Shyam Kishore Choubey
सदन में रघुवर सरकार के पक्ष में जो संख्या बल था और दिल्ली से उनकी बातों पर जिस प्रकार डिट्टो कर दिया जाता था और खुद उनके पास जिस प्रकार डिप्टी सीएम और महत्वपूर्ण विभागों का मंत्री रहने तथा प्रदेश संगठन चलाने के साथ-साथ लगातार पांच टर्म चुनाव जीतने का अनुभव था, उससे किसी को कोई शंका-आशंका नहीं थी, होनी भी नहीं चाहिए थी. लेकिन ‘राजनीति में जो दिखता है, वही संपूर्ण सच नहीं होता’ की तर्ज पर बाहर से जो नजर आ रहा था, सबकुछ वैसा ही न था. सरयू राय को उन्होंने दिल्ली के दबाव में बहुत बेमन से कैबिनेट में जगह दी थी. इतना ही नहीं, अक्सर विवादों में रहा झंझटियाह और छोटा विभाग खाद्य सार्वजनिक वितरण एवं उपभोक्ता मामले उनके सुपुर्द किया था. साथ में संसदीय कार्य विभाग भी था, जिसमें बहुत करना नहीं होता है, अलबत्ता सदन में उसका महत्व होता है. इस हाल में सरयू की मंत्री पद पर तैनाती शीत-युद्ध को जन्म दे गयी, जो बाद में ‘महाभारत’ में बदल गयी.
उधर स्पीकर के फैसले से बाबूलाल कतई संतुष्ट नहीं थे. संतुष्ट होना भी नहीं चाहिए था. जिस असंतोष के कारण उन्होंने भाजपा का परित्याग किया था, उसी भाजपा ने बड़ी मुश्किल से जीत दिलाकर लाये गये आठ में से छह विधायकों को देखते-देखते ले उड़ने में कोई संकोच नहीं किया और एंटी डिफेक्शन एक्ट को धता बताते हुए इस कृत्य को कानूनी जामा पहना दिया. इससे बाबूलाल के असंतोष को क्रोध में बदल दिया. इस राजनीतिक तीन-पांच को बाबूलाल जैसा संघर्षशील राजनेता चुपचाप कैसे मान लेता! यह तो देखते-जानते मक्खी निगलने जैसा होता. स्पीकर के फैसले के विरूद्ध उन्होंने हाईकोर्ट की शरण ली लेकिन वहां से उनको पुनः स्पीकर न्यायाधिकरण में जाने का निर्देश इस प्वाइंट के साथ मिला कि स्पीकर जल्द से जल्द फैसला लें. वे बिना सुनवाई के पीटिशन रिजेक्ट नहीं कर सकते. इस आदेश के बाद बाबूलाल मरांडी, उनके दल के महासचिव और विधायक प्रदीप यादव और बंधु तिर्की ने अलग-अलग याचिकाएं एक बार पुनः स्पीकर न्यायाधिकरण में दाखिल की. इससे भी भाजपा को कोई विशेष परेशानी न थी. स्पीकर अपने थे और लंबी सुनवाई करने के लिए पर्याप्त परिस्थितियां बनायी जा सकती थीं, जो बना भी ली गईं. ताज्जुब करने की बात नहीं कि यह सुनवाई अगले चुनाव की घोषणा के ऐन पहले अगस्त 2019 तक चली. 18 अगस्त 2019 को सुनाये गये फैसले में न्यायाधिकरण अपना खूंटा गाड़े रहा. इसके बाद बाबूलाल अपील करने हाईकोर्ट चले गये, लेकिन क्या फायदा? चिड़िया चुग गयी खेत. सिर पर चुनाव सवार हो गया. इन बंदों की सुनवाई न्यायाधिकरण में साढ़े चार वर्षों तक जारी रखने का भाजपा को फायदा यह भी हुआ कि कोई चूं-चपड़ न कर सका. यह अलग बात है कि छह में से दो को मनचाहे विभागों वाला मंत्री पद न्योछावर कर दिया गया था, जबकि भाजपा में भागने-भगाने के अगुवा रहे नवीन जायसवाल को छोड़ शेष तीन को बोर्ड-निगम सौंप कर उपकार का बदला चुकाया जा चुका था. यूं, झारखंड विधानसभा में न तो यह पहला खेल-तमाशा न था, न ही अंतिम. 2004 से लेकर इसके पहले तक ऐसे 22 वाद आ चुके थे, जिनमें से हर का हश्र प्रायः ऐसा ही रहा. (जारी)
(नोटः यह श्रृंखला लेखक के संस्मरणों पर आधारित है. इसमें छपी बातों से संपादक की सहमति आवश्यक नहीं है.)
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