Sachin Kumar Jain
कृषि से संबंधित तीन कानूनों पर जो बहस चल रही है, उससे जुड़ा हुआ एक बेहद महत्वपूर्ण पक्ष सरकार छिपा रही है. वह पक्ष है विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में वर्ष 1995 में हुए कृषि समझौते के बंधन का. हुआ यूं कि वैश्विक स्तर पर व्यापार करने के लिए अच्छा माहौल बनाने और स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के लिए समतल मैदान बनाने के लिए उस साल यह समझौता हुआ था. समझौता यह था कि विश्व के सभी देश कृषि और खाद्य सुरक्षा के लिए दी जा रही राजकीय सहायता (सब्सिडी) को कम करेंगे. इस समझौते को लागू करने की प्रक्रिया वर्ष 2001 में कतर की राजधानी दोहा में हुई डब्ल्यूटीओ की मंत्रीस्तरीय बैठक से शुरू हुई.
यह जानना जरूरी है कि इस समझौते में ऐसा क्या है जो आज भारत सरकार के लिए गले की हड्डी बन रहा है. डब्ल्यूटीओ में हुए कृषि समझौते के मुताबिक, “सुधार” शब्द का इस्तेमाल करते हुए सरकार को कृषि सब्सिडी कम करना है और निजी क्षेत्र के व्यापार को बढ़ावा देने के लिए ऐसे नियम बनाने हैं, जिनमें कंपनियों की किसानों और मजदूरों के प्रति कोई जवाबदेहिता न रहे. इतना ही नहीं ये कम्पनियां किसी भी तरह से जल स्रोतों का दोहन करने, खाद्य प्रसंस्करण के जरिये असीमित मुनाफ़ा कमाने के लिए स्वतंत्र रहेंगी.
हाल के कृषि कानूनों में एक भी बिंदु ऐसा नहीं है, जिसमें यह उल्लेख हो कि भारत में रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का इस्तेमाल सीमित किया जाएगा. सरकार की नीति स्पष्ट है कि हमें भारत के खेतों में किसान नहीं, बहुराष्ट्रीय पूंजीवादी नुमाइंदों की उपस्थिति चाहिए. भारत के नीति आयोग ने (जो नीतियां बनता है) किसानों की आय दोगुनी करने के लिए जो रणनीति बनायी है, उसमें लिखा है कि वर्ष 2004-05 में भारत में 16.61 करोड़ किसान थे, जो वर्ष 2011-12 में कम होकर 14.62 करोड़ रह गये.
खेती से किसानों की बेदखली की ये दर 1.807 प्रतिशत है. यदि हमें किसानों की आय दोगुनी करना है, तो हमें अगले 7 सालों में 13.4 प्रतिशत और 10 सालों में 19.6 प्रतिशत किसानों को खेतों से बाहर धकेलना होगा.
यह बात तो सही है कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य को एक कानूनी स्वरुप नहीं देना चाहती है और इसके दो कारण हैं – पहला कारण यह है कि यदि इसे कानूनी रूप दिया तो उसे हमेशा (या लम्बे समय तक) कृषि उपज का ज्यादा भंडारण करते रहना होगा. अभी भारत में चार कारणों (युद्ध या प्राकृतिक आपदा सरीखी आपातकालीन स्थिति में देश की जरूरत को पूरा करना, बाज़ार में कीमतों के उतार-चढ़ाव को नियंत्रित करना, समाज को उचित दर पर राशन उपलब्ध करवाना और खाद्य उत्पादन को प्रोत्साहित करना) से अनाज की खरीदी करके भारत सरकार और राज्य सरकारों के भण्डार में अनाज रखा जाता है. हर तिमाही के लिए यह मानक तय हैं कि एक निर्धारित मात्रा में सरकार के भण्डार (भारतीय खाद्य निगम और राज्य निगम) में औसतन 3 करोड़ टन अनाज का भण्डार होना चाहिए. यह उल्लेखनीय है कि वर्ष 2020 में अब तक सरकार के गोदामों में 5.25 से 8.25 करोड़ टन अनाज तक का भण्डार इकठ्ठा हुआ.
भारत के कुल खाद्यान्न उत्पादन का लगभग 27 से 29 प्रतिशत ही सरकार के द्वारा खरीदा जाता है. शेष उत्पादन खुले बाज़ार में उपलब्ध होता है. सरकार चाहती है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली यानी सस्ते राशन की योजना को नकद हस्तांतरण योजना में तब्दील कर दिया जाए; यानी लोगों को 20 रुपये प्रति किलो गेहूं के हिसाब से बैंक में नकद राशि दे दी जाए और वे खुले बाज़ार से जाकर जो लेना चाहें, खरीद लें. सरकार यह सच छिपा रही है कि राशन की दुकान बंद होने और इसके एवज़ में लोगों के हाथ में नकद आने से खाद्य सामग्री की मंहगाई बढ़ेगी और कीमतों में असीमित उतार-चढ़ाव होगा. संभव है कि उस नकद से लोग अपनी जरूरत का राशन भी न खरीद पायें.
महत्वपूर्ण बात यह है कि जब सरकार गेहूं, चावल, दालों की खरीदी करती है और भण्डार सुरक्षित रखती है, इससे बाज़ार की ताकतें मुनाफाखोरी और कीमतों से खिलवाड़ नहीं कर पाती हैं.
इस व्यवस्था को बनाने के लिए सरकार सब्सिडी देती है यानी किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य देकर अनाज खरीदती है और फिर सस्ती दर पर सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये राशन प्रदान करके 81 करोड़ भारतीयों की थाली को लगभग आधा भरती है. इससे भारत के उन कॉर्पोरेट्स और दुनिया के बड़े उद्योगपतियों को बड़ा मुनाफ़ा कमाने का मौका नहीं मिल पाता है, जो खाद्य सुरक्षा पर नियंत्रण करके भारत के खेती को नुक्सान पहुंचाना चाहते हैं और देश में भुखमरी के हालात पैदा करके भीतर से खोखला करना चाहते हैं.
वास्तव में किसानों का यह संघर्ष केवल आर्थिक लाभ के लिए संघर्ष नहीं है, यह भारत को फिर से उपनिवेश बनने से बचाने का संघर्ष है.
यह भी सच है कि अब कोशिश की जा रही है कि खाद्य प्रसंस्करण को अनिवार्य बना दिया जाए यानी सामान्य नमक या तेल या गेहूं या चावल नहीं मिलेगा, आपको कंपनी का फोर्टीफाईड और रिफाइंड तेल, नमक, आटा और चावल ही लेना होगा. फ़ूड प्रोसेसिंग का काम किसान नहीं कर सकते हैं और इसके लिए हम सबकी निर्भरता कंपनी के खाद्य उत्पाद पर बन जायेगी. जहां सामान्य की तुलना में 20 से 100 प्रतिशत ज्यादा कीमत चुकानी होगी.
हाल ही में बनाये गये दो नये क़ानून खेती और खाद्य सुरक्षा की देशज व्यवस्था को खोखला कर देंगे. ऐसा कहना इसलिए वाजिब है, क्योंकि भारत के लिए खेती केवल व्यापार या उद्द्योग नहीं है बल्कि सांस्कृतिक व्यवस्था का अभिन्न अंग है. इससे 14 करोड़ परिवारों का जीवनयापन ही नहीं होता है, बल्कि देश के सभी 28 करोड़ परिवारों की खाद्य सुरक्षा भी सुनिश्चित होती है.
ये सरकार सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का दंभ भरते हुए चल रही है, और इसे इतनी बात समझ नहीं आ रही है कि कारपोरेट खेती न तो मिट्टी को ज़िंदा रहने देगी, न धरती के पेट में पानी; जरा सोचिये कि क्या गाय की रक्षा करना मुनाफाखोर कंपनियों की प्राथमिकता में होगा?
सरकार के कदम कृषि में सुधार के हैं या अनाचार के; इसे तय करने का सबसे बुनियादी पैमाना यह है कि क्या यह किसानों और कृषि संसाधनों को संरक्षण प्रदान करते हैं? यदि संरक्षण के प्रावधान साफ़-साफ़ नज़र नहीं आते हैं, तो मान लेना होगा कि इन सुधारों का मकसद कार्पोरेट्स से गलबहियां करना और एकाधिकार को बढ़ावा देना है.
वास्तव में कृषि कानूनों पर सरकार की बदहवासी से यह साबित हो गया है कि वह देश के भीतर और देश के बाहर पूंजीवादी और हिंसक आर्थिक नीति के जाल में फंस गयी है. कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) अधिनियम, 2020 के जरिये किसानों और व्यापारियों को मंडी से बाहर फ़सल बेचने और निजी मंडियों की स्थापना की व्यवस्था करने का प्रावधान किया गया है.
तर्क है कि इससे किसान कहीं भी अपने मनचाहे दामों पर फसल बेच सकेगा. वास्तविकता यह है कि इससे छोटे और मझौले किसानों के पास इतनी क्षमता ही नहीं है कि वह कहीं और जाकर अपनी फसल बेच सकें.
सरकार इतनी मासूम है कि उसे पता ही नहीं है कि केवल किसान और उसका अपना उत्पादन ही इस देश में एक मात्र ऐसा काम है, जहां उत्पादक खुद अपने उत्पाद की कीमत तय नहीं करता है. एक तो वह इतनी परिवहन लागत झेलने की स्थिति में नहीं होता दूसरा उसको सोसायटी और साहूकारों के कर्जे चुकाने होते हैं.
कानून के अनुसार, फसल को मंडी के भीतर बेचने पर लगभग 6 फीसदी टैक्स लगेगा. बाहर कहीं फसल का सौदा कर-मुक्त होगा. इसका सीधा असर यह होगा कि टैक्स बचाने के फेर में भी ज्यादातर फसलें मंडी के बाहर बेची जाएंगी और जब मंडियों को टैक्स नहीं मिलेगा तो धीरे-धीरे उनका परिचालन बंद कर दिया जाएगा. इससे कुछ समय बाद मंडियां बंद हो जाएंगी और पूरी व्यवस्था निजी हाथों में होगी.
सरकार ने भी जता दिया है कि वह मंडी व्यवस्था को बंद करना चाहती है. भविष्य में यह हालात होंगे कि फिर कारोबारी अपने मन-मुताबिक दामों पर किसानों से उनकी उपज खरीदेंगे. मंडियों के अंदर फसल की नीलामी के वक्त कई खरीददारों के होने की वजह से मूल्यों में बढ़ोतरी होती है, यह अवसर बाद में नहीं बचेगा. सरकार ने स्पष्ट किया है कि एपीएमसी बंद नहीं किया जाएगा और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकार उपार्जन करती रहेगी, लेकिन इसे कानून में लिखा नहीं गया है. क्यों नहीं लिखा गया है?
पिछले 30 सालों से किसानों की केवल एक ही अपेक्षा है कि उन्हें अपनी उपज की लाभदायक कीमत मिल जाए. स्वामीनाथन आयोग ने अनुशंसा की थी कि किसानों को उनकी लागत (जिसमें उत्पादन करने में लगा प्रत्यक्ष खर्च, मजदूरी और पूंजीगत व्यय की गणना हो) से 50 प्रतिशत ज्यादा मूल्य मिले. 50 प्रतिशत का आधार यह माना जाना चाहिए कि मौसम, कीटों या बीजों के कारण उनकी फसल खराब भी होती है, अतः ये मूल्य उन्हें सुरक्षा देगा.
कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) क़ीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर क़रार क़ानून, 2020 कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग यानी अनुबंध खेती को कानूनी वैधता देता है. इसके तहत किसान बड़े कारोबारी और निजी कंपनियों से अनुबंध कर सकेंगे. जिसमें उन्हें अग्रिम भुगतान होगा और किसान वही उगायेंगे, जिसका अनुबंध होगा. यानी प्राथमिकता कम्पनियां तय करेंगी.
किसी भी तरह के विवाद की स्थिति में वह न्यायालय में भी नहीं जा सकता है. यह क़ानून देश में सालों से चली आ रही अनौपचारिक एग्रीमेंट ठेका या बंटाई की समस्या का कोई समाधान नहीं करता है. इस आदेश से किसान अपनी ही जमीन का मजदूर बनकर रह जाएगा. इससे पर्यावरणीय समस्याएं भी पैदा होंगी. बड़ी कंपनियां उस पूरे इलाके के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर लेंगी, इससे उस इलाके के छोटे किसानों के लिए फसल लेना मुश्किल हो सकता है. इसमें राज्य सरकारों के पास ठेका खेती की अनुमति देने या न देने का विकल्प भी नहीं है. इस अधिनियम में किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य प्राप्त करने का कानूनी अधिकार नहीं दिया गया है. इससे खाद्यान्न कीमतों में अस्थिरता आएगी.
आवश्यक वस्तु (संशोधन) अध्यादेश 2020 भी कम खतरनाक नहीं है. यह किसी को भी कितनी भी तादाद में अनाज और खाद्यान्न की जमाखोरी करने की छूट देता है. यह संशोधन उस प्रावधान पर लाया गया है, जिसमें सुनिश्चित किया गया था कि मुनाफाखोर सस्ते में खाद्यान्न खरीद कर उसकी जमाखोरी न कर सकें. इस नए संशोधन के बाद सीधे तौर पर जमाखोरी पर कोई नियंत्रण नहीं रह जाता है. मतलब साफ है कि व्यापारी अब आलू, तेल, प्याज, अनाज, दालें, तिलहन जितना चाहें, जमा करके रख सकते हैं. इसका सीधा मतलब है कि व्यापारी आपूर्ति अधिक होने पर सस्ते दामों में मनचाहा जितना माल खरीदकर जमा कर सकेंगे, बनावटी किल्लत पैदा करके उसे महंगे दामों में बेचा जाएगा, इसके कई उदाहरण हम देश में देखते रहे हैं. इससे असर केवल किसानों पर ही नहीं देश के हर उपभोक्ता पर पड़ेगा.
प्रावधान के मुताबिक, जमाखोरी की सीमा तय करने के बारे में सरकार तभी विचार कर सकती है, जब जल्दी खराब होने वाली सामग्री की कीमतों के दाम 100 प्रतिशत और खाद्यान्नों के दाम 50 प्रतिशत से ज्यादा बढ़ जाएं, ये अपने आप में अजीब बात है कि सरकार खुद कानून के जरिए अपने को सीमाओं में बांध रही है.
दिक्कत यह है कि भारत की सरकारें अब जनकल्याण नहीं, मुनाफे का जोड़-घटाना देखने लगी हैं. वे यह भूल गयी हैं कि खेती और भोजन को उन्हें मुनाफाखोरी, काला बाजारी से बचाने, किसानों की सुरक्षा करने और टिकाऊ खेती के विकास की जिम्मेदारी दी गयी है. न कि किसान को गुलाम बनवाने औए जमीन-पानी की नीलामी करने की. इंसान के राजनैतिक इतिहास में दो तरह के अनुभव देखे गए हैं– पहला तो यह कि कोई भी समझदार राज्य अपनी खाद्य सुरक्षा व्यवस्था को अपने नियंत्रण से पूरी तरह से मुक्त नहीं करता है और दूसरा जिन राज्यों ने कृषि और ग्रामीण उत्पादन की व्यवस्था का सौदा किया है, उन्होंने अपनी स्वतंत्रता को खो दिया था. भारत की गुलामी की शुरुआत भी ठीक ऐसे ही हुई थी, जब भारत के राजाओं/सुल्तानों ने उत्पादन और व्यापार मुनाफे के लिए पुर्तगाली, फ्रांसीसी और अंग्रेजी कंपनी के हवाले कर दिया था. ठीक वैसे ही, जैसे ये तीन क़ानून बना कर किया जा रहा है.
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.