Lagatar Desk : साल 2020 गुजर गया. यह पूरी दुनिया को कभी न भूलनेवाला अनुभव देकर जा रहा है. झुर्रियों से घिरी अनुभवी आंखें हों या नयी-नवेली तेज नजर, सबने एक वर्ष के इस कालखंड को अपने हिसाब से देखा और महसूसा है. पत्रकार इस समय के सबसे बड़े साक्षी रहे हैं, क्योंकि जब पूरी दुनिया अपने घरों में कैद थी, वे बीमारी का खतरा उठा कर अपना काम कर रहे थे. हमारे भी कई साथी संक्रमित हुए. गुजरते साल के अंतिम पहर में उन्होंने अपना अनुभव सबके सामने रखा है. इस पन्ने पर पढ़ें लगातार.इन टीम के साथियों के अनुभव.
सृजनशीलता की तलाश की चाह में ही हुआ वर्षांत !

जहां में अब जितने रोज जीना होना है…
तुम्हारी चोटें होनी हैं, अपना सीना होना है।।
शमशेर बहादुर सिंह की इन पंक्तियों में ही साल का पूरा दर्द और संघर्ष अभिव्यक्त होता है. इस आत्मसंघर्ष के बीच ही अपने कई लोगों को खोने के दंश ने नाउम्मीद भी किया और उम्मीदों के नये चिराग भी रोशन किये. पूरा साल इन्हीं अंतरविरोधों में गुजर गया. 2020 के कई निजी और सार्वजनिक अनुभवों ने इंसान के महत्व को और उसकी संवेदना के प्रति विश्वास पुख्ता किया. समूह की ताकत का अहसास कराता यह साल सीख देता है कि इंसानियत ही सबसे बड़ी पूंजी है. खास कर कोविड प्रभावित परिजन और साथियों का जाना सबसे बड़ी त्रासदी रही है. इन हालातों में प्रियजनों से बिछडना कहीं भीतर तक आहत करता रहा और दुख में सशरीर अनुपस्थित रहना मार्मिक पीड़ा का सबब बना रहा है.
इस साल का एक बड़ा दर्द यह भी है कि सबसे कम किताबें पढ़ पाया. नयी किताबों की दुनिया के लिए तरसता रहा. बावजूद इसके सात बेहतरीन किताबों को पढ़ पाया. नयी किताबों में अशोक कुमार पांडेय की किताब, मैंने गांधी को क्यों मारा और पुष्यमित्र की रुकतापुर महत्वपूर्ण है. रुकतापुर एक ऐसी किताब है, जो बिहार के साथ किसी भी गांव का नया नजरिया पेश करती है. डॉ पुरूषोत्तम कुमार संपादित भारत माता नेहरू और नेहरूकालीन भारत के आत्मसंघर्षों की एक नयी चेतना और समझ विकसित करती है. इसके साथ ही लातिनी और अफीकी लेखकों के भी तीन उपन्यासों से गुजरा. बालजाक की जीवनी और विश्व प्रसिद्ध पुस्तक विश्व का जनइतिहास ने भी झकझोरा. इतिहास की नयी चेतना और नजरिया विकसित करने में इस किताब ने भूमिका निभायी. इसे अलावे पाब्लो नेरूदा, मंगलेश डबराल, बिरेन डंगवाल के संग्रहों को नये संदर्भ में समझा-परखा.
इस दौरान पहली बार मैं मध्य एशिया के देशों, खासकर अर्मेनिया और अजरबैजान और तुर्कस्तान के इतिहास से रूबरू हुआ. सोवियत संघ में रहे इन देशों के तीस साल के सफर और प्राचीन इतिहास से परिचित हुआ. तुर्की के ड्रामों- सीरियलों ने न केवल इस्लाम के संदर्भ में अरबी समझ से एक अलग नजरिया से रूबरू कराया, बल्कि यूरोप के इतिहासकारों की समझ का अंतर भी समझाया. खास कर तीन ड्रामों, अर्तगल गाजी, कोसेम सुल्तान और फातिमा गुल ने अलग-अलग कालखंडों में तुर्की के एशियाई-यूरोपीय अंतर्विरोध से परिचित कराया. इस वर्ष पाकिस्तान में आमजनों और वहां के समाज की आंतरिक संरचना को वहीं के ड्रामों से समझने का प्रयास किया. टीवी ड्रामों में इन दोनों देशों का अपना महत्व है. अर्तगल वेब सिरीज ने इस्लाम, उस्मानिया साम्राज्य की नींव, रोमन यानी बैंजेनटाइन बनाम कबिलाई इतिहास को जीवंत कर दिया है. हालांकि वेब सिरीज के राजनैतिक मायने हैं, बावजूद वह इतिहास की वस्तुगतता से वह ज्यादा दूर भी नहीं है. यह ड्रामा तुर्की के शासक अर्दगन की राजनैतिक महत्वाकांक्षा को समझने में भी मदद करता है. अर्दगन तुर्की के ऑटोमन दौर को पुनर्जीवित करने का सपना पाल रहे हैं और यह बात छिपी भी नहीं है. दूसरी ओर इस उस्मानिया साम्राज्य की सबसे ताकतवर महिला कौसोम सुल्ताना की दास्तान 17वीं सदी के ऑटोमन साम्राज्य के पूरे संदर्भ को रेखांकित करती है.
लेकिन सृजनात्मक लेखन के नजरिये से इस साल कुछ नहीं हो पाया. कई योजनाएं बनीं, लेकिन उन्हें मूर्त रूप नहीं दे सका. इसका एक बड़ा कारण दोस्तों की जुदाई रही. साथ ही कोविड की नजरबंदी और कोविड काल में श्रमिकों की परेशानियों से आहत मन नया कुछ भी रचने में सक्षम नहीं हो सका.
बावजूद साल की निराशा को किसानों के आंदोलन ने तोड़ा. इस आंदोलन ने उन तमाम तकलीफों और निराशा से बाहर निकाला, जो अप्रैल से नवंबर तक घेरे रहीं. निराशा हमेशा आत्मघाती प्रवृत्तियों को जन्म देकर सृजन से विमुख कर देती है. कुल मिला कर वर्षांत इन्हीं सृजनशीलता की तलाश की चाह में ही हुआ है.
दुनिया की खबर रखनेवाले अपने घरों के बारे में कितना कम जानते हैं

गली किक्रेट छोड़ने के साढ़े तीन दशक बाद यह किसने सोचा था कि फिर से पिच बनेगी, बैट-बॉल निकलेगा, आउट होने के बाद भी क्रीज न छोड़ने के बहाने बनेंगे और अपने बच्चों के साथ हम भी फिर से अपना बचपन जी लेंगे. कोरोना ने यह मौका दिया. शाम होते ही ह्वाटसअप पर टीम बन जाती और हम उतर पड़ते मैदान में. करीब दो महीने सोसाइटी के खुरदरे मैदान को खेल-खेल कर समतल कर डाला हमने, ठीक वैसे ही जैसे बचपन में सूखे खेत में थेथर के डंडों से बने स्टंप्स लगाकर डट जाते थे. जिंदगी की भागदौड़ में कभी देखा ही नहीं या यूं कहें कि कभी देखने की कोशिश ही नहीं कि मेरा घर चलता कैसे है, लेकिन जब घर में रहना पड़ा और तो जाना कि ऑफिस का काम तो एक तय वक्त पर खत्म हो जाता है, लेकिन घर का काम तो कभी खत्म ही नहीं होता. पत्नी की जरा सी बात पर झल्ला उठने वाला मैं पहली बार ये देख रहा था कि मेरा घर अगर इतना साफ-सुथरा और करीने से रहता है, तो इसमें मेरा कोई योगदान नहीं है. मेरे बच्चों की पढ़ाई से लेकर, कौन क्या पहनेगा, रसोई में क्या पकेगा और गमलों में इस सीजन कौन से फूल खिलेंगे, सब उसे पता था, मुझे नहीं. लगा जैसे अपने ही घर में मेहमान हूं. कब वैक्यूम क्लीनर उठा कर घर की सफाई में जुट गया, पता ही नहीं चला. बच्चों के लिए तरह-तरह के स्नैक्स बनाये और जब उनके साथ खेला, तो जाना कि वे तो कब से मुझे अपनी टीम में लेना चाहते थे.
अभी तक रविवार की छुट्टियों में बच्चों को शाम को बाहर घुमाकर ही काम बन जाता था, लेकिन इन आठ महीनों में बच्चों के साथ रहा, तो जाना कि उनकी दुनिया हमारी दुनिया से बिल्कुल अलहदा है. उनका सोचने का तरीका, उनकी बातें, जिंदगी को देखने का उनका नजरिया हमारे वक्त से कितना आगे है. 10 साल की उम्र में मुझे कहां पता था कुछ. और ये बच्चे जानकारी और तकनीक के इस्तेमाल में कितने स्मार्ट हैं. इन्हें तो किसी ने सिखाया नहीं, फिर कैसे नयी टेक्नोलॉजी के साथ इतने सहज हैं. शायद यह पीढ़ी आज के स्मार्ट उपकरणों के जैसी ही स्मार्ट है. इनके साथ वक्त बिता कर मैं अब इनकी दुनिया को थोड़ा जान पाया. अब मैं इनके साथ ज्यादा दोस्ताना हूं.
लॉकडाउन में यह भी देखा कि संबंध चाहे जितने गहरे हों, मौत का खौफ हर रिश्ते से बड़ा है. कोरोना के नाम से लोग अपनों से भी ऐसे भागते, जैसे वह इंसान नहीं चलता-फिरता मानव बम हो, वहीं कुछ लोग अपनी परवाह नहीं कर दूसरों की मदद करते नजर आये. पैदल घरों को लौटते मजदूरों को देखा, सड़कों पर बिलबिलाते भूखे लोग देखे, तो खाने खिलानेवालों का जज्बा भी देखा. घटती नौकरियां देखीं, बीमारी से परिवारों को उजड़ते देखा, कुछ अजीज दोस्त बिछड़ गये, तो परिवार और रिश्तों को नये सिरे से जानने की समझ भी बनी.
कोरोना ने दुनिया को बदल कर रख दिया है. इसने बताया है कि हम तकनीकी तौर पर चाहे जितना भी उन्नत होने का दावा करें, प्रकृति से ताकतवर नहीं हैं. जब हम घरों में कैद थे, जानवर जंगलों से बाहर आ रहे थे और बेखटके घूम रहे थे. वो जानवर भी, जिन्हें हम गायब मान बैठे थे. हवा पहले से साफ थी, आसमान में तारे वैसे ही साफ टिमिटमा रहे थे, जैसे गर्मी की चांदनी रातों में मां से कहानियां सुनते वक्त टिमटिमाते थे. नदियों में सालों बाद साफ पानी बह रहा था और पचासों किलोमीटर दूर से हिमालय की धवल चोटियां सुनहरी धूप में पिघलते सोने की मानिंद दृष्टिगोचर हो रही थीं.
मेरा अनुभव अभी खत्म नहीं हुआ है, लेकिन अभी-अभी इस लेख को लिखते वक्त पत्नी का फोन आया और मैंने उससे उसका अनुभव पूछा, तो मेरी सारी स्याही बेमतलब हो गयी. उसने बताया कि सुबह बच्चों के स्कूल चले जाने के बाद सुकून की जो चाय उसे दिनभर ताजा रखती थी, अब नहीं मिलती. शाम सात बजे के बाद टीवी के सामने दो घंटे बैठ कर अपना पसंदीदा शो देखने का सुख उससे छिन गया है. अपने ऊपर ध्यान देने का वक्त ही नहीं है उसके पास. बच्चों की चिल्लपों, खाने की अलग-अलग फरमाइशों और उनकी फैलाई चीजों को बटोरने में ही उसका पूरा दिन गुजर जाता है. परिवार की देखभाल करनेवाली मेरी पत्नी और उस जैसी लाखों घरेलू महिलाओं के पास इस कोरोनाकाल में दिन के 24 घंटों में खुद के लिए आजादी और सुकून के चंद घंटे भी नहीं हैं. उनके लिए कोरोना की यही सबसे बड़ी त्रासदी है और हम मीडियावालों की त्रासदी यह है कि दुनिया की खबर रखने का दम भरते हुए हम अपने घरों के बारे में कितना कम जानते हैं.
19 साल बाद घर वापसी, मेरी बीमारी और रिजाइन-ज्वाइनिंग

2020 की शुरुआत अच्छी रही. फरवरी में मैं रांची आया था एक शादी में. काफी यादगार शादी थी. इसी बीच परिवार से भी मिलने का समय मिला. 27 फरवरी को दिल्ली लौट गया. बहुत सारी यादों के साथ. जिंदगी का फलसफा ऐसा घूमा कि मार्च आते ही समझ में नहीं आ रहा था कि करें क्या, क्योंकि दिल्ली में कोरोना की शुरुआत हो चुकी थी. परिवार का डर सता रहा था कि कहीं किसी को बीमारी ना हो जाये. ऑफिस लगातार जाना पड़ रहा था. वहां का भी हाल ये था कि लोग डरे हुए थे. मगर आपसी बात तक ही डर सीमित था.
एक दिन पता चला कि ऑफिस के ही एक साथी को कोरोना हो गया है. उसके बाद तो जैसे डर चरम पर था. लगा कहीं होटल लेकर रह लेते हैं. कम से कम परिवार को तो कोरोना नहीं होगा. लेकिन जब देखा कि बहुत सारे साथी काम पर आ रहे हैं और उनको कोरोना नहीं हो रहा है, तो मैंने भी घर से ही काम करने का निर्णय लिया. मगर ऑफिस से जब भी घर आते तो कुछ रुटीन की शुरुआत हो चुकी थी. उसमें यह था कि सबसे पहले पूरा परिवार घर से बाहर नहीं जायेगा. मैं जब भी बाहर से घर आता तो सीधे बाथरुम में नहाने जाता था और जो भी पहने हुए कपड़ों को धो कर ही बाहर निकलता था. लगता था जैसे ही साबुन शरीर में लगेगा सब ठीक हो जायेगा. कोरोना को लेकर ये वो दौर था, जब सिर्फ अफवाह चल रही थी. इसी बीच मोदी जी ने कई कार्यक्रम किये जिनमें सबसे अहम था लॉकडाउन. मगर ये सब हमारे लिये नहीं था. हम सब कार्यालय जा रहे थे. कोई भी सामान लाते तो उसको गर्म पानी से धो कर ही काम करना पड़ रहा था. जब तक लॉकडाउन रहा, लगा हम ही सड़कों के हीरो हैं. कोई नहीं था दूर-दूर तक सिर्फ और सिर्फ सन्नाटा पसरा था, मगर जैसे ही निवास स्थान की तरफ जाता था, कुत्तों का झुंड काटने को दौड़ता था. बच बचाकर घर पहुंचता था.
एक रात करीब 1 बजे के करीब ऑफिस से घर पहुंचा. खा-पीकर सो गया मगर लगभग 3 बजे अचानक से तबीयत खराब हो गयी. चलने तक की ताकत नहीं थी. किसी तरह मयूर विहार के फेस-2 में पहुंचा. यह बात है जून की तब तक हर जगह कोरोना का असर दिखने लगा था. डर लग रहा था कि कोरोना हो गया है. इसलिए अस्पताल अकेले जाने का निर्णय लिया. अस्पताल में डॉक्टर ने बताया कि आपके लिवर का साइज बढ़ गया है. कई दिनों तक अस्पताल में रहा. सारा चेकअप होने के बाद पता चला कि मुझे पीलिया और टाइफाइड हो गया है. लिवर का साइज भी बढ़ा हुआ है. इसी बीच मैं ठीक हो गया और 15 दिन के अंदर ऑफिस ज्वाइन कर लिया. ऑफिस में अल्टर नेट व्यवस्था के तहत सात दिन एक को ऑफिस जाना था और सात दिन एक का ऑफ था, मैं जब गया तो लगातार काम करने के क्रम में लिवर का साइज बहुत बढ़ गया था. ऐसे में फिर से अस्पताल पहुंच गया.
डॉक्टर ने परिवार को बताया कि यहां रखना इनको ठीक नहीं है. क्योंकि इनका इम्यूनिटी पावर कम हो गया है. फिर क्या था घर से दोस्त दीपक ने एक गाड़ी ठीक की, जो कि हजारीबाग से दिल्ली जा कर मुझे लेकर आती. पिता जी का सख्त आदेश था कि जीवन रहेगा तो बहुत कुछ कर लोगे. तुरंत घर आ जाओ. सबका निर्णय हुआ और गाड़ी किसी तरह दिल्ली के बॉर्डर तक तो पहुंच गयी, मगर मुझ तक नहीं पहुंच पायी. ऐसे में कई लोगों को फोन कर दिल्ली बॉर्डर तक पहुंचाने की बात की, मगर हो नहीं पा रहा था. ऐसे में एक साथी ने गाड़ी की एंट्री दिल्ली के बॉर्डर में करवा दी.
उसके बाद जब गाड़ी मुझ तक पहुंची, तो हम लोग गाड़ी में बैठ कर मीडिया का कार्ड दिखाते हुए सारे बॉर्डर पार कर हजारीबाग पहुंच गये. फिर यहां शुरू हुआ डॉक्टरों और पिताजी की दवाइयां लगभग 4.5 महीना हजारीबाग में बेड रेस्ट रहा. इसी बीच ऑफिस से ज्वाइन करने कि बात आ रही थी, मगर कोई जोर नहीं था. स्लाइन की बोटल एक हाथ में चढ़ रही था और दूसरे हाथ से रिजाइन लिख कर ऑफिस को भेज दिया. ठीक होने के बाद सोच रहा था कि क्या करना है. दिल्ली जाया जाये या यहीं रहें. उसी बीच एक दोस्त से बात हो रही थी. उन्होंने रांची बुलाया और फिर lagatar.in के साथ जुड़ गया.
मगर इस बीच वह हो गया जो कभी नहीं सोचा था. मैं 19 साल बाद हजारीबाग लौट चुका था. कहां मैं अपने नये घर में जाने की सोच रहा था और कहां रांची शिफ्ट कर गया. कहानी वहीं से शुरू हुई, जहां से साल की शुरुआत हुई थी. अब देखते है आगे क्या क्या होता है. 2021 का सवेरा क्या क्या ले कर आता है. काफी सारी यादें ऐसी हैं जिन्हें शब्दों में बयां करना मुश्किल है. अब बाकी बात होगी 2021 में.
जब हुआ कोरोना पॉजिटिव और आइसोलेशन में मना हैप्पी बड्डे

अमूमन 25 दिसंबर के बाद से ही आनेवाला नया साल गुलाबी सा लगने लगता है. ग्रामीण और शहरी दोनों परिवेश में रहने का फायदा नये साल के मौके पर खूब मिल रहा था. जो मैं मजे से उठा भी रहा था. इधर झारखंड की सरकार बदल रही थी. झारखंड का माहौल बदल रहा था. रघुवर दास अपनी सीट भी नहीं बचा पाये थे. बीजेपी औंधे मुह पांच सालों में पहली बार जमीन पर पड़ी हुई थी. सरयू राय एक हीरो की तरह इमेज बना चुके थे. झारखंड की राजनीति का समीकरण उस वक्त हेमंत सोरेन के चेहरे पर जा कर रुक चुका था. धीरे-धीरे सरकार पटरी पर आ रही थी. नये साल की खुमारी के बाद जनवरी और फरवरी बड़े आराम से बीता. मार्च के आते ही मीडिया में एक वायरस की खबर छपने लगी. नाम था कोरोना. क्या था, कैसा था कोई अंदाजा नहीं. तबतक होली की तैयारी हो चुकी थी. इस बार होली में मुझे दिल्ली रहने का मौका मिला. कई सालों से दिल्ली आना-जाना हवाई रास्ते से हो रहा था. लेकिन इस बार का सफर बिलकुल वैसा नहीं था, जैसा हमेशा हुआ करता था.
झारखंड में रहते हुए लगता था कि कोरोना अभी बहुत दूर है. लेकिन एहतियात की तौर पर पहली बार हवाई सफर करने से पहले 250 रुपये का एक मास्क और उतनी ही कीमत की सेनेटाइजर भी खरीदा. मुझे याद है कि जब मैं ये दोनों चीजें खरीद कर अपने ऑफिस आया था, तो इन्हें लेकर ऑफिस कलिग्स के बीच कितना कौतूहल था. लेकिन रांची एयरपोर्ट आते-आते मास्क और सेनेटाइजर आम हो चुके थे. वारयस के डर से बार-बार हाथ पर सेनेटाइजर मल रहा था और मास्क को चेहरे पर परमानेंटली चिपका लिया. 12 मार्च को दिल्ली से वापसी में स्थिति और भयावह लग रही थी. इस बार सभी और ज्यादा डरे हुए थे. सभी के चेहरे पर एक अजीब का भाव दिख रहा था. रांची पहुंचा तो यहां कुछ हल्का लगा. अभी तक कोरोना फीयर जैसी कोई चीज यहां नहीं पहुंची थी. 22 मार्च को ट्रायल बेसिस पर मोदी जी का एक दिन का लॉकडाउन रांची समेत पूरे झारखंड में कामयाब रहा.
23 मार्च से लॉकडाउन लगने के बाद मानो पूरी जिंदगी ही बदल गयी. पत्रकार होने के नाते बाहर निकलने की छूट थी. ऑफिस आता-जाता था. दिन में रांची की सड़कें कभी ऐसी वीरान नहीं देखी थीं. घर से निकलते ही जैसे ही किसी चौक-चौराहे पर आता तो जिला प्रशासन की तरफ से कोरोना से बचने के लिए जागरुकता वाली ऑडियो कान में जोर-जोर से जाती. वो आज तक कान के परदे को चोट पहुंचा रही है. लोगों को हर चीज की दिक्कत होने लगी. सब्जी, दूध राशन भी आम लोगों की पहुंच से दूर सी होने लगी. रोज सुबह ऐसा लगता जैसे स्कूल की छुट्टी हुई है. लोग सामान लेने के लिए घरों से निकलते और फिर घर में दुबक जाते. रास्ते में पुलिस कभी मनचलों पर बिना वजह सड़क पर घूमने पर डंडे बरसाते नजर आती तो कभी चालान काटते. रेल सेवा ठप थी. सड़क पर रिपोर्टिंग के दौरान जब प्रवासी मजदूरों को बसों से उतर कर पैदल घर जाते देखता था, तो रौंगटे खड़े हो जाते थे. उनकी बेबसी और परेशानी को खबर में बदलने की बजाय और कुछ नहीं कर पाना, अजीब सी बेबसी थी. सरकारी मैकेनिज्म काम तो कर रहा था, लेकिन परेशानी इतनी बड़ी थी कि सिस्टम लाचार हो चुका था.
इसी कोरोना काल के लॉकडाउन में नशा करने वालों की लाचारी देखी. लेकिन इंसान अपनी सभी मुसीबतों से पार पा ही लेता है. घरों में प्रेशर कुकर तक में फलों से शराब बनती देखी. 200 की नकली शराब ब्लैक में 1200 में भी बिकते देखा. घरों के आंगन में भट्ठा लगते और अंग्रेजी पीने वालों को महुआ गटकते देखा. अजीब सा नजारा था. इस नजारे के बाच अभी तक कम से कम कोरोना को लेकर सुकून था, कि अचानक एक अप्रैल की शाम को रांची में कोरोना का पहला केस मिला. हिंदपीढ़ी में एक मलेशियन महिला जो धर्म प्रचार के लिए भारत आयी थी, वो कोरोना पॉजिटिव निकली. फिर क्या था, रांची समेत पूरे झारखंड में हड़कंप मच गया. दूसरे राज्यों के मुकाबले फिर भी हम संभले हुए थे. मौत का आंकड़ा उस रफ्तार से नहीं बढ़ रहा था. लेकिन लोगों ने अपनी जिंदगी अब अपने जुगाड़ से चलानी सीख ली थी.
पत्रकार होने के नाते मुझे मौका मिला कि देख सकूं कि कैसे एक अपार्टमेंट में घरों में जिंदगी कैद रहती है, और कैसे कुछ वक्त के लिए बाहर आकर फिर अपने फ्लैटों में घुस जाती है. कैसे गांव या कस्बों में जुगाड़ टेक्नोलॉजी से काम चलाया जा रहा है. कैसे एनएच शांत और राज्य सरकार की सड़कें वीरान और शांत हैं. कैसे करोड़ों की लागत से बने शॉपिंग मॉल्स चुप-चाप वीरान खड़े हैं. कैसे ठेले पर रोज दुकान लगाने वाला अब रोज किसी दानवीर के इंतजार में है. राजनीतिक पार्टियों का काम भी सराहनीय था. नाम और दिखावे के लिए ही सही, लेकिन वो भी लोगों की मदद कर रहे थे. जब भी किसी गरीब के लिए पार्टी को अनाज और जरूरत के सामानों के लिए फोन किया उन्होंने मदद की. 31 मई को केंद्र ने आठ जून से पहले लॉकडाउन को अनलॉक करना शुरू किया. केंद्र के बाद राज्य सरकार अपनी सहूलियत के मुताबिक नियम कानून लागू करने लगी. दे
खते-देखते जुलाई तक तकरीबन सब अनलॉक हो चुका था. मैं रांची और मेरी पत्नी दिल्ली में मार्च के बाद फंसे हुए थे. हवाई मार्ग खुला. तो, सितंबर में वो रांची आयी. अनलॉक हो चुके लॉकडाउन में हम दोनों कोरोना पॉजिटिव हो गए. पहली बार जन्मदिन भी आइसोलेशन मोड में मनाना पड़ा. सारे पर्व त्योहार इस वायरस की भेंट चढ़ चुके थे. दुर्गा-दिवाली और छठ पूजा पहली बार अलग तरह से मनी. इधर झारखंड का राजनीतिक पारा भी धीरे-धीरे चढ़ा. सत्ता खो चुकी बीजेपी अब अपने नेता को सदन में प्रतिपक्ष का नेता बनाने के संघर्ष में लग चुकी थी. सूबे के मुखिया पर संगीन आरोप लगने शुरू हो चुके थे. साल के आखिरी महीने में हेमंत के सीएम बनने के बाद झारखंड में पहला सरकारी उत्सव विकास मेला रांची के मोरहाबादी मैदान समेत हर जिले में लगा. आज साल का आखिरी दिन है. सभी 2020 को कोस रहे हैं. लेकिन क्या पता 2021 कहीं 2020 से भी ज्यादा खराब निकला तो! उम्मीद करूंगा कि आनेवाला साल कोरोना वैक्सीन ही लाये, कोई मुसीबत नहीं.
बचते-बचाते टेस्ट कराते आखिर पॉजिटिव हो ही गया मैं

साल 2020, यानी ट्वेंटी ट्वेंटी के रोचक आंकड़े वाला ये साल जब आया तो सबने दिल खोल कर इसका स्वागत किया और उम्मीद की कि ट्वेंटी ट्वेंटी मैच की तरह ये साल रोमांच से भरपूर होगा, लेकिन पिछले साल के अंत में फैलते कोरोना वायरस ने साल 2020 के शुरूआत में पूरी दुनिया को अपनी गिरफ्त में ले लिया. हमारा देश भी इससे अछूता नहीं रहा और फरवरी मार्च तक आते आते भारत मे भी कोरोना ने अपने पांव पूरी तरह पसार दिए. तरह तरह की अफवाहें उड़ने लगीं, लोग अलग अलग बातें कर रहे थे सोशल मिडिया में नए नए विशेषज्ञ अपना ज्ञान बघारने लगे. कोई चमगादड़ों से बचने के तरीके बता रहा था तो कोई मांसाहार छोड़ने की सलाह दे रहा था. कोई अंडा खाने, तो कोई अंडा न खाने की सलाह दे रहा था. तुलसी , गिलोय, काढ़ा , हल्दी वाला दूध जैसे देसी नुस्खे लोग अपनाने लगे और अपनी इम्यूनिटी पावर को मजबूत करने में जुट गए. हाथ मिलाने की मनाही, छूने की मनाही तो मिलने जुलने की मनाही, पार्टी नहीं, मीटिंग नहीं, सेनेटाइजर और मास्क से पहली बार वास्ता पड़ा. इससे पहले इन चीजों को सिर्फ डॉक्टरों के पास ही देखा जाता था, लेकिन अब इसकी आदत सी पड़ गयी. सच कहें तो जीने का अंदाज ही बदल गया.
मीडिया में काम करने के दौरान लोगों से मिलना ही सबसे ज्यादा जरूरी होता है. खास कर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में लोगों से मिलना, उनसे बाइट लेना, जरूरी ही नहीं, एक मजबूरी भी है. एक डर हम सबके दिल में बैठ गया कि कहीं सामनेवाला कोरोना संक्रमित तो नहीं है. पहली बार बूम माइक में प्लास्टिक का पाइप लगाकर दूर से बाइट लेने का अनुभव हुआ. मास्क लगाकर लाइव करना इंटरव्यू करने का अनुभव अपने आप में अनोखा रहा. फिर आया 22 मार्च का दिन, जब प्रधानमंत्री ने जनता कर्फ्यू का ऐलान किया. रांची को पहली बार इतना डरा-सहमा और सुनसान देखा. जिन सड़कों पर लंबा जाम लगता था, उन सड़कों में वीरानी का खौफनाक मंजर देखा, क्योंकि मीडियाकर्मी अपनी ड्यूटी कर रहे थे, अखबार छप रहे थे, चैनल लगातार खबरें दिखा रहे थे. लिहाजा मैं भी ड्यूटी पर था, लेकिन 22 मार्च तो महज ट्रेलर था पूरी पिक्चर तो अभी बाकी थी. इसके सिर्फ एक दिन बाद यानि 24 मार्च को प्रधानमंत्री ने लॉक डाउन की घोषणा कर दी. पूरे देश में एक मेडिकल इमरजेंसी लग गयी. फ्लाइट बंद, रेल बंद, गाड़ियां बंद, दुकानें बंद, ऑफिस बंद, स्कूल- कालेज बंद, सिर्फ ग्रोसरी और मेडिकल की दुकानें खुली थीं. रोड पर सिर्फ पुलिस और मीडिया के लोग ही नजर आते थे. लोग अपने अपने घरों में कैद हो गये.
हम मीडियाकर्मियों की परेशानी कि अब खबर करें तो क्या सिर्फ कोरोना मरीज, अस्पतालों की व्यवस्था, और प्रशासन की तैयारी पर ही सारा फोकस रहा. उसके बाद दिखा वो मंजर जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी और वे मंजर था मजदूरों की वापसी, वो भी हजारों मील पैदल चल कर, कोई दिल्ली से तो कोई बंबई से तो कोई बैंगलोर से पैदल अपने गांव के लिए निकल पड़े. उस खबर को कवर करना वाकई बहुत दर्दनाक एहसास रहा. उनके पैरों के छाले, आंखों में एक मायूसी देख कर उनसे बात करने में भी संकोच होता था कि आखिर खबर दिखाने के बाद इन्हे क्या मिलेगा. लेकिन ड्यूटी करनी थी तो ये भी करना ही पड़ा. हालाँकि बाद में झारखंड सरकार के प्रयास से मजदूरों को हवाई जहाज से वापस लौटते देखने का सुखद अनुभव भी देखने के मिला. इस पूरे कोरोना काल में जो सबसे अच्छी चीज देखने को मिली वो थी मानवता और संवेदनशीलता, चाहे वो स्वयंसेवी संगठनों के द्वारा हो या फिर व्यक्तिगत तौर पर. लोग जगह जगह लंगर लगाकर जरूरतमंदों को खाना खिला रहे थे कोई जूते बांट रहा था तो कोई अन्य जरूरत के सामान.
पुलिस का भी एक मानवीय चेहरा सामने आया जब पुलिस वाले व्यक्तिगत तौर पर इन्हे खाना खिला रहे थे. थानों में सामूहिक किचन बना कर लोगों को खाना खिलाया जा रहा था. मैंने भी इन लंगरों में खूब खाना खाया. प्रेस क्लब की ओर से पत्रकारों के लिए भी भोजन की व्यवस्था की गयी थी, जहां दोपहर का खाना मिलता था, वहां का भी लुत्फ उठाया. कुछ लंगरों मे तो बाकायदा मेनू तैयार कर रखा था जिसमें खिचड़ी से लेकर चिकन तक मौजूद था. जहां भी कोरोना जांच होती, वहां जरूर टेस्ट कराता और रिपोर्ट निगेटिव आने पर सूकून के साथ फिर काम पर जुट जाता. सोशल डिस्टेंसिंग, आइसोलेशन और कोरोन्टाईन जैसे नये नये शब्द खूब सुनने को मिल रहे थे. सारे त्योहर चाहे वह सरहुल हो, रामनवमी हो, नवरात्रि हो या ईद, सब कोरोना की भेंट चढ़ गए. तीन महीने ऐसा ही चलते रहा. इन तीन महीनों में टीवी पर खूब फिल्में देखीं, किताबें पढ़ीं, गाने गाए और बेटी को पढ़ाया लेकिन एक दिन ऐसा भी आया जब मैं खुद भी कोरोना पॉजिटिव हो गया. एकाएक एहसास हुआ कि ना तो किसी खाने का स्वाद मिल रहा है और ना ही कोई गंध महसूस कर पा रहा हूं. हालांकि मुझे ना तो सर्दी हुई थी ना खांसी और ना बुखार फिर भी टेस्ट कराया तो रिपोर्ट पॉजिटिव आई. मैंने डॉक्टर से संपर्क कर दवाएं लीं और अपने घर में कोरोन्टाईन हो गया. ईश्वर की कृपा से तीन से चार दिनों में ही स्वाद और गंध वापस आ गए और दस दिन के बाद फिर टेस्ट कराया तो रिपोर्ट निगेटिव आई. इसके बाद फिर से अपने काम में जुट गया और कोरोना के साए में ही बिहार में हो रहे चुनाव को भी कवर किया. अब कोरोना का संकट धीरे धीरे खत्म हो रहा है और ये साल भी तो उम्मीद करता हूं कि आने वाले साल में पूरी दुनिया खुशहाल रहे, निरोग रहे और कोरोना ने जो सबक दिया है कि हम कम संसाधनों में भी जिंदा रह सकते हैं, बिना पार्टी और जश्न के भी रह सकते हैं, जो कहते थे कि मरने की फुरसत नहीं है वे भी अपने अपने घरों में कैद हो गए थे. यही एक सबक है जो कोरोना ने हमें दिया है और अब ये जंग अपने आखिरी मुकाम है और उम्मीद है कि सब कुछ फिर से अच्छा ही होगा.
‘कागज नहीं दिखायेंगे’ से शुरू हुआ साल ‘मास्क नहीं हटायेंगे’ पर खत्म

2020 का साल मेरे लिये रोलरकोस्टर की सवारी जैसा था. ज्यादातर लोगों को ये साल कुछ न कुछ खो देने के लिये ही याद रहेगा. कईयों ने अपनी नौकरी खोई तो कईयों ने अपने अपनों को खो दिया. प्रकृति के आगे हर किसी की शक्ति, धन-दौलत सब ने घुटने टेक दिये.
दुनिया ऊंचाई पर एक हवाई जहाज जैसी थी, जिसका दरवाजा कोई भी खोले पायलट हो या किसी भी क्लास का यात्री, क्रैश में मरना सबको था! एकात्म की भावना के बिना दुनियाभर के सर्वश्रेष्ठ मेडिकल सुविधापूर्ण देश भी बेबस नजर आये. कोरोना ने जब भारत में प्रवेश किया तो मेरे आसपास के लोग इसको लेकर गंभीर नहीं थे, मगर पूरी इंसानी सभ्यता को एक साथ घरों में कैद होते मैंने आंखों से देखा. ये अनुभव जीवन के अंतिम दिनों तक मेरे लिये सबसे भयावह अनुभव रहेगा.
माया सभ्यता में जिस 2012 की बात कही गयी थी वो शायद टायपो एरर था, बात 2020 की हुई होगी. पूरे लॉकडाउन में मैंने खूब सिनेमा देखा और कई प्रिय कलाकारों को दुनिया से जाते भी देखा. वर्क फ्रॉम होम ने अपनी क्षमताओं को और निखारने का भी अवसर दिया. इस दौरान मेरा मोबाइल फोन भी खराब हुआ और तमाम दुकानें और सर्विस सेंटर बंद थे. ऐसे में दूरदर्शन पर “रामायण” का लुत्फ उठाया. इस पूरे साल में सिर्फ एक शादी में शामिल हुआ क्योंकि शादी अपनी बहन की थी. आसपास कोरोना से हो रही मौतों के बीच मुझे एक दिन मामूली बुखार महसूस हुआ तो मैंने भी दो दफे कोरोना जांच करायी, रिपोर्ट नेगेटिव आई. कुछ इसी तरह जीवन का एक और साल हसरत और हासिल के बीच की लड़ाई में गुजर गया. इस साल कई हसरतें अथक प्रयास के बाद हासिल हुईं, तो कुछ ऐसा भी हासिल होकर हिस्से में आ गया जिसकी कभी हसरतें ही नहीं थी.
किसी भी साल की पहली और आख़िरी हसरतें ही यादों में बसती है, इसका मतलब ये नहीं कि बीचवाली हसरतों की महत्ता नहीं होती. यह साल कागज नहीं दिखायेंगे से शुरू हुआ और मास्क नहीं हटायेंगे पर खत्म हो रहा है. मगर इस बीच कई ऐतिहासिक पलों का भी गवाह बना. इस साल ने सभी को लड़ना सिखाया. ये लड़ाई हर साल खुद से खुद के लिए लड़नी होती है, एक नई जिम्मेदारी के साथ!
पापा के साथ अर्ली मॉर्निंग्स और दोस्तो संग लूडो नाइट्स

वैसे तो 2020 ये साल हर व्यक्ति के लिए ही किसी अलग तरह की रोलर कॉस्टर राइड रही होगी, पर मेरे लिए ये साल मानो मेरे अच्छे-बुरे सभी प्रकार के अनुभवों को समेटे हुए है. भावनाएं कुछ ऐसी थीं कि अपने निजी जीवन में भी गुजरी सभी अप्रिय घटनाओं का दोष 2020 इस साल पर ही मढ़ दिया. पर हां कई बार विपरीत घटनाएं भी हमें सही अनुभवों से रूबरू करा जाती हैं.
साल की शुरुआत में ही सेमेस्टर-3 के एग्जाम खत्म होते ही सेमेस्टर 4 के क्लासेस का इंतजार लग गया था. मेरी प्लानिंग थी कि क्लासेस के साथ इंटर्नशिप भी मैनेज कर पाऊं. पर जैसा कि सारे विश्व के साथ ट्रेजेडी हुई, उसी ट्रैजेडी का एक छोटा सा हिस्सा मैं भी हूं. मानों सारे दुख में पूरा विश्व साथ ही 2020 को कोस रहा हो. खैर कोरोना के टिकटॉक वीडियोस को देख जितनी हंसी नहीं आयी, उतना ही दुख कंप्लीट लॉकडाउन का भाषण सुन कर हुआ था. सारे प्लान्स तो “घर मे रहें सुरक्षित रहें” के स्लोगन तले ही दब गये. जो बाकी थोड़ी उम्मीद बची थी वो रोज़ बढ़ते कोरोना केसेस की रफ्तार ने खत्म कर दी. बंद कमरों में डिप्रेस्ड जिंदगी का एहसास तब हुआ, जब टेलीविजन और सोशल मीडिया के जरिये नेगेटिव चीजें हावी होती गयी.
पापा की सीआरपीएफ में हमेशा से ही बिजी ड्यूटी होने के कारण उन्हें परिवार के साथ बहुत कम ही समय मिल पाता रहा है. लॉकडाउन में पापा के साथ लगभग 3 महीने वक्त गुजारने का मौका मिला. इन दिनों उनके साथ ने मेरी डेली लाइफ को 360 डिग्री बदल दिया था. हमारी मॉर्निंग जो कभी 7 से 8 बजे हुआ करती थी वो पापा की “आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपु: ” के आध्यात्मिक श्लोक के साथ 5 बजे ही होने लगी. लगता था जैसे “बापू सेहत के लिए तू तो हानिकारक है” का गाना ऐसे ही किसी पिता को ध्यान में रख कर फिल्माया गया होगा. पर हां, उनके साथ गुजारे खट्टे-मीठे पल मेरे लिए यादगार रहेंगे.
शुक्र है कि लॉकडाउन के कारण हुई सारी उथल-पुथल को शेयर करने के लिए मेरे फ्रेंड्स थे. दोस्तों के साथ लूडो नाइट्स का मज़ा ही कुछ अलग सा रहा. लॉकडाउन ने मानों इंडोर्स गेम्स और बचपन के जैसे मन लगाने के तरीकों की ओर हमें आकर्षित कर दिया था.
लॉकडाउन के खत्म होते ही सरकार के गाइडलाइंस के अनुरूप हमारे फाइनल एग्जाम्स भी पूरे हुए और खुशी इस बात की रही के परिणाम अच्छे रहे. और इसी के साथ मैंने अपने कैरियर की ओर कदम बढाकर एक नया स्टार्ट किया. बहरहाल औरों के जैसे मेरा भी मानना है कि ये साल 2020 हमें कोसने पर मजबूर कर देता है, साल के पहले और आखिरी महीने में हुए एक्सीडेंट से मेरे पैर में चोटें आई. इसे आप क्या कहेंगे टिपिकल सोच या 2020 का दोष. चर्चित गाना “अरे ओ बेटा जी, ओ बाबू जी, किस्मत की हवा कभी नरम कभी गरम कभी नरम गरम” 2020 के पूरे साल को बेहतरीन तरीके से परिभाषित करता है.
कोरोना जैसी वैश्विक महामारी ने हमें आपदा की परिस्थितियों के साथ कुछ सही अनुभवों को अर्जित करने के काफी अवसर भी दिए हैं. उम्मीद है कि आने वाला साल इन अनुभवों की सहायता से अब सिर्फ बेहतर ही नहीं बल्कि बेस्ट साबित हो.
आइए नयी शुरुआत करें, आने वाले साल को खुशनुमा बनायें

हर साल हमारी आंखों में बहुत सारी उम्मीदें और सपने होते हैं, यह साल बस बीतने को है और हम नए साल का स्वागत करने के लिए तैयार हैं जो साल 2020 हमसे अलग होने वाला है. आइए इस साल की हम बात करते हैं. यह मुझे उम्दीद ही नहीं, बल्कि यकीन है कि इस वर्ष की तरह आने वाला वर्ष नहीं होगा. इंसान हर दुःख और खुशी के साथ, हर समय,और हर साल सामना करता है, लेकिन कोरोना जैसे वायरस के साथ नहीं, पूरी दुनिया ने एक या दूसरे तरीके से इस वायरस का सामना किया है. जिसमें हमारा भारत भी शामिल है. इस वायरस ने न केवल लोगों की जान ही ली, बल्कि उनकी नौकरियों को भी छीन लिया है और बड़ी संख्या में लोग बेरोजगार हो गए हैं. हमने मजदूरों और गरीबों को तमाम परेशानियों का सामना करते देखा है. उन्हें सड़कों पर अपने घर सैंकडों किलोमीटर दूर पैदल और नंगे पांव चलते हुए मुसीबतों में देखा है. 2020 का वर्ष लॉकडाउन के कारण, देश की एक बड़ी आबादी को काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था और आज भी लोग एक या दूसरे रूप में कोरोना से पीड़ित हैं. अब यह साल बीत रहा है और कुछ ही घंटे बचे हैं नए साल के आने में, हर बार की तरह, हमें नए साल की बहुत उम्मीदें हैं, क्योंकि यह कहा जाता है कि दुनिया उम्मीद पर जिंदा है, लेकिन खुद हमें यह भी विचार करने की आवश्यकता है कि हम मनुष्य एक के बाद एक क्यों मुसीबत में हैं. क्या यह है कि हम सही रास्ते से भटक गए हैं और हमारे भगवान हमसे नाराज हैं और क्या हमे अपनी जिम्मेदारी को ईमानदारी से पूरा नहीं कर रहे हैं? या कहीं न कहीं हमारे साथ गलत व्यवहार किया जा रहा है या है रहा है, क्या हम किसी के अधिकारों की हत्या तो नहीं कर रहे हैं, हम किसी पर अत्याचार तो नहीं कर रहे हैं, अगर यह कहीं हो रहा है, तो हमें अपने ही गलत कामों की सजा दी जा रही है, इसलिए यह आवश्यक है कि आइए हम खुद पर विचार करें कि हम किस रास्ते पर चल रहे हैं. शायद इन सभी चिंताओं का कारण हमें खुद ढुंढना होगा, नये साल की शुरुआत के साथ, हमें हर अन्याय से दूर रहने और एक नयी शुरुआत करने की भी जरूरत है तभी आने वाला साल हमारे लिए और हमारे देश के लिए खुशनुमा होगा