Faisal Anurag
‘विधायक मंत्री न बनने पर दुखी हैं, मंत्री सीएम न बनने पर, सीएम दुखी कि पता नहीं कब तक रहेंगे.’ भारत की राजनीति पर यह तल्ख टिप्पणी नितिन गडकरी ने की है. राजनीतिक पतन को इससे बेहतर तरीके से परिभाषित नहीं किया जा सकता. गडकरी का बयान वैसे तो गुजरात में विजय रूपानी को मुख्यमंत्री पद से बदलने के बाद आयी है. यह टिप्पणी एक तरह भाजपा की अंदरूनी दास्तान भी बयान करता है. भाजपा ने पिछले छह महीनों में चार मुख्यमंत्री विभिन्न राज्यों में बदले हैं. इसमें कर्नाटक के लिंगायत नेता येदियुरप्पा भी हैं, जो एक जमाने में कर्नाटक में भाजपा की पहचान होते थे. उत्तराखंड में तो दो मुख्यमंत्री बदल दिए गए, तीसरे को बना दिया गया. केवल उत्तरप्रदेश में ही मुख्यमंत्री के बदले जाने की जोरदार चर्चाओं के बाद भी आदित्यनाथ को बदला नहीं जा सका. प्रतिष्ठित व्यंग्यकार शरद जोशी को उद्धृत करते हुए गडकरी ने कहा- ‘शरद जोशी ने लिखा था कि जो राज्यों में काम के नहीं थे, उन्हें दिल्ली भेज दिया. जो दिल्ली में काम के न थे, उन्हें राज्यपाल बना दिया और जो वहां भी काम के नहीं थे, उन्हें राजदूत बना दिया.’
1980 के दशक में पूरे देश में मुख्यमंत्रियों को बदले जाने की घटनाओं के बाद अनेक राज्यो में अपनी अस्मिता के सवाल को उठाकर एक बड़ा गठबंधन बना लिया था. उस दौर और उसके पहले के एक दशक में देखा गया कि किसी भी राज्य में मुख्यमंत्री का पद कब छीन जाएगा, यह किसी को पता नहीं होता था. उत्तर प्रदेश हो या बिहार या फिर आंध्रप्रदेश ”तू चल-मैं आया” वाले खेले की तरह मुख्यमंत्री बदले. लेकिन इन घटनाओं से न केवल केंद्र राज्य संबंधों को लेकर राजनैतिक टकराव चरम पर पहुंच गया. इस टकराव ने पूरे राजनीति के परिदृश्य और संरचना को बदल दिया. आंध्रप्रदेश में एनटी रामाराव का उदय इन्हीं परिस्थितियों में हुआ, जिन्होंने ”तेलगु बिड्डा” यानी तेलगु पुत्र का नारा देकर कांग्रेस विरोधी राजनीति को एक सूत्र में पिरो दिया. इसका असर पूरे देश पर पड़ा और सरकारिया आयोग की नींव भी पड़ी, जिसने केंद्र राज्य के संबंधों को लेकर विस्तारित रिपोर्ट तैयार की, लेकिन इस रिपोर्ट को गतालखाते में फेंक दिया गया.
गडकरी ने जो कुछ कहा, वह दक्षिण से उत्तर और पूरब से पश्चिम तक की राजनैतिक हकीकत है. यह बयान यह भी बताता है कि केंद्र में बैठे नेता कैसे कठपुतलियों को गिराने बैठाने में ही पूरी ताकत लगाते हैं. चूंकि राजनीति उस दौर में पहुंच चुकी है, जहां विचार, प्रतिबद्धता या लोगों की सेवा का सवाल हाशिए पर हैं. ऐसे में आलाकमानों को 90 की दशक की तरह चुनौती देने वाले क्षेत्रीय नेता नहीं के बराबर हैं.
हरियाणा की घटनाओं को भी याद किया जा सकता है, जहां के तीन लालों यानी बंशीलाल, भजनलाल और देवीलाल का उभार हुआ और राजनैतिक नैतिकता के पराभव का वह दौर शुरू हुआ, जिसे गडकरी ने आज के संदर्भ में नये तरीके से स्वर दिया है. दरअसल बिहार और यूपी वे राज्य हैं, वे केंद्र हैं, जिसका असर पूरे देश की राजनीति की दिशा पर पड़ता है. इन राज्यों में मुख्यमंत्रियों की अस्थिरता के दौर की भारी कीमत कांग्रेस को उठानी पड़ी. इन दोनों ही राज्यों में कांग्रेस अब तीसरे चौथे नंबंर की पार्टी बन चुकी है. इसके कुछ अन्य भी कारण हैं, लेकिन राज्य स्तर पर किसी भी लोकप्रिय नेता को नहीं उभरने देने के खेल के पूरे परिदृश्य को बदलने में बड़ी भूमिका रही है.
1990 के बाद उत्तर प्रदेश और बिहार में मंडल के दौर से लोकप्रिय हुए नेताओं ने कांग्रेस और भाजपा दोनों को कम से कम एक दशक तक के लिए अप्रभावी कर दिया. भाजपा तो फिर भी मंदिर के सहारे प्रभावी होती रही, लेकिन कांग्रेस के वोट आधार या तो क्षेत्रीय दलों या फिर भाजपा ने हड़प लिए. मंडल आंदोलन से लालू प्रसाद ओर मुलायम सिंह यादव जैसे नेता और दलित उभार से मायावती जैसे नेतृत्व सामने आए, लेकिन भाजपा की सीमा यह रही कि इन राज्यों में उसके पास वोट आधारों पर वर्चस्व रखने वाले किसी एक नेता की कमी बनी रही. हालांकि आदित्यनाथ अपनी ताकतवर छवि बनाने का प्रयास करते हैं, लेकिन समस्या यह है कि वे भी अकेले दम पर कुछ खास कर सकेंगे, इसमे संदेह है. बिहार में नीतीश कुमार 17 सालों से मुख्यमंत्री हैं, लेकिन वे अकेले दम पर बहुमत पा लेने वाले लालू प्रसाद जैसे नेता नहीं हैं. नीतीश कुमार राजनीतिक बैशाखियों को साधने वाले कुशल नेता जरूर हैं, जो कभी भाजपा तो कभी राजद के सहारे ही मुख्यमंत्री बनते हैं. बिहार में रामविलास पासवान दलितों के नेता बन उभरे, लेकिन राजनैतिक तौर पर वे मायावती की तरह अकेले सत्ता तक कभी पहुंच नहीं पाए.
गडकरी ने जो कुछ कहा, वह दक्षिण से उत्तर और पूरब से पश्चिम तक की राजनैतिक हकीकत है. यह बयान यह भी बताता है कि केंद्र में बैठे नेता कैसे कठपुतलियों को गिराने बैठाने में ही पूरी ताकत लगाते हैं. चूंकि राजनीति उस दौर में पहुंच चुकी है, जहां विचार, प्रतिबद्धता या लोगों की सेवा का सवाल हाशिए पर हैं. ऐसे में आलाकमानों को 90 की दशक की तरह चुनौती देने वाले क्षेत्रीय नेता नहीं के बराबर हैं. हाल में केवल यूपी में ही भाजपा आलाकमान मुख्यमंत्री बदलने का साहस को अंजाम नहीं दे पाया है. गडकरी ने यह भी कहा : समाज सेवा राजनीति का एक हिस्सा है, लेकिन आजकल सौभाग्य या दुर्भाग्य से हम राजनीति का अर्थ केवल सत्ताकरण समझते हैं. हालांकि गडकरी इस बात पर खामोश ही रहे कि इस हालात को बनाने वाले आखिर कौन लोग हैं.
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