Faisal Anurag
मजबूत सरकार के खिलाफ किसानों के बढ़ते सैलाब ने एक बड़ी चुनौती पेश कर दी है. नरेंद्र मोदी सरकार जिस तरह पिछले छह सालों में आंदोलनों से निपटती रही है, वे सारे फॉर्मुले बेअसर नजर आ रहे हैं. तीन किसान संगठनों के प्रतिनिधियों ने कृषि मंत्री से मुलाकात कर सरकार के कानून का समर्थन किया और दिल्ली-गाजियाबाद रास्ते को थोड़ी देर के लिए एक तरफ खोलने का फरमान जारी किया. लेकिन इन किसान संगठनों और इनके नेताओं को जिस तरह किसानों ने खारिज किया है, उससे सरकार की आंदोलन में घुसपैठ बनाने की रणनीति कारगर नहीं हो पायी.
दिल्ली जयपुर मार्ग को किसानों ने ठप कर दिया और अन्य तीन स्थानों पर आंदोलन सख्त कर सरकार को एक बार फिर साफ संदेश दिया है कि तीनों कानूनों के रोलबैक से वे कम पर नहीं मानेंगे.
किसानों का बढ़ता सैलाब और क्षेत्र विस्तार बता रहा है कि कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन व सरलीकरण) कानून-2020 ,कृषक (सशक्तीकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार कानून-2020 और आवश्यक वस्तु (संशोधन) कानून-2020 को पूरी तरह रद्द करने की मांग पर वे अडिग हैं.
प्रधानमंत्री लगातार तीनों कानूनों को किसानों का हितैषी बता रहे हैं. प्रधानमंत्री का तर्क है कि आज के जमाने में इन कानूनों से न केवल किसानों की आय बढ़ेगी, बल्कि खेती में भी नये प्रयोग के रास्ते खुलेंगे. हरित क्रांति से भारत को खाद्यान मामले में आत्मनिर्भर बनाने वाले किसान प्रधानमंत्री पर भरोसा नहीं कर पा रहे हैं. ट्रस्ट के ऐसे संकट से केंद्र सरकार को शायद ही जूझना पड़ा हो.
आंदोलन में जिस तरह समाज के दूसरे तबकों की भागीदारी भी बढ़ती जा रही है, उससे सरकार के लिए चुप बैठना भी आसान नहीं है. राजनीतिक प्रेक्षक तो कहने लगे हैं. जिस तरह डॉ मनमोहन सिंह की सरकार ने लोकपाल आंदोलन में भूल की, मोदी सरकार भी वही इतिहास किसानों के मामले में दुहरा रही है. इंदिरा गांधी जैसी मजबूत नेता ने भी जयप्रकाश नारायण आंदोलन को समझने और रास्ता निकालने की जो भूल की थी, राजनीतिक प्रेक्षक याद कर रहे हैं.
किसानों और सरकार के बीच विश्वास का ऐसा संकट पैदा ही क्यों हुआ और यह बढ़ ही रहा है. इसके कई कारण किसानों के पास है. यदि पिछले तीन ही सालों में एमएसपी को लेकर सरकार के विभिन्न मंत्रियों को दिये बयानों को देखा जाये तो, इसे समझने में आसानी हो सकती है.
एमएसपी और कृषि क्षेत्र में अनेक तरह के बदलावों को लेकर सरकार के मंत्री बातें करते रहे हैं, लेकिन किसानों के साथ इन सवालों पर संवाद ही नहीं किया गया. तीनों कानूनों को पहले तो अध्यादेश के रूप में लाया गया. लेकिन उसे लाने के पहले में किसानों को भरोसे में लेने का प्रयास नहीं किया गया. पिछले सालों में जिस तरह केंद्र सरकार ने संसद के सेलेक्ट कमिटी के समक्ष किसी महत्व के विधेयक को नहीं जाने दे रही है. उससे भी किसानों की यह धारणा मजबूत हुई है. सरकार किसानों से अपना असली मकसद छुपाने में लगी हुई है. छह दौर की बातचीत में भी सरकार के रूख से किसान नेताओं को लगा कि सरकार कुछ मामूली संशोधन की बात तो कर रही है.
लेकिन किसानों की असली चिंता को नजरअंदाज कर रही है. किसान नेताओं ने कहा भी है कि सरकार के आश्वासन मात्र पर वे भरोसा नहीं कर सकते, क्योंकि तीनों ही कानूनों की अवधारणा ही खेती किसानी विरोधी है.
तीनों कानून तो 2020 में बने हैं, लेकिन पिछले चार सालों से जिस तरह अडाणी समूह जमीन का अधिग्रहण और उस पर बड़े-बड़े भंडारण केंद्र की ओर बढ़ा है, उससे किसान समझते हैं कि सरकार भले ही मंडी को मजबूत करने की बात करेगी. लेकिन वह न तो वास्तव में मंडी को भविष्य में रहने देगी और न ही एमएसपी कॉरपोरेट कंपनियों के लिए मायने रखेगा. अडानी ग्रुप ने 5.75 लाख मिट्रिक टन स्टोरेज के वेयरहाउस पंजाब, हरियाणा, तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र, पश्चिमी बंगाल में बनाये व 3 लाख मिट्रिक टन की स्टोरेज क्षमता के साइलो मध्यप्रदेश में बनाये.
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार AALL ने 2017 में PPP मॉडल के तहत 100 लाख टन स्टोरेज क्षमता के साइलो स्टोरेज बनाने की योजना तैयार की. लेकिन जमीन अधिग्रहण आदि की दिक्कतों के कारण 31 मई 2019 तक मात्र 6.75 लाख टन की क्षमता के साइलो ही बना सकी. कानून अस्तित्व में आने से पहले ही अडाणी ग्रुप की सक्रियता किसानों की आशंका का सबसे बड़ा कारण है. किसानों ने इस आंदोलन में अडाणी और अंबानी समूहों को निशाने पर ले रखा है. सरकार जल्द ही किसानों का भरोसा नहीं जीत सकी, तो यह आंदोलन राजनैतिक तौर पर एक नया इतिहास बनाने की ओर तत्पर है.