Shyam Kishore Choubey
2014 और 2019 में लगातार दो मर्तबा भाजपा की प्रचंड जीत के साथ भारत में दो दलीय शासन-व्यवस्था की बहस अचानक गुम हो गई. क्या यह बहस बेवजह थी या किसी के द्वारा प्रायोजित प्रोपेगेंडा था? अब जबकि भाजपा, खासकर नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के बरअक्स विपक्षी एकता की पहल चल रही है, दो दलीय शासन-व्यवस्था पर विचार प्रासंगिक हो गया है, भले ही वह दो गठबंधनों की शक्ल में हो. यह नहीं भूलना चाहिए कि अकेले दम सरकार बनाने की कूवत रखनेवाली भाजपा कई दलों को समेटकर एनडीए के नाम से सत्ता चला रही है. दूसरी ओर यूपीए का कुनबा बिखरा हुआ है, जिसे व्यापक स्तर पर एकजुट करने की कवायद चल रही है. अंजाम जानने के लिए हमें थोड़ा इंतजार करना होगा क्योंकि राजनीति में कुछ भी संभव है.
दो दलीय या दो गठबंधनों की राजनीतिक व्यवस्था के सापेक्ष देश में पंजीकृत राजनीतिक दलों की संख्या 2,858 है, जिनमें छह राष्ट्रीय दल, 56 राज्य स्तरीय और 2,796 गैर मान्यता प्राप्त दल हैं. भारत महादेशनुमा देश है, जिसमें 28 राज्य और आठ केंद्र शासित प्रदेश हैं. इतने बड़े देश का शासन चलाना आसान नहीं है. तमाम व्यवस्थाओं के बावजूद मणिपुर राज्य और केंद्र शासित प्रदेश दिल्ली में चल रहा अलग-अलग तरीके का विवाद इसका उदाहरण है. मणिपुर में केंद्र की तरह भाजपा का ही शासन है, जबकि दिल्ली में भाजपा की परम विरोधी ‘आम आदमी पार्टी’सत्ता में है. मैतेई समुदाय को जनजाति का दर्जा देने की मांग पर मणिपुर जल रहा है, तो दिल्ली में सत्ताधारी दल को शासन-प्रशासन चलाने की स्वायत्तता देने की मांग पर केंद्रीय सत्ता से ठनी हुई है. राज्य के दर्जे से मुक्त कर कश्मीर को केंद्र शासित प्रदेश बनाने के बावजूद वहां भाजपा/एनडीए की डबल इंजन आतंकवाद अपना फन फैलाये हुए है. संघीय ढांचे का हाल यह कि जिन राज्यों में भाजपा/एनडीए की डबल इंजन वाली सरकार है, वहां तो बहुत किचकिच नहीं है, लेकिन जिन राज्यों में गैर भाजपा दल/गठबंधन का शासन है, वहां केंद्रीय सत्ता द्वारा सौतेला व्यवहार करने की शिकायत उठती रही है.
राजनीतिक आंकड़ों का खेल अजब-गजब होता है. पिछले दो संसदीय चुनावों का परिणाम देखें तो 2014 में 66 प्रतिशत मतदान हुआ, जिसका 31 प्रतिशत हिस्सा भाजपा के खाते में गया था. मतलब यह कि कुल मतदाताओं के सापेक्ष भाजपा को महज 20.58 प्रतिशत वोट मिले. इसी की बदौलत उसने 282 सीटों का जादुई आंकड़ा पा लिया. 2019 में 67.11 प्रतिशत पोलिंग हुई थी. इसमें भाजपा को 37.36 फीसद वोट मिले, जबकि सीटें हासिल हो गईं 303. मतलब उस चुनाव में कुल मतों में से भाजपा की भागीदारी 25.1 प्रतिशत रही. यह अजीब देश है, जिसके लगभग एक तिहाई मतदाता वोट देने में दिलचस्पी नहीं रखते. इस कारण लगभग एक चौथाई मतदाता प्रचंड बहुमत वाली सरकार कायम करने में सफल हो जाते हैं. कुल मतदान का बड़ा हिस्सा उन पक्षों को जाता है, जो आंकड़ों के खेल में लगभग बेमानी साबित होते हुए सरकार नहीं बना पाते. यानी बहुमत के वोट बिखर जाते हैं. दो दल या दो मजबूत और समझदार गठबंधन हों तो राजनीति की सूरत बदल जाए.
इंग्लैंड और अमेरिका में भी कई दल किस्मत आजमाने को तत्पर रहते हैं, लेकिन अवाम की भूमिका अलग होती है. इंग्लैंड में कंजर्वेटिव पार्टी, लेबर पार्टी, लिबरल डेमोक्रेट्स और ग्रीन पार्टी सक्रिय है, लेकिन चुनाव में मुख्य मुकाबला कंजर्वेटिव पार्टी और लेबर पार्टी में ही होता है. अमेरिका में बहुदलीय शासन-व्यवस्था के तहत डेमोक्रेटिक, रिपब्लिकन, रिफॉर्म, लिब्रटेरियन, सोशलिस्ट, नैचुरल लॉ, कंस्टीच्यूशन तथा ग्रीन पार्टी की सक्रियता के बावजूद डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन पार्टी में ही असल मुकाबला होता है. इंग्लैंड में राजशाही और संसदीय पद्धति साथ-साथ चलती है, जबकि अमेरिका में राष्ट्रपति महत्वपूर्ण होते हैं. भारत की स्थिति कुछ अलग है. भौगोलिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, आर्थिक, भाषाई, रहन-सहन, खान-पान आदि-आदि मसलों पर हर राज्य दूसरे से भिन्नता रखता है. उनकी जरूरतों में भी एकरूपता नहीं है. इसके बावजूद यह देश अनेकता में एकता की मिसाल है. केंद्रीय सत्ता राज्यों की स्थानीय जरूरतें पूरी नहीं कर पातीं. फलतः क्षेत्रीय राजनीति दिनोंदिन जबर्दस्त उभार पा रही है. 545 में से 303 सीटें पानेवाली भाजपा इसी कारण कई दलों को साथ लेकर शासन कर रही है. उसके सापेक्ष यदि इसी प्रकार का कोई ठोस गठबंधन खड़ा हो जाए तो चुनावी मुकाबला ही नहीं, परिणाम के बाद का परिणाम यानी शासन का तरीका बदल जाएगा. तब, किसी ऐसे चुनाव परिणाम की गुंजाइश नहीं के बराबर होगी, जब विपक्ष का संख्याबल गौर करने के काबिल भी न रहे. और सभी जानते हैं, मजबूत विपक्ष अवाम के लिए हमेशा फायदेमंद होता है.
यह भारत में ही संभव था कि लगभग 800 साल की गुलामी के बाद आजादी मिलते ही जमींदारी प्रथा और प्रिवी पर्स जैसी व्यवस्था को सिरे से खारिज कर दिया गया, सार्वजनिक लोक उपक्रमों की झड़ी लग गई, कोयला उद्योग और बैंकों का सरकारीकरण कर दिया गया. आरंभिक 20-25 वर्षों में यह सारा कुछ हो गया. फिर वैश्वीकरण और अब निजीकरण का दौर बलबला रहा है. अपनी संस्कृति और सामाजिकता बनाये रखते हुए यह नया दौर किस हद तक तरक्की के रास्ते लंबे और चौड़े कर पाएगा, यह देखना अभी बाकी है. फिलहाल संक्रमण काल में धन का तीव्र प्रवाह चंद हाथों की ओर ही है. ये हाथ उद्योग-व्यापार के क्षेत्र में जमे हुए हैं. बहुदलीय शासन व्यवस्था के तहत क्षेत्रीय दलों को बिना खारिज किये क्या हम अपने लिए परस्पर प्रतिस्पर्द्धी दो पक्षीय व्यवस्था नहीं कायम कर सकते, जिसमें जन-कल्याण की होड़ हो. यदि नहीं तो सत्ता में चाहे जो रहे, हमें हिटलरशाही के लिए तैयार रहना चाहिए.
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.