Faisal Anurag
कांग्रेस की तंद्रा आखिर कभी टूटेगी भी या केवल ट्वीट-ट्वीट ही खेलती रहेगी. ऐसा कोई राज्य नहीं है, जहां कहा जा सके कि कांग्रेस में सबकुछ ठीकठाक चल रहा है. पंजाब और राजस्थान में कांग्रेस का संकट हल होता नहीं दिख रहा है और छत्तीसगढ़ में आंतरिक टकराव सतह पर आ गया है. झारखंड ओर महाराष्ट्र भी इससे अछूते नहीं हैं. महाराष्ट्र में कांग्रेस के बयानों से क्षुब्ध शिवसेना ने पूछ ही लिया है कि क्या कांग्रेस महाराष्ट्र में मध्यावधि चुनाव चाहती है. कांग्रेस में सुधार को लेकर उठे सवालों के जवाब टाल दिये जा रहे हैं. 2016 में बंगाल विधानसभा में कांग्रेस तृणमूल कांग्रेस के बाद दूसरे नंबर पर थी. 2021 में वह खाता भी नहीं खोल पायी. इतनी करारी हार के बाद तो किसी भी राजनीतिक दल की नींद हराम हो जाती. जिस जितिन प्रसाद को बंगाल का प्रभार दिया गया, वे भाजपा में भाग गये. जितिन प्रसाद के भाजपा में जाने की तैयारी कम से कम साल भर से दिखने लगी थी, लेकिन केंद्र नेतृत्व ने उन्हें बंगाल भेज दिया. ऐसी हाराकिरी के राजनैतिक उदाहरण नहीं के बराबर हैं.
सोनिया गांधी 2004 की तरह न तो भागदौड़ करने की स्थिति में हैं और न ही उनकी त्वरित सक्रियता दिखती है. 2004 में सोनिया गांधी का अथक प्रयास था कि उन्होंने एनडीए के खिलाफ एक बड़ा गठबंधन खड़ा किया और अटल बिहारी बाजपेयी सरकार के शाइनिंग इंडिया के चकाचौंध भरे गुब्बारे की हवा निकाल दी. 2014 के बाद से भारत का राजनैतिक वातावरण और चुनाव की शैली बहुत बदल गयी है. लेकिन इस बदले हुए माहौल को अनुकूल बनाने के जो प्रयास दिखने चाहिए, वे नजर नहीं आते. राज्यों के चुनावों में नरेंद्र मोदी की सरकार से मायूस मतदाता विकल्प के तौर पर कई प्रयोग चुनते नजर आ रहे है. मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस पर वोटरों ने भरोसा जताया. लेकिन मध्यप्रदेश में कांग्रेस का जहाज डूबने से नहीं बच सका. इसके लिए दोष भाजपा को देने से ज्यादा जरूरी है कि कांग्रेस अपने भीतर भी मूल्यांकन करती. उससे सबक सीख कर राजस्थान और छत्तीसगढ़ को विवाद मुक्त बनाने का प्रयास करती. लेकिन राजस्थान में गहलोत और पायलट के बीच का समन्वय नहीं बन पा रहा है. केंद्रीय नेतृत्व ऐसा कोई तरीका नहीं खोज पाया है कि वह अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं के अहम और सत्ता महत्वकांक्षा के टकराव को समय रहते नियंत्रित कर सके.
भूपेश बघेल छत्तीसगढ़ ही नहीं, कांग्रेस में पिछड़े नेतृत्व के सम्मान के एक बड़े प्रतीक बनाकर देश भर में पेश किये गये. उन्हें असम का चुनाव प्रभारी बनाया गया, लेकिन असम के चुनाव परिणाम की निराशा का असर छत्तीसगढ़ पर भी पड़ा है. प्रभावशाली मंत्री सिंहदेव ने पिछले दिनों कुछ विक्षुब्ध विधायकों के साथ बैठक की और पांच मंत्रियों के साथ नेतृत्व बदलाव की मांग के साथ दिल्ली पहुंच गये. छत्तीसगढ़ कांग्रेस के प्रभारी पीएल पुनिया ने भी नेतृत्व बदलाव को हवा देते हुए बयान जारी कर दिया. ऊपर से अभी शांति दिख रही है, लेकिन सतह के भीतर खलबली है. केंद्रीय नेतृत्व पर सवाल हे कि वह आखिर उन दो राज्यों में जहां उसकी सरकार है, पार्टी के भीतर उठ रहे सवालों को हल क्यों नहीं कर पा रही है. पंजाब में एक कमेटी बनी, लेकिन कैप्टन और क्रिकेटर का विवाद सुलझता नहीं दिख रहा है. आठ महीनों के बाद पंजाब को चुनाव में जाना है. अकाली दल ने बसपा के साथ तालमेल कर लिया है. आप से जीते कुछ नेताओं को कांग्रेस में लाया गया है, लेकिन इससे पंजाब कांग्रेस के सवाल हल नहीं हो जायेंगे.
असम में एक विधायक ने तो राहुल गांधी पर ही सवाल खड़ा कर कांग्रेस छोड़ने का एलान कर दिया है. बिहार कांग्रेस एक ऐसा जहाज है, जिसका कोई कैप्टन नहीं दिख रहा है और उसके 19 में से ज्यादातर विधायकों पर जदयू ने निशाना साधा रखा है. एक अनार और सौ बीमार की दुविधा में झारखंड कांग्रेस कुछ नेताओं की अति महत्वाकांक्षा का शिकार दिख रही है. महाराष्ट्र में कांग्रेस के एक बड़े नेता ने अगला चुनाव अकेले दम पर लड़ने का एलान कर गठबंधन के दो अन्य दलों को आखिर क्या संदेश देना चाहा है, यह समझ से परे है. लेकिन इससे कांग्रेस की ही किरकिरी हुई है.
बड़ा सवाल यह है कि जब कांग्रेस में क्षत्रपों का दौर था, तब भी वह आज की तरह अस्तव्यस्त नहीं दिखती थी. सीताराम केसरी के अध्यक्ष बनने के बाद के जो हालात कांग्रेस में पैदा हुए थे, वे आज के हालात से ज्यादा गंभीर थे. आखिर राहुल गांधी या प्रियंका गांधी के रहते हुए भी कांग्रेस की इस अराजक स्थिति की जिम्मेदारी किसकी है. राहुल गांधी के ट्वीट या उनकी बातें जरूर महत्वपूर्ण हैं, लेकिन मात्र इससे कांग्रेस के एक संघर्षशील विकल्प बनने की राह प्रशस्त नहीं होगी. राज्यों में क्षेत्रीय दलों के नेताओं ने अपनी शक्ति, हुनर और जनसमर्थन से भाजपा को जिस तरह सबक दिया है, उससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है. बंगाल में ममता बनर्जी ने अकेले दम पर भाजपा को करारी शिकस्त दी. बंगाल में तृणमूल छोड़ भाजपा में गये नेता वापसी के लिए बैचेन हैं. इससे जाहिर होता है कि यदि नेता दृढ़ता से मुकाबला करने का साहस दिखाये, तो वह विपरीत हालात को भी अनुकूल बना सकता है. मगर कांग्रेस के पास ऐसा कोई इरादा ही नहीं दिखता.