Mahadev Toppo
जब भी युवा पीढ़ी की तरफ देखता हूं, अपनी मातृभाषा कुड़ुख को लेकर बेहद आशावान हो जाता हूं. वे अपने गांव, अपनी जड़ों, अपनी मातृभाषा की ओर लौट रहे हैं. उनके हाथ तकनीक का औजार है. वीडियो, व्हाट्सअप आदि के जरिए इसका प्रचार-प्रसार कर रहे हैं. ऐसा लगता है कि मेरी मातृभाषा पुनर्जीवित होगी. नए तरीके से वापस होगी. कई लोग इस दिशा में सक्रिय हैं. संभवत: अगामी पांच साल में इसका परिणाम दिखने लगे. राजधानी रांची समेत पूरे झारखंड में कुड़ुख भाषा के साहित्य के लिए लाइब्रेरी खुल रही है, स्कूल खुल रहे हैं जहां मातृभाषा में ही गणित व तमाम विषयों की पढ़ाई हो रही है.
मित्र संजय कच्छप ने चाईबासा व दुमका में 40 से अधिक लाइब्रेरी खोली है. रांची में हरमू और डिबडीह में ऐसी लाइब्रेरी संचालित हो रही हैं. बिना सरकारी सहायता के निजी प्रयास के बल पर गुमला व आसपास के इलाकों में 25 कुड़ुख स्कूल ग्रामीणों ने खोले हैं. बच्चे यहां अपनी मातृभाषा में पढ़ रहे, शिक्षित हो रहे, आगे बढ़ रहे हैं. बेशक सरकारी संरक्षण से भाषा प्रोत्साहित होती है. समुदाय की चेतना जगती है. पर यह भी सच है कि ऐसे में भाषा पर राजनीति की दखल भी बढ़ जाती है.
झारखंड जब से बना है गैर-आदिवासियों की नौकरशाही-बुद्धिशाही औपनिवेशिक काल की शैक्षणिक पद्धति से प्रभावित रही है. एक नागरिक तो छोड़िए, एक सामान्य इंसान तक आदिवासियों को नहीं समझा गया. आलम यह है कि वर्षों तक हमारे साथ रहने वाले गैर आदिवासी पड़ोसी भी हमारे बारे में, हमारी अच्छाइयों के बारे में नहीं जानते. हमें विकास विरोधी समझते हैं. इन सब प्रवृतियों पर लगाम से भी मातृभाषा मुस्कुराएंगी.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.