Shyam Kishore Choubey
राजनीतिक गुण-धर्म के अनुसार देखा जाये, तो हेमंत सरकार बेमेल की सरकार कतई न थी. भाजपा के बरअक्स झामुमो, कांग्रेस और राजद एक तरह से समान गोत्र के हैं, लेकिन झामुमो के अंदर झामुमो और कांग्रेस के अंदर कांग्रेस का टकराव कैसे रोका जा सकता था?
2012 के पहले जयप्रकाश भाई पटेल को कोई जानता तक न था. 27 सितंबर 2011 को झामुमो के दिग्गज नेता टेकलाल महतो के निधन के बाद उपचुनाव में जब जयप्रकाश झामुमो के प्रत्याशी बनाये गये, तो इनके नाम से हर कोई चौंका. यह नाम झारखंडी प्रकृति का कतई नहीं लगा. जिस किसी ने पहली बार यह नाम सुना, उसने सोचा कि यह कोई गुजराती है. उसी समय यह स्पष्ट हुआ कि ये न केवल टेकलाल बाबू के द्वितीय पुत्र हैं, बल्कि झामुमो के प्रसिद्ध नेता मथुरा प्रसाद महतो के दामाद भी हैं. जब हेमंत के नेतृत्व में जुलाई 2013 में सरकार बनी तो कैबिनेट गठन के समय जेपी पटेल का नाम तेजी से उभरा. इन्होंने मंत्री पद की दावेदारी पेश कर दी. शिबू सोरेन को अपने आंदोलन काल से साथी रहे जेपी के पिता टेकलाल महतो और श्वसुर मथुरा महतो पर बहुत भरोसा था. इसी कारण जब कभी झामुमो को सत्ता में भागीदारी मिली तो कैबिनेट के लिए मथुरा महतो के नाम पर जरूर विचार किया जाता था. इस बार श्वसुर, दामाद दोनों की उम्मीदवारी ने नेतृत्व को धर्मसंकट में डाल दिया. दोनों का वजन तौला जाने लगा. एक नुक्स निकाला गया. जब मुंडा सरकार से समर्थन वापसी की 7 जनवरी 2013 को झामुमो विधायक दल की बैठक हो रही थी तो अर्जुन मुंडा की जिन दो नेताओं ने पक्षधरता जतायी थी, उनमें मथुरा महतो भी शामिल थे. हेमलाल मुर्मू ने तो न केवल बैठक में उसी मत के थे, अपितु अगले दिन वे मुंडा से मिलने मुख्यमंत्री आवास भी चले गये थे. इसलिए दोनों निशाने पर थे. जैसा कि कहा जाता है, जेपी की मां और सास भी उनका सपोर्ट कर रही थीं. इसी खिचपिच में कैबिनेट पूरी नहीं की जा पा रही थी. अंततः कैबिनेट के पहले विस्तार में चार अगस्त को जेपी को मंत्री बना दिया गया. जेपी को नगर विकास और पेयजल-स्वच्छता के साथ-साथ उत्पाद निषेध विभाग भी हाथ लगे. उनका हाल यह कि एक मर्तबा जब वे रांची से अपने पैतृक आवास मांडू जा रहे थे तो रास्ते में चुटूपालू घाटी में एक ढाबे में खान-पान के दौरान कुछ टुच्चे उनकी स्कॉट पार्टी का असलहा ले भागे. ऐसे ही एक वाक्या उनके मांडू आवास में भी हुआ.
जहां तक कांग्रेस की बात है, राजेंद्र प्रसाद सिंह और चंद्रशेखर दुबे के बीच भाजपा-कांग्रेस से कहीं अधिक प्रतिद्वंद्विता थी. यह सब ट्रेड यूनियन इंटक के कारण था. दोनों ही अपने को सिरमौर समझते थे. इंटक नेतृत्व इसे कभी नहीं सुलझा पाया. राजेंद्र सिंह की अपेक्षा चंद्रशेखर दुबे, जिन्हें ददई दुबे के नाम से भी जाना जाता था, अधिक वाचाल थे. आगा-पीछा सोचे-समझे बिना भी वे कुछ न कुछ दहाड़ देते थे. उनके संगी-साथी भी उनको ललकारते रहते थे. बेशक, दिल्ली पर राजेंद्र सिंह का अधिक प्रभाव था. वे धीर-गंभीर और मृदुभाषी नेता माने जाते थे. यही कारण था कि हेमंत के साथ ही उनको मंत्री पद की शपथ दिलायी गयी और डिप्टी सीएम का ओहदा भी दिया गया, जबकि दुबे महोदय को मंत्री बनने के लिए दिल्ली की बहुत मनुहार करनी पड़ी. उनको सबसे अंत में मंत्री बनाया गया. यही हाल पहली बार चुनाव जीतकर आये योगेंद्र साव का भी था. युवा कांग्रेस की राजनीति की उपज योगेंद्र केस-मुकदमों से लदे-फदे नेता थे, जो आजतक विवादास्पद बने हुए हैं. मंत्री रहते हुए उनको एक मामले में जेल जाना पड़ा. इसलिए अगले विधानसभा चुनाव के कुछ अरसा पहले 12 सितंबर 2014 को उन्हें इस्तीफा करना पड़ा. उनकी जगह पर हेमंत ने 27 सितंबर को कांग्रेस के नये-नवेले विधायक बन्ना गुप्ता को मंत्री बना दिया.
चंद्रशेखर दुबे अक्सर सरकार के विरोध में बोल देते थे. ऐसे ही बालू घाटों की नीलामी के सवाल पर जब प्रतिपक्ष सरकार को घेर रहा था, तब दुबे महोदय बालू घाट ‘बेच’ देने का आरोप लगाते हुए सीबीआइ जांच का बयान देने में नहीं हिचके. उन्होंने यह सब हेमंत सोरेन को जितना बेचारा समझकर कहा, दरअसल वह उनकी गलतफहमी निकली. साढ़े पांच महीने उनको झेलने के बाद हेमंत सोरेन ने 19 फरवरी 2014 को ददई को मंत्री पद से बर्खास्त कर दिया. ददई के राजनीतिक भविष्य के लिए यह बहुत ही घातक साबित हुआ. अगले लोकसभा चुनाव में वे टीएमसी में चले गये. धनबाद में मिली हार के बाद काफी मान-मनव्वल कर कांग्रेस में उनकी वापसी भी हुई तो अभी तक राजनीतिक वनवास झेल रहे हैं. खैर, उनकी जगह पर 21 फरवरी को उनके ही प्रमंडल पलामू की डालटनगंज सीट से पहली बार जीत कर आये कृष्णानंद त्रिपाठी को मंत्री बनाकर हेमंत ने राहत की सांस ली.
कांग्रेस के ददई दुबे की ही तरह झामुमो के धाकड़ नेता थे साइमन मरांडी. वे भी दुबे की तरह सांसद और एकीकृत बिहार में मंत्री रह चुके थे. दोनों बड़बोले थे. झामुमो प्रमुख शिबू सोरेन के पुराने साथियों में साइमन शुमार थे. सभी पार्टियां 16वीं लोकसभा के गठन के लिए 2014 के चुनाव की तैयारियों में जुट गयी थीं. झामुमो ने राजमहल सीट से चुनाव लड़वाने के लिए कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे थॉमस हांसदा के पुत्र विजय हांसदा को अपने पाले में ले लिया. साइमन को यह बात खटक गयी. वे चाहते थे कि राजमहल संसदीय सीट से उनके पुत्र दिनेश विलियम मरांडी को पार्टी मौका दे. उस समय हेमंत के राजनीतिक सलाहकार गोड्डा निवासी वरिष्ठ पत्रकार हिमांशु शेखर चौधरी, जो कालांतर में राज्य के सूचना आयुक्त बने, अचानक काफी चर्चा में आ गये. कारण था, साइमन ने उनके बेटे का खेल बिगाड़ने का आरोप हिमांशु शेखर पर ही लगाकर प्रेस कांफ्रेंस तक की, जबकि विजय हांसदा को अपने पाले में लाने का निर्णय सोरेन परिवार का था. बात बढ़ी तो हिमांशु शेखर ने लीगल नोटिस देकर साइमन को आगाह किया. इसके बाद जैसे-तैसे मामला शांत हुआ. पखवाड़े भर चले इस विवाद का अंत 6 मई 2014 को साइमन की मंत्री पद से बर्खास्तगी के रूप में हुआ. उनकी जगह पर 17 जून 2014 को झामुमो के ही लोबिन हेंब्रम मंत्री बना दिये गये. इस लोकसभा चुनाव के समय हेमलाल मुर्मू और साइमन ने पार्टी त्याग दी और भाजपा में शामिल हो गए. हेमलाल को लोकसभा में भाजपा ने टिकट दिया लेकिन वे हार गये. विजय हांसदा लोस चुनाव में विजयी रहे. अगले विधानसभा चुनाव में हेमलाल और साइमन दोनों को भाजपा ने मौका दिया लेकिन दोनों को हार का मुंह देखना पड़ा. हेमलाल का तो अबतक राजनीतिक वनवास ही चल रहा है.
इस प्रकार हम देख रहे हैं कि तृतीय विधानसभा की तीसरी सरकार अपने ढंग की अजूबी थी, जिसमें चार मंत्रियों को कुर्सी गंवानी पड़ी, जबकि नाउम्मीद तीन विधायकों को अकस्मात ललबतिया सुख हासिल हो गया. जारी)
(नोटः यह श्रृंखला लेखक के संस्मरणों पर आधारित है. इसमें छपी बातों से संपादक की सहमति आवश्यक नहीं है.)
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