्रिया की बाबत जो फैसला सुनाया, उससे भाजपा के खेमे में मायूसी है. जबकि भाजपा को खुश होना चाहिए कि उसकी एक पुरानी मांग, देर से ही सही, मान ली गयी है! विपक्ष में रहते हुए भाजपा यह मांग करती रहती थी कि निर्वाचन आयोग की निष्पक्षता और विश्वसनीयता को संदेह से परे रखने के लिए यह जरूरी है कि निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति केवल सरकार के हाथ में न रहे, बल्कि इसके लिए एक कोलेजियम बनना चाहिए, जिसमें विपक्ष के नेता को भी शामिल किया जाए. यह बिलकुल वाजिब मांग थी, लेकिन केंद्र की सत्ता में आते ही भाजपा ने इसे भुला दिया! वर्ष 2012 में भाजपा के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर निर्वाचन आयुक्तों तथा नियंत्रक एवं महा लेखापरीक्षक (सीएजी) की नियुक्ति के लिए कोलेजियम का सुझाव दिया था. जिसमें प्रधानमंत्री, कानूनमंत्री, संसद के दोनों सदनों में विपक्ष के नेता और प्रधान न्यायाधीश सदस्य हों. लेकिन तब कांग्रेस ने इस सुझाव को नजरअंदाज कर दिया था. अलबत्ता वाम मोर्चा और कांग्रेस के सहयोगी दल द्रमुक ने आडवाणी के सुझाव का स्वागत करते हुए उसे लागू करने की मांग की थी.
अगर यूपीए सरकार ने चाहा होता तो उस समय निर्वाचन आयोग के लिए कोलेजियम प्रणाली पर आसानी से सर्वसम्मति बन जाती. सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले के मुताबिक अब मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य आयुक्तों की नियुक्ति केवल प्रधानमंत्री की पसंद से नहीं होगी. लोकसभा में विपक्ष या सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता की भी राय ली जाएगी और तीनों की राय से ही राष्ट्रपति नियुक्ति करेंगे. जब तक इस फैसले के अनुरूप संसद कानून नहीं बना देती तब तक अदालत का फैसला ही प्रभावी होगा. अलबत्ता यह फैसला मौजूदा निर्वाचन आयुक्तों का कार्यकाल पूरा होने के बाद ही, यानी नए आयुक्त चुनने के समय से ही लागू होगा.
संविधान पीठ का यह फैसला ऐसे समय आया है, जब निर्वाचन आयोग की विश्वसनीयता काफी दागदार हो चुकी है. इसलिए फैसले की अहमियत जाहिर है. यों तो पहले भी कभी-कभार निर्वाचन आयोग के निर्णयों पर सवाल उठे थे, पर कुल मिलाकर आयोग ने अपनी साख बनाए रखी थी. इसकी गिनती देश की चुनिंदा ऐसी संस्थाओं में होती रही, जिन्होंने अपनी विश्वसनीयता पर आंच नहीं आने दी और अपने काम से देश के भीतर ही नहीं, देश से बाहर भी अपना मान बढ़ाया. लेकिन चुनाव सुधार के नजरिये से देखें तो कई अपेक्षाएं अभी लंबित हैं. इनमें दो सबसे अहम हैं. चुनाव-सुधार का दूसरा अहम मुद्दा यह है कि जिस तरह उम्मीदवारों के लिए खर्च की सीमा तय है, उसी तरह पार्टियों के खर्च की भी सीमा तय होनी चाहिए. यह सही है कि तमाम उम्मीदवार अपने चुनावी खर्चों का सही ब्योरा नहीं देते. लेकिन इसे कड़ाई से लागू करने और व्यावहारिक बनाने की जरूरत है, न कि यह छूट कानूनन कायम रहे कि कोई पार्टी चाहे तो कितना भी खर्च कर सकती है. चुनावी खर्च का चुनाव में साधारण लोगों की भागीदारी, लोक प्रतिनिधित्व के स्वरूप (चरित्र) और विधायिका को धनबल के प्रभाव से बचाने के तकाजे से सीधा वास्ता है. लेकिन हालत यह है कि चुनावी मैदान में संसाधनों की गैरबराबरी में जमीन-आसमान का फर्क आ चुका है.
संसाधनों की गैर-बराबरी की बहस में यह सुझाव भी जब-तब आता रहा है कि चुनाव खर्च का बोझ सरकार (राज्य) वहन करे, यानी इसके लिए स्टेट फंडिंग की व्यवस्था हो. चुनाव सुधार के लिए बनी इंद्रजीत गुप्त समिति (1998) और चुनाव संबंधी कानूनों के सुधार पर विधि आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट (1999) में स्टेट फंडिंग के सुझाव को आंशिक रूप से स्वीकार किया था. इस शर्त के साथ कि ऐसी सहूलियत सिर्फ एक न्यूनतम वोट-प्रतिशत पाने वाले दलों के लिए ही हो, साथ ही, उन दलों पर आंतरिक चुनाव कराने जैसे नियमन के कुछ नियम-कायदे लागू किए जाएं. पर प्रशासनिक सुधार और पुलिस सुधार की तरह चुनाव सुधार संबंधी रिपोर्टें भी ठंडे बस्ते में डाल दी गईं.तीसरा बड़ा मुद्दा यह है कि इलेक्टोरल बांड की व्यवस्था खत्म हो. मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल में की गई इस व्यवस्था के चलते चुनाव को धनबल से असीमित रूप से प्रभावित करने का रास्ता खुल गया है. यह सही है कि पहले भी कोई आदर्श स्थिति नहीं थी. लेकिन कोई पार्टी पैसे के कारण किसी की कठपुतली न बन जाए, इसे रोकने के लिए कुछ तजवीज की गई थी.
यह प्रावधान था कि कोई कंपनी पिछले तीन साल के अपने शुद्ध औसत मुनाफे के साढ़े सात फीसद से ज्यादा चंदा नहीं दे सकती. चुनावी प्रावधान से संबंधित विधेयक को धन विधेयक (मनी बिल) के रूप में पारित कराया गया (जो कि नियमतः नहीं होना चाहिए था) ताकि राज्यसभा में मतों की कमी उसके आड़े न आए! इलेक्टोरल बांड एक हजार, दस हजार, एक लाख, दस लाख और एक करोड़ की कीमतों में जारी किए गए. नब्बे फीसद से ज्यादा बांड दस लाख और एक करोड़ की कीमतों वाले बिके. इससे समझा जा सकता है कि बांड के रूप में चंदा देने वाले किस वर्ग के लोग रहे होंगे. फिर, अब अनुमान ही नहीं, यह खुलासा हो चुका है कि इलेक्टोरल बांड के रूप में अधिकांश रकम एक ही पार्टी (भारतीय जनता पार्टी) को गई.
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.