Shekhar Pathak
जोशी मठ उच्च हिमालय का इलाका है, जो विष्णुप्रयाग के संगम पर स्थित है. वहां एक तरफ विष्णुगंगा बहते हुए आती है, जिसे अलकनंदा भी कहते हैं. दूसरी तरफ से धौली नदी आती है, जिसमें नंदादेवी से आने वाली ऋषिगंगा भी मिल जाती है. पंचप्रयागों में पहला प्रयाग यही है, जो जोशीमठ की जड़ पर है. तकनीकी रूप से अलकनंदा की शुरुआत यहीं से होती है. ये दो नदियां दो अलग-अलग घाटियां बनाती हैं. दोनों घाटियां तिब्बत को जाती हैं. एक रास्ता कैलाश मानसरोवर के तीर्थ की ओर जाता है. दूसरा बदरीनाथ की ओर जाता है. इन घाटियों के गांवों में भोटिया समुदाय के लोग रहते हैं, जो इन्हीं रास्तों से तिब्बत के साथ व्यापार करते थे.
जोशीमठ के दोनों तरफ दो नेशनल पार्क हैं. इन्हें यूनेस्को ने प्राकृतिक विरासत का दर्जा दिया है. एक ओर नंदादेवी नेशनल पार्क है. दूसरी तरफ फूलों की घाटी है. बासठ के युद्ध के बाद बड़ा अंतर हिमालय को लेकर भारत सरकार के नजरिये में आया. यहां सेना की तैनाती शुरू हो गई. इसके बाद जोशीमठ को सेना की छावनी बना दिया गया. इसी बीच आइटीबीपी (भारत तिब्बत सीमा पुलिस) की स्थापना हुई और उसका मुख्यालय भी यहीं बनाया गया. जिन भोटिया लोगों का जीवन युद्ध के बाद व्यापार ठप होने के कारण ठहर चुका था, उन्होंने अपनी संपत्ति और धर्म का इस्तेमाल करते हुए जोशीमठ को ही अपना घर बना लिया. इस तरीके से जोशीमठ एक छोटी सी रिहाइश से अहम प्रवेश द्वार के रूप में तब्दील हो गया.
बहुत पहले दो विदेशी गुरु-शिष्य यहां स्विट्जरलैंड से आए थे. गुरु का नाम था आर्नोल्ड हाएम और शिष्य का नाम था ऑगस्टो गैन्सर. दोनों बहुत मशहूर भूगर्भविज्ञानी थे. इन्होंने 1936 में ही हिमालय की यात्रा की और पहली बार उच्च हिमालय के भूगर्भशास्त्र का काफी विस्तार से अध्ययन प्रकाशित किया. उस ग्रंथ का नाम था ‘सेंट्रल हिमालयन जियोलॉजी’, जो 1939 में छपा. इस अध्ययन में इन्होंने पहली बार बताया था कि हिमालय में जो मुख्य दरार है, वह जोशीमठ के क्षेत्र में है. इन दोनों ने हिमालय का एक बेहतरीन यात्रा वृत्तान्त भी लिखा है, ‘द थ्रोन ऑफ द गॉड्स’. जोशीमठ के ताजा संदर्भ में लोगों को यह किताब जरूर पढ़नी चाहिए. इनसे पहले भी अंग्रेजों ने गजेटियर में साफ-साफ लिखा था कि जोशीमठ एक पुराने और बहुत बड़े लैंडस्लाइड वाले इलाके में बसी हुई बसावट है. चूंकि यहां छोटे-छोटे मकान होते थे और एक सड़क थी, जो चुपचाप बदरीनाथ तक चली जाती थी, तो इलाके पर बहुत बोझ नहीं था. इसीलिए इन बातों पर पहले किसी ने ध्यान भी नहीं दिया.
जिस तरह से जोशीमठ में सड़कें बनाई गई थीं, उन्हें सबसे पहले 1970 में अलकनंदा में आई बाढ़ ने चुनौती दी. पूरी घाटी को इस बाढ़ ने बहा दिया. गौना झील टूट गई. उससे इतनी गाद आई कि हरिद्वार की अपर गंगा नहर कई किलोमीटर तक मलबे से भर गई. उसे साफ करने पर करोड़ों रुपये खर्च हुए. इस बाढ़ ने हमारे समाज और स्थानीय संस्थाओं को विवश कर दिया कि वे बाढ़ के साथ जंगलों की कटान के रिश्ते को समझें. उस समय चिपको आंदोलन चल रहा था. उसने अध्ययन करके बताया कि अलकनंदा के कैचमेंट में कितना जंगल कटान आया था और कैसे बाढ़ आई. आगे चिपको आंदोलन के कई परिणाम आए. 1980 में वन संरक्षण कानून आया, जिसमें साफ कहा गया कि कोई भी वनभूमि दूसरे काम में इस्तेमाल नहीं की जाएगी. दूसरा नतीजा यह रहा कि एक हजार मीटर से ऊपर के हरे पेड़ नहीं काटे जाएंगे. इसके बाद जब विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार केंद्र में आई तो कंपनियों को कच्चे माल के लिए वनोत्पाद के ठेके रद्द कर दिए गए. इसके बाद पर्यावरणीय कानून आदि बनने शुरू हो गए, जो सामाजिक आंदोलनों आदि का प्रभाव रहा. तब तक सरकार भी संवेदनशील थी. तब तक कोई पनबिजली परियोजना हमारे यहां नहीं हुआ करती थी.
1980 में पहली बार बदरीनाथ से आ रही विष्णुगंगा नदी पर एक पनबिजली परियोजना बनाने की बात सरकार की ओर से आई. इस परियोजना पर चिपको आंदोलन के अगुआ चंडीप्रसाद भट्ट और दो-तीन बड़े वैज्ञानिकों ने काफी अध्ययन किया और यह पता लगाया कि सर्दियों में विष्णुगंगा, उसकी धाराओं और पुष्पावती का डिसचार्ज कितना रहता है. इस आधार पर उन्होंने कई लेख लिखे. चिपको आंदोलन की ओर से जब बाकायदा वैज्ञानिक तरीके से परियोजना को चुनौती दी गई तो तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बहुत संजीदगी के साथ इसे सुना और विष्णुगंगा परियोजना को रद्द कर दिया. साथ में साइलेंट वैली की एक परियोजना को भी रद्द कर दिया गया. ये सब अस्सी में होने के बाद लंबे समय तक चीजें टली रहीं.
जोशीमठ की संघर्ष समिति शुरू से ही इसका विरोध कर रही थी. उसने तीन वैज्ञानिकों की अपनी कमेटी बनाई- नवीन जुयाल, एसपी सती और शुभ्रा शर्मा. इन वैज्ञानिकों ने 2010 में ही अपनी रिपोर्ट दे दी थी. उससे पहले यह बताना जरूरी है कि 1970 की बाढ़ के बाद बार-बार यह आशंका जाहिर की जा रही थी कि जोशीमठ धंस जाएगा.
आखिर विज्ञान के आने से पहले भी तो यहां लोग थे? हमारे यहां जो मंदिरों की वास्तुशैली है, तीर्थ हैं, उनके पीछे एक खास किस्म के भूगोल की भूमिका है. उत्तराखंड के लोगों का दुर्भाग्य है कि उन्होंने इकोलॉजी और हिंदू का मतलब ही नहीं समझा. आप प्रकृति को नष्ट करेंगे तो संस्कृति कहां बच पाएगी. अकेले जोशीमठ ही नहीं, कर्णप्रयाग के मकान भी धंस रहे हैं. आगे इसके बुरे नतीजे और दिखेंगे क्योंकि विकास का भ्रम औसत लोगों को उतना नहीं है जितना ठेकेदारों ने उसका इस्तेमाल किया है. सुप्रीम कोर्ट की गलतियों को भी नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए. यह इकोलॉजी का सवाल है. पूरे उत्तरी भारत को इसके परिणाम भुगतने पड़ेंगे, इसलिए यह अक्षम्य है.
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.