हिन्दुस्तान की आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा ग्रामीण इलाकों में रहता है और कृषि कार्यों से जुड़ा हुआ है. ऐसे में किसानों का आन्दोलन भी इस देश के लिए कोई अप्रत्याशित घटना नहीं है, लेकिन फिलहाल जारी किसान आन्दोलन का सन्दर्भ, उद्देश्य और इसके पीछे या इसकी आड़ में काम कर रही शक्तियां तमाम पूर्वोदाहरणों से अलग दिखाई दे रही हैं, देश की बड़ी आबादी की चिंता इस वजह से है.
कृषि से जुड़े आन्दोलन का इतिहास
स्वतन्त्रता आन्दोलन में चम्पारण के नील आन्दोलन ने उत्प्रेरक की भूमिका निभायी, पूरे स्वतंत्रता संग्राम को एक निर्णायक मोड़ दिया. किसानों द्वारा नील की खेती के विरोध की मूल वजह यही थी न कि किसानों को अंग्रेजों की मर्जी से खेती करनी पड़ती थी. अंग्रेजी सरकार चाहती थी कि किसान को नियंत्रण में रखा जाय. फिलहाल जिन मंडियों को बचाने की बात आन्दोलनकारी किसान कर रहे हैं उससे जुड़ा APMC एक्ट 150 वर्ष पहले अंग्रेजों का बनाया हुआ था. अंग्रेजों को मैनचेस्टर के वस्त्र उद्योग के लिए रुई की जरुरत थी इसलिए तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने यह एक्ट बनाया और किसानों को मजबूर किया कि वे अपने कपास की फसल मंडियों में ही बेचें. फसल बिक्री की नियमावली किसानों के शोषण के लिए जमींदारी-जागीरदारी व्यवस्था की तर्ज पर कमीशन एजेंटों की प्रभावी भूमिका तय की गयी. जिसे अंग्रेजों ने ही बनाया था. ये पूरी तरह ब्रिटिश शासन की स्वार्थपूर्ति का मामला था. और वही क़ानून अबतक चला आ रहा है, रूप बदल गया है कहीं–कहीं. अब जबकि किसान जागरूक हुए हैं, मंडियों की कमीशनखोरी से त्रस्त हैं तो इनसे आज़ादी की मांग करने लगे हैं. कई बार ये मांग हुई है, लगभग हर राजनीतिक दल के एजेंडे में शामिल रहा है ये. अब बात होने लगी है कि किसान की उपज मंडी में ही क्यों जाए जहां उसके शोषण के दसियों उपकरण बने हुए हैं. किसान को अपनी पसंद से कारोबार करने और खरीददार चुनने की आज़ादी क्यों नहीं?
कैसे परेशानियों से मुक्त होंगे किसान ?
लेकिन मोदी सरकार द्वारा बनाए गए तीन नए कृषि कानूनों के जरिये अब जब किसानों के मुक्त होने की बारी आयी है तो स्वार्थी तत्व चाहते हैं कि किसान मुक्त न हो सकें. नए कृषि कानूनों में तो उनके पास विरोध के लायक कुछ है भी नहीं, इसलिए वे मुद्दे को ही भटकाने में लगे हैं. कभी MSP की गारंटी, कभी पराली जलाने का मामला, तो कभी एक्टिविस्ट्स की रिहाई का मामला. सरकार वार्ता करना चाहती है तो जिद होती है कि सारे के सारे एक साथ बैठेंगे और उनमें मतैक्य होगा नहीं, तो कुल मिलाकर कोशिश ये है कि किसानों और सरकार के बीच सुलह के सारे रास्ते बंद कर दिए जायें. इसमें कोई बड़ी बात नहीं कि कुछ विघ्नसंतोषियों को इंतज़ार हो कि कोई हिंसा हो और मूल मुद्दा गायब हो जाये, साथी ही उन्हें अपना एजेंडा आगे बढ़ाने का मौक़ा मिल जाये. आन्दोलनकारी तीनों नए कृषि क़ानून रद्द कराने पर अड़े हैं, सरकार से हां या न में जवाब चाहते हैं. सरकार भी कह सकती थी कि क़ानून मूल रूप में ही लागू होगा, आन्दोलनकारी हां या ना में जवाब दें. तब तो बीच का यानि बातचीत का रास्ता ही बंद हो जाता. ये सवाल भी पूछा जा सकता था कि इसको लागू करने में आपको क्या दिक्कत है? लेकिन सरकार ने बड़ा दिल दिखाया और किसानों की तमाम मांगे सुनीं, जहां वाजिब लगा संशोधन का भरोसा दिया. उन मांगों पर भी जिनका नए कृषि कानूनों से कोई लेना-देना नहीं था. चाहे वो बिजली का मामला हो या पराली जलाने का, सरकार जिद कर सकती थी कि हम सिर्फ नए कृषि कानूनों के बारे में ही बात करेंगे.
आन्दोलनकारियों ने शुरुआत में सिर्फ आठ मांगें रखीं, उसमें भी वारवरा राव जैसे खुलेआम नक्सलियों से सहानुभूति रखनेवाले कवि सहित कई एक्टिविस्ट्स को रिहा करने की बात कही. इन विषयों पर अलग से छिटपुट आन्दोलन चल रहे हैं, अभी भी अलग से करें, किसने रोका है. किसानों के मुद्दों में इन मुद्दों की मिलावट क्यों? नए तीन कृषि कानूनों से स्टेन स्वामी या वारवरा राव का क्या सम्बन्ध? सरकार संयम दिखा रही थी, बातचीत चल रही थी इसलिए जान बूझकर भी चुप थी लेकिन मीडिया के जरिये ये मिलावट सामने आ ही गयी.
अबतक क्या कुछ हुई बातचीत ?
वार्ता करने का तरीका भी स्वस्थ परम्परा का द्योतक नहीं, कुछ लोग ही नहीं – सभी लोग जायेंगे. कोई छूट न जाये, ये दर्शाता है कि इन लोगों को आपस में भी एक दूसरे पर विश्वास नहीं है. सबके अपने-अपने अलग-अलग एजेंडे हैं. हो सकता है इसमें कुछ ऐसे समूह भी होंगे जिनका एजेंडा केवल और केवल मोदी विरोध होगा. जो भी बातचीत अबतक हुई है उसमें नए कृषि कानूनों से दिक्कत क्या है, इसपर तो कोई बात करने को तैयार ही नहीं था. ऊपर से सुर्खियाँ पाने के लिए, जमीन पर बैठकर खाना, गुरुद्वारे से इनके लिए भोजन और चाय आना, सिखों के नाम पर आन्दोलन करना, विदेशों में खालिस्तान के मुद्दे पर प्रदर्शन. बताईये, कहां कृषि क़ानून और उसे कौन सा रंग दिया जा रहा है? इसका आयाम अनायास बड़ा नहीं हो रहा है, ये एक सोची समझी साजिश का हिस्सा लगने लगा है.
झारखण्ड के संदर्भ में किसान
अब बात किसानों के असली मुद्दे पर और सन्दर्भ झारखण्ड का. देश में इतना अनाज उपज रहा है तो एक ही राज्य से ही सारी खरीद क्यों हो? झारखण्ड जैसे राज्यों को सोचना होगा. अगर FCI अपनी कुल खरीद का 10 से 5 फीसदी भी झारखण्ड से ले तो राज्य के सभी किसान MSP पर फसल बेच पायेंगे और इनकी दशा सुधर जायेगी. झारखण्ड में धान में नमी बताकर खरीद रोकी गयी है तो ये क्यों नहीं माना जाये कि राज्य सरकार ने पंजाब में MSP पर खरीद को बढ़ावा देने के लिए यहां पर खरीद को रोक दिया है.
झारखण्ड के किसान 1000 से 1200 रुपये प्रति क्विंटल तक धान बेचने को मजबूर हैं, MSP राज्य का मुद्दा, APMC की यहां कोई समस्या नहीं, राज्य सरकार ईमानदारी से काम करे तो यहां के किसानों की आमदनी तो वैसे भी दोगुनी हो जायेगी. लेकिन इतना खाद्यान्न राज्य सरकार खरीद नहीं पायेगी. पिछले साल का पैसा अबतक नहीं दिया गया ऐसी ख़बरें मीडिया में आ रही थीं.
सरकार या FCI द्वारा खाद्यान्न खरीद की एक सीमा है, MSP पर धान की खरीद होती है और इसका चावल PDS के जरिये गरीब जनता तक रियायती दर पर पहुंचता है. अगर सरकार ही MSP के जरिये देश की कुल उपज खरीदने लगे तो बड़ी बात नहीं कि देश का पूरा बजट भी कम पड़ जाय. MSP मार्केट सपोर्ट मैकेनिज्म है, ताकि किसानों को उसकी उपज का वाजिब मूल्य मिल सके, आर्थिक समर्थन मिल सके. खाद्यान्न का उत्पादन बढ़ा है, खुले बाज़ार में बेचेंगे तो किसान को प्रतियोगिता के कारण वाजिब दाम नहीं मिलेगा, उसके आर्थिक हितों की सुरक्षा नहीं हो पायेगी. निजी क्षेत्र को शामिल करने की वजह ये है कि यदि झारखण्ड का किसान धान छोड़कर कोई दूसरी खेती फसल उगाना चाहे तो उसे वाजिब दाम पर फसल की बिक्री का आश्वासन मिल सके. ये काम सरकार अकेले नहीं कर सकती, निजी क्षेत्र कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के जरिये ये भरोसा किसानों में पैदा कर सकते हैं.
किसानों को आर्थिक समर्थन देने के नाम पर सरकारें ऋण योजनायें लाती हैं. लोन बांटने के वक्त किसान भ्रष्टाचार का शिकार होता है, और चुका नहीं पाता तो कुछ सालों के बाद लोन माफी का दौर शुरू होता है. किसान एक बार फिर बिचौलियों का शिकार बनता है. जिसने चुका दिया, उसे कोई फायदा नहीं. किसान का शोषण भी होता है और सरकारी रकम की लूट भी होती है.
बीच का एक रास्ता और है, खुला हुआ है. बतौर मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान ने अपने पिछले कार्यकाल में ही भावान्तर योजना की शुरुआत की थी. किसान की कृषि योग्य भूमि और उसमें होनेवाली उपज का आकलन कर, उसे उस फसल के न्यूनतम समर्थन मूल्य और बाज़ार मूल्य के अंतर का भुगतान सीधे उसके खाते में कर दी जाती है. किसान खुले बाज़ार में अपनी फसल बेचता है और उसे कोई आर्थिक नुकसान नहीं होता, एमएसपी का लाभ मिल जाता है. झारखण्ड सरकार वाकई में किसानों की आर्थिक सुरक्षा के लिए चिंतित है तो इसे झारखण्ड में लागू करे.
प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने इससे अलग भी एक पहल की, खेती किसान को घाटे का सौदा न लगे, उसके घाटे की भरपाई हो सके, उसके पास खाद-बीज के लिए नकदी हो, इसके लिए भारत सरकार ने देश के हर किसान को सालान 6000 रूपये का नकद समर्थन डीबीटी के जरिये देना शुरू किया. इसका और विस्तार करते हुए झारखण्ड की पूर्ववर्ती रघुवर दास सरकार ने किसानों को सालाना प्रति एकड़ 5000 रुपये देना शुरू किया, पांच एकड़ तक यानि 25000 के भुगतान की अंतिम सीमा तय की. कल्पना कीजिये कि पांच एकड़ जोत वाले किसान को अगर सालाना 31 हजार रूपये सरकार की ओर से मिल जाते हैं तो एमएसपी पर फसल न बेच पाने और बैंक से लोन न मिलने के बावजूद वो आर्थिक तौर पर कितना सुदृढ़ होता. लेकिन झारखण्ड की नयी सरकार ने कामकाज संभालते ही इस योजना को बंद कर दिया और किसान आन्दोलन की हिमायती भी बन रही है.
निष्कर्ष
कुल मिलाकर, किसान आन्दोलन को मुद्दों के भटकाव से बचाना जरुरी हो गया है, किसानों की जरूरतों पर ईमानदार विमर्श जरुरी हो गया है और किसान आन्दोलन को विघ्नसंतोषी ताकतों के खतरनाक इरादों से अलग करना जरुरी हो गया है. स्वाभाविक तौर पर ये जिम्मेवारी किसान आन्दोलन से जुड़े वास्तविक किसान नेताओं को ही लेनी होगी. जरुरी नहीं कि दिल्ली घेरकर ही, झारखण्ड के किसान अपने खेतों में खड़े होकर भी किसान हित के असली मुद्दों पर मजबूती से अपनी बात रखने की शुरुआत करें.
( ये मेरे निजी विचार हैं )