श्याम किशोर चौबे
अपनी स्थापना के 22वें वर्ष का अंत आते-आते झारखंड राजनीति की सलीब पर टंग गया. 23वें वर्ष के गुजरे 48 घंटे जिस सियासी सनसनी में पगे-सने रहे, वह बता रहा है कि अभी बहुत कुछ होना बाकी है. इसी दौर में कथित हजार करोड़ के माइनिंग घोटाले में सफाई देने मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी के दफ्तर में हाजिर हुए. देश में यह पहला वाक्या है, जब कोई मुख्यमंत्री ईडी के समक्ष पेश हुआ. इसके ठीक पहले हेमंत ने मेल और दूत से तीन पन्ने की सफाई भिजवा दी थी. उनकी इस पेशी से 48 घंटे पहले झारखंड स्थापना दिवस का राजकीय समारोह आयोजित किया गया था, जिसमें शामिल होने की हामी के बावजूद राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने दूरी बना ली थी. ऐसा उस राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने किया, जो कुछ ही अरसा पहले तक इस राज्य की राज्यपाल हुआ करती थीं. वही माननीया द्रौपदी मुर्मू झारखंड स्थापना और बिरसा मुंडा के जन्म दिवस के दिन 15 नवंबर को रांची पधारीं, बिरसा के गांव-घर उलिहातू गईं, लेकिन उस मोरहाबादी मैदान में नहीं गईं, जिसमें राज्यपाल रहते कई मर्तबा जा चुकी थीं. इसी मैदान में झारखंड स्थापना दिवस का मुख्य समारोह प्रस्तावित था. 13 नवंबर को ही यह स्पष्ट हो गया था कि वे झारखंड के इस सालाना जलसे में शिरकत नहीं करेंगी.
राष्ट्रपति तो राष्ट्रपति, राज्यपाल रमेश बैस ने भी ऐन वक्त पर इस राजकीय समारोह से मुंह मोड़ लिया. झारखंड में प्रतिपक्षी किंतु केंद्र में गद्दीनशीं भाजपा का कहना था कि राज्य स्थापना दिवस के दिन 15 नवंबर को प्रकाशित सरकारी विज्ञापनों में राज्यपाल की तस्वीर नहीं रहना अपमानजनक है. मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के स्टोन माइनिंग लीज प्रकरण में चुनाव आयोग का मंतव्य राजभवन द्वारा जाहिर न किये जाने का मामला 14 नवंबर को हाईकोर्ट में ले जाने की घटना ने भी दोनों के बीच की दूरी कोसों में बदल दी.
दिल्ली और रांची के संबंध तो उसी दिन से खराब हो गये थे, जब तीन प्रायः तीन वर्ष पहले झारखंड की सत्ता पर महागठबंधन काबिज हो गया था. महागठबंधन और खासकर इसमें बड़े भाई की भूमिका अदा कर रहे झामुमो तथा प्रतिपक्षी भाजपा के बीच अक्सर जुबानी जंग ही नहीं, कार्य-व्यवहार में भी दुश्मनागत खुलकर सामने आती रही. दोनों ओर से, शक्ति-सामर्थ्य के अनुसार केस-मुकदमों और जांच के नाम पर कार्रवाई का सिलसिला चलाया जाता रहा. महागठबंधन आरोप लगाता रहा कि भाजपा उसकी सरकार गिराने के तमाम हथकंडे आजमा रही है तो भाजपा कहती फिरी कि बदले की भावना से हेमंत सरकार काम कर रही है. दोनों के तर्क और करतब मूकदर्शक की नाईं देखता रहा झारखंड.
इसी वर्ष मई से ईडी की ताबड़तोड़ कार्रवाई और अब आयकर की भी सक्रियता ने महागठबंधन में उबाल ला दिया है, जबकि भाजपा सुमिरनी फेरती रही ‘जस करनी तस भोगउ ताता’. इस बीच दो कांग्रेस विधायकों के ठिकानों पर आईटी रेड और उसके पहले ईडी द्वारा सत्ता प्रतिष्ठान के कतिपय करीबियों की गिरफ्तारी ने तरह-तरह की चर्चाओं और शंका-आशंकाओं को जन्म दिया. ऐसे ही माहौल में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को सवाल-जवाब के लिए ईडी कार्यालय में तलब किए जाने से महागठबंधन का पारा चढ़ गया. सत्ता से जुड़े लोगों/दलों के लिए यह घटना अनिश्चितता का सबब बन गयी है. नवंबर की पहली तारीख को जब ईडी ने हेमंत को समन भेजा था, तभी 11 नवंबर को विधानसभा का विशेष सत्र बुलाने का सरकार ने फैसला कर लिया. इसी सत्र में उसने 1932 की खतियानी नीति और ओबीसी, एससी, एसटी के लिए आरक्षण बढ़ोतरी के दो ऐसे विधेयकों का पासा फेंका, जिस पर चाहकर भी भाजपा हाय तक न कर सकी. इन विधेयकों में केंद्र की सहमति के बिंदु जोड़कर महागठबंधन ने राजनीतिक तौर पर भाजपा को बुरी तरह फंसा दिया है.
केंद्रीय जांच एजेंसियों की कार्रवाइयों के एंगल और राज्य स्थापना दिवस समारोह से राष्ट्रपति/राज्यपाल की किनाराकशी के सापेक्ष मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के दो बयान काबिलेगौर हैं. 11 नवंबर को विधानसभा के विशेष सत्र में उनकी ललकार ‘ईडी-उडी से क्या डराते हो…हम जेल में रहकर भी भाजपा का सूपड़ा साफ कर देंगे’ तथा राज्य स्थापना दिवस समारोह में उनका कथन ‘20-21 वर्ष तक इस राज्य को भगवान भरोसे छोड़ दिया गया था, लेकिन अब झारखंड अपने बलबूते खड़ा होगा’ काफी मायने रखता है. जेल में रहकर भी भाजपा को साफ करने की बात से उनके मन की शंका-आशंका झलकती है, जबकि अपने बलबूते झारखंड को खड़ा करने की घोषणा केंद्र के प्रति बेपरवाही दर्शाती है. दोनों ही बातें कितनी असरदार होंगी, यह अभी कौन बता सकता है?
राज्य स्थापना दिवस समारोह की अकेली घटना के माध्यम से भाजपा ने अपनी ओर से हेमंत के बहाने झामुमो को वैसे ही अछूत बनाने की कोशिश की, जैसे आठ वर्षों से वह नेहरू-गांधी परिवार के बहाने कांग्रेस को कर चुकी है. सत्ता का संचालन राजनीति के माध्यम से होता है और जब सभी अंग, जिसमें मुख्यमंत्री हों कि राज्यपाल, प्रधानमंत्री हों कि राष्ट्रपति या अन्य कोई पदधारक और संघटन, सही दिशा में काम करते हैं, तो सबका भला होता है. इस सोच के लिए व्यक्तिगत और दलगत भावना से ऊपर उठना पड़ता है. इसी बात की अब पूरे देश में स्पष्ट कमी झलकती है. अवाम की भेड़चाल में अवांतर मुद्दे हावी कर दिये जाते हैं, वे चाहे जाति-संप्रदाय से जुड़े हों कि ‘32 की खतियानी नीति या आरक्षण की मृग मरीचिका ही क्यों न हो! आज न कल, झारखंडियों को सोचना ही होगा कि बेमिसाल कुदरती नेमतों से मालामाल इस राज्य की बदनामियों में किस-किसने अपने तईं कसर बाकी न रखी.
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