Faisal Anurag
क्या उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी को विधानसभा चुनाव में हराने के लिए समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच गठबंधन की संभावना बनने लगी है. अखिलेश यादव ने परोक्ष तरीके से यह संकेत विजय रथ यात्रा के दौरान दिया है. हालांकि अभी भी गठबंधन की संभावना को लेकर सभी बड़े नेता रणनीतिक चुप्पी साधे हुए हैं. अखिलेश यादव के चाचा शिवपाल सिंह ने खुल कर कहा है कि भाजपा को हराने के लिए वे अखिलेश का इंतजार कर रहे हैं. शिवपाल यादव ने अखिलेश के नेतृत्व के खिलाफ ही समाजवादी पार्टी और अपने बड़े भाई मुलायम सिंह से विद्रोह कर अलग दल बना लिया था. लेकिन यूपी में जमीनी हालात विपक्षी दलों के गठबंधन का दबाव बना रहा है.
इसके दो बड़े कारण और हैं. पहला तो यह कि प्रियंका गांधी की बढ़ती लोकप्रियता. दूसरा लखीमपुर खिरी का जनसंहार है. इस जनसंहार ने यूपी चुनाव का पूरा नरेटिव प्रभावित कर दिया है.
गृह राज्यमंत्री अजय मिश्रा टेनी को मंत्रीपरिषद से बर्खास्त नहीं किया जाना और नामजद होने के बाद से उनके प्रति नरम रूख दिखाना चुनावी रणनीति के लिहाज से भाजपा के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं. इस सवाल पर आदित्यनाथ और आलाकमान के मतभेदों की भी राजनीतिक गलियारे में चर्चा हो रही है. भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्रदेव सिंह ने दो दिन पहले ही कहा था कि सत्ता में हम किसी को गाड़ियों से कुचलने के लिए नहीं आए हैं. यूपी में चुनावी नजरिए से बाह्मणों का खास महत्व है. टेनी का बचाव भी इसी कारण से किए जाने की बात की जा रही है. वैसे भी यूपी में ब्राह्मण भाजपा से नाराज भी हैं और बेरूख भी होने लगे हैं. समाजवादी पार्टी भाजपा के बचाव वाले रूख को ले कर रणनीति में बदलाव के लिए सोचने लगी है.
लखीमपुर खीरी नरसंहार पर जिस दृढ़ता और साहस का परिचय प्रियंका ने दिया है. उससे कांग्रेस में भारी उत्साह है. वाराणसी के किसान न्याय सम्मेलन में उमड़ी भीड़ का संदेश और संकेत बिल्कुल स्पष्ट है. समाजवादी पार्टी भी महसूस कर रही है. 2017 वाली कांग्रेस यूपी में बदलती नजर आने लगी है. समाज के विभन्नि तबकों में उसकी स्वीकार्यता बढ़ने की चर्चा मीडिया में हावी है.
लखीमपुर खीरी में जिन चार किसानों और पत्रकारों की हत्या हुई. उनके अरदास में भारी भीड़ उमड़ी. इस अरदास में प्रियंका और राष्ट्रीय लोकदल के जयंत चौधरी भी अन्य नेताओं के साथ शामिल हुए. प्रियंका ने जिस तरह किसानों के परिवारों और घायलों से मुलाकात किया, उससे भी यूपी की राजनीति प्रभावित हो रही है. यूपी के सभी बड़े पत्रकार अब यह मानने लगे हैं कि कल तक जो कांग्रेस हाशिए पर थी उसकी मौजूदगी दमदार बन रही है. ”’जनादेश”” की एक चर्चा में यूपी के जानकार पांच पत्रकारों ने एक स्वर में कहा कि प्रियंका की बढ़ी ताकत भले ही 2022 में सत्ता नहीं दिला पाये, लेकिन वह एक बड़ी ताकत बन कर उभर सकती है.
यूपी के उभार से तो बहुजन समाज पार्टी सतर्क है. लेकिन वह किसी भी गठबंधन के लिए तैयार नहीं है. 2019 के लोकसभा चुनाव में उसने कुल 11 स्थानों पर जीत हासिल किया और समाजवादी पार्टी के साथ हुए गठबंधन का उसे लाभ मिला. लेकिन चुनाव के बाद मायावती ने एकतरफा ही गठबंधन तोड़ने का ऐलान कर दिया. गैर यादव दलित वोटों को ले कर भी बसपा सशंकित है.
ऐसे हालात में अखिलेश यादव को लगने लगा है कि कांग्रेस के साथ गठबंधन हो या नहीं एक रणनीतिक तालमेल अनिवार्य है. पिछले चार सालों में देखा गया है कि समाजवादी हो या बहुजन पार्टी के नेता जनमुद्दों पर सड़क पर नहीं के बराबर दिखे. अकेले प्रियंका ही वह नेता हैं जिन्होंने यूपी के हर ज्वलंत सवाल पर दखल दिया और योगी सरकार पर हमले किए. खास कर उन्नाव और हाथरस की घटनाओं के बाद से यूपी में प्रियंका की छवि को अनेक लोग सराहने लगे. कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष यूपी के अकेले नेता हैं जो योगी राज में सबसे ज्यादा जेल गए हैं और वह भी लड़ते हुए. वे पिछड़ी जाति के भी हैं. राहुल और प्रियंका जिन तीन अन्य नेताओं के साथ लखीमपुर खीरी गए उसके भी राजनैतिक संदेशों की चर्चा है. इन तीन नेताओं में दीपेंद्र सिंह हुड्डा जाट हैं तो चरणजीत सिंह चन्नी दलित और भूपेश बघेल ओबीसी. यूपी में बघेल चुनाव में कांग्रेस के मुख्य प्रभारी भी बना दिए गए हैं.
इस घटनाक्रम का समाजवादी पार्टी ने गंभीरता से आकलन करना शुरू कर दिया है. एक वरिष्ठ पत्रकार शकील अख्तर ने टिप्प्णी की है. उन्होंने कहा है कि गठबंधन की जरूरत का स्वीकार इसीलिए सहारनपुर में अखिलेश ने किया कि वे समझ गए कि प्रियंका भाजपा विरोधी वोट का बड़ा हिस्सा झटक सकती हैं. ऐसा ही मायवती के साथ हुआ. पहली बार उन्हें लगा कि दलित खिसक सकते हैं. कांग्रेस के पंजाब में दलित सीएम बनाने का असर दिखाई देने लगा है. उत्तराखंड में दलित नेता यशपाल आर्य सरकार छोड़कर कांग्रेस में शामिल हो गए. हरीश रावत वहां भी दलित सीएम की मांग करने लगे हैं. मायावती अपनी राजनीति के इस समय सबसे खराब दौर में हैं. एक तरफ ईडी, आईटी का डर दूसरी तरफ राजनीति पूरी तरह खत्म हो जाने का खतरा. मायावती ऐसे द्वंद में क्या फैसला लेंगी, कहना मुश्किल है. मगर उनका समाज फैसला ले सकता है. वह फिर अपनी पुरानी हमदर्द पार्टी कांग्रेस की तरफ लौट सकती हैं. अखिलेश भी इसे गहरायी से समझने लगे हैं.
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