Shyam Kishore Choubey
साल 2014 के नवंबर-दिसंबर में राज्य विधानसभा का तीसरा चुनाव हुआ, जिससे चौथी झारखंड विधानसभा अस्तित्व में आयी. जिस झारखंड को बिहार से अलग कर राज्य बनाने की मांग लेकर शिबू सोरेन ने प्रायः तीन दशकों तक आंदोलन चलाया, वे ही शिबू सोरेन बेशक तीन मर्तबा मुख्यमंत्री बने, लेकिन ऐसा लगा कि हर बार उनकी कुर्सी तीन पायों पर ही खड़ी रही. उनके आसीन होते ही वह लुढ़क जाने को उतावली होने लगती. उनके साथ ऐसा ही झारखंड क्षेत्र स्वशासी परिषद का अध्यक्ष बनाये जाने के बाद भी हुआ था. उस समय उन पर उनके निजी सचिव शशिनाथ झा की हत्या का आरोप लगाकर गिरफ्तार कर लिया गया था. इसके विपरीत उनके पुत्र हेमंत 2013 के उत्तरार्द्ध में सीएम की कुर्सी पर बैठे तो शेष 17 महीने तक काबिज रहे. यह अलग बात है कि चुनाव बाद यह कुर्सी उनसे छिटक गयी, लेकिन एक तो नेता प्रतिपक्ष का दर्जा देकर गयी, दूसरे संगठन में भी उनका सिक्का जम गया.
इस चुनाव ने शुरुआती दिनों से ही अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया था. चूंकि प्रायः छह महीने पहले ही हुए लोकसभा चुनाव ने दिल्ली की फिजां बदल दी थी, इसलिए उसके छींटे झारखंड विधानसभा के चुनाव पर भी पड़ने लगे थे. भाजपा में अर्जुन मुंडा थोड़े कमजोर पड़ने लगे थे, जकि छत्तीस के आंकड़े वाले रघुवर दास की पूछ बढ़ गयी थी. इस चुनाव में कम से कम आठ दलबदलुओं ने जीत दर्ज करा भविष्य के लिए खतरनाक संकेत दे दिया था. जेवीएम से भाजपा में आये सत्येंद्र नाथ तिवारी, ढुल्लू महतो और जदयू से आये राधाकृष्ण किशोर, जो पलामू के सांसद वीडी राम के निकट संबंधी हैं, तो विजयी हुए ही, निर्दलीय से कांग्रेसी बने विदेश सिंह, राजद से जेवीएम में गये प्रकाश राम, आजसू से जेवीएम में गये नवीन जायसवाल और भाजपा त्याग झामुमो में शामिल कुणाल षाडंगी और राष्ट्रीय कल्याण पक्ष नामक अनजाना सा दल छोड़ झामुमो में गए चमरा लिंडा भी विजयी रहे.
अर्जुन मुंडा अगर चुनाव जीत सके होते तो बहुत संभव था कि भाजपा की आंतरिक राजनीति में कुछ परिवर्तन होता लेकिन उनकी किस्मत में तो पांच वर्षों का वनवास लिखा था. चुनाव हारने के बाद पार्टी ने उनको बहुत काल तक एक तरह से हाशिये पर ही रखा और वे शांत भाव से कुछ-कुछ राजनीतिक गतिविधियां चलाते हुए आराम फरमाते रहे.
इस चुनाव में अर्जुन मुंडा जैसे दिग्गज नेता की तो हार हुई ही, दो सीटों से लड़े बाबूलाल मरांडी भी पराजित हुए और दो सीटों से खड़े हेमंत सोरेन को भी अपनी परंपरागत दुमका सीट गंवानी पड़ी. झामुमो के लोबिन हेंब्रम, मथुरा प्रसाद महतो, झामुमो से भाजपा में गए हेमलाल मुर्मू और साइमन मरांडी, राजद के संजय प्रसाद यादव, अन्नपूर्णा देवी, गिरिनाथ सिंह, कांग्रेस के राजेंद्र प्रसाद सिंह, सौरभ नारायण सिंह, नियेल तिर्की, कृष्णानंद त्रिपाठी, माले के विनोद कुमार सिंह, आजसू के सुदेश कुमार महतो के अलावा बंधु तिर्की, समरेश सिंह, माधवलाल सिंह जैसे धाकड़ नेताओं को भी पराजय का मुंह देखना पड़ा. बाबूलाल और सुदेश लोकसभा चुनाव में भी इसी गति को प्राप्त हुए थे. इस चुनाव में तकरीबन 50 प्रतिशत विधायक धराशायी हो गये. अलबत्ता पहली बार बसपा ने हुसैनाबाद में एनसीपी के कमलेश सिंह को हरा कर अपने प्रतिनिधि कुशवाहा शिवपूजन मेहता के माध्यम से इंट्री मारी. अर्जुन मुंडा अगर चुनाव जीत सके होते तो बहुत संभव था कि भाजपा की आंतरिक राजनीति में कुछ परिवर्तन होता लेकिन उनकी किस्मत में तो पांच वर्षों का वनवास लिखा था. चुनाव हारने के बाद पार्टी ने उनको बहुत काल तक एक तरह से हाशिये पर ही रखा और वे शांत भाव से कुछ-कुछ राजनीतिक गतिविधियां चलाते हुए आराम फरमाते रहे. उनके चुनाव हारने के दो कारण बताये जाते हैं. एक तो अपने क्षेत्र में पर्याप्त समय देने के बजाय अन्य सीटों पर लगातार कैंपेनिंग, दूसरे उनके क्षेत्र के चुनाव प्रबंधकों की लापरवाही और अकड़. जबतक मुंडा को यह अहसास हुआ, तबतक काफी देर हो चुकी थी.
यह ठीक है कि अबतक की अंतिम 2011 की जनगणना के मुताबिक इस राज्य में जनजातीय आबादी अन्य जातियों की तुलना में सर्वाधिक 26.2 प्रतिशत है और सूबे की कुल जमा 81 विधानसभा सीटों में से 28 सीटें जनजातीय प्रत्याशियों के लिए सुरक्षित हैं. लेकिन संवैधानिक तौर पर यह आदिवासी राज्य नहीं है.
यह वही चुनाव था, जिसमें लगा कि भाजपा का तूफान आया हुआ है. उसने 37 सीटें पायीं. यह तबतक की उसकी सबसे बड़ी जीत थी. लोकसभा चुनाव से सीख ले चुकी आजसू ने इस बार भाजपा से हाथ मिलाया लेकिन उसको पांच सीटों पर ही संतोष करना पड़ा. इस प्रकार एनडीए ने वह करिश्मा कर दिखाया, जिसका 14 वर्षों से इंतजार था. वह चुनाव पूर्व गठबंधन के बतौर बहुमत के साथ सरकार बनाने का दावेदार हुआ. दिल्ली तक पहुंच होने के कारण और लगातार पांच बार विधायक चुने जाने के कारण और महत्वपूर्ण विभागों के मंत्री तथा उपमुख्यमंत्री रहने के कारण और अपनी कड़कमिजाजी, जिसे कुछ लोग बदमिजाजी भी कहते हैं, के भी कारण उनका मुख्यमंत्री बनाया जाना तय था. साल खत्म होने के दो दिन पहले 28 दिसंबर को बिना किसी हर-हर, पट-पट के पहली बार निर्विवाद सरकार कायम हुई. इतना ही नहीं, रघुवर के रूप में पहली बार एक गैर आदिवासी मुख्यमंत्री झारखंड को प्राप्त हुआ. दीगर जातियों में एक संदेश गया कि यह काम भाजपा ही कर सकती है, क्योंकि पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष पद पर वह पहले ही ऐसा कर चुकी थी. झामुमो में यह संभव नहीं, जबकि कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष पद पर यह रिस्क नहीं उठा सकी है. अलबत्ता नेता प्रतिपक्ष का आसन झामुमो और कांग्रेस दोनों ने गैर आदिवासी सदस्यों को पूर्व में दिया था. हाजी हुसैन अंसारी को झामुमो ने 2004 में और राजेंद्र प्रसाद सिंह को कांग्रेस ने यह पद 2010 में सौंपा था.
गैर आदिवासी सीएम की चर्चा चलने पर एक बात गौर करने लायक सामने आती है कि अभी तक लोगों में गलतफहमी बनी हुई है कि झारखंड का गठन आदिवासी राज्य के तौर पर किया गया था. यह ठीक है कि अबतक की अंतिम 2011 की जनगणना के मुताबिक इस राज्य में जनजातीय आबादी अन्य जातियों की तुलना में सर्वाधिक 26.2 प्रतिशत है और सूबे की कुल जमा 81 विधानसभा सीटों में से 28 सीटें जनजातीय प्रत्याशियों के लिए सुरक्षित हैं. लेकिन संवैधानिक तौर पर यह आदिवासी राज्य नहीं है. चूंकि पृथक झारखंड राज्य के गठन के लिए जिन नेताओं ने सुदीर्घ आंदोलन चलाया था, उनका नेतृत्व सामान्यतया आदिवासी ही करते रहे और इस राज्य के अस्तित्व में आ जाने के बाद भी कतिपय नेता जनजातीय वोटों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए ऐसी बातें करते रहे, ऐसा प्रतीत होता है कि इसी कारण यह मिथ प्रचारित हो गया कि यह आदिवासी राज्य है. कहने की बात नहीं कि भाजपा, कांग्रेस, आजसू और वामदलों ने भी अपने-अपने ढंग से झारखंड आंदोलन चलाया था किंतु झामुमो ने सबसे लंबा और प्रचंड आंदोलन किया था. झामुमो का नेतृत्व कुछ समय के लिए निर्मल महतो के हाथों में जरूर रहा लेकिन वह बेहद अल्पकालिक था. यहां यह भी याद कर लेना चाहिए कि इस भू-भाग की जनजातियों ने 1766-1805 के चुआड़ आंदोलन के नाम प्रसिद्ध जंगल महाल आंदोलन से लेकर 1914 के टाना भगत आंदोलन तक कम से कम 16 बड़े आंदोलन चलाये. इसके बाद आदिवासी महासभा ने 1938 में पृथक झारखंड की मांग उठाई, जो अनेक रूपों में कभी दो कदम आगे तो कभी दो कदम पीछे चलती हुई 1994 तक जारी रही. 1994 में झारखंड क्षेत्र स्वशासी परिषद का गठन किया गया. इसके बाद भी आंदोलन रुका नहीं और अंततः 14 नवंबर 2000 की मध्य रात्रि के बाद झारखंडी सरकार का बाकायदा गठन हो सका. झारखंड आंदोलन में बहुत बाद में सभी जाति-धर्म के लोग अलग-अलग राजनीतिक संगठनों के माध्यम से शरीक हुए. भाजपा ने झारखंड के बजाय अलग वनांचल प्रदेश की मांग की थी लेकिन जब राज्य बन गया तो वह भी मान गयी कि ‘नाम में क्या रखा है’. (जारी)
(नोटः यह श्रृंखला लेखक के संस्मरणों पर आधारित है. इसमें छपी बातों से संपादक की सहमति आवश्यक नहीं है.)
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