Praveen Kumar
अबुआ:दिशोम अबुआ:राज का सपना जगानेवाला उलगुलान का नायक बिरसा
बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1874 को चलकद ग्राम में हुआ. कुछ इतिहासकार उलीहातू को बिरसा मुंडा की जन्मस्थली बताते हैं, लेकिन उलीहातू उनका पैतृक गांव था. बिरसा का बचपन अपने नाना के गांव चलकद में ही बीता. सन 1886 में बिरसा को जर्मन ईसाई मिशन द्वारा संचालित चाईबासा के एक उच्च विद्यालय में बिरसा दाऊद के नाम से दाखिल कराया गया. बिरसा आदिवासियों के भूमि आंदोलन के समर्थक थे तथा वाद-विवाद में में हमेशा आदिवासियों की जल, जंगल और जमीन पर हक की वकालत करते थे. पादरी डॉक्टर नोट्रेट ने स्वर्ग के राज्य का हवाला देते हुए कहा कि यदि वे लोग ईसाई बने रहे तो और उनके अनुदेशों का पालन करते रहे, वे तो मुंडा सरदारों की छीनी हुई भूमि को वापस करा देंगे.
लेकिन 1886-87 में मुंडा सरदारों ने जब भूमि वापसी का आंदोलन किया तो इस आंदोलन को न केवल दबा दिया गया, बल्कि ईसाई मिशनरियों द्वारा इसकी भर्त्सना की गयी. बिरसा मुंडा को इससे गहरा आघात लगा. बिरसा मुंडा ने डॉक्टर नोट्रेट के समक्ष मिशनरियों के इस हरकत को खुलेआम प्रतिरोध किया. इस घटना के बाद उनके मन में ईसाइयों और अंग्रेजों के खिलाफ प्रतिरोध की भावना जागृत हो गयी. उनके विरोध को देखते हुए उन्हें विद्यालय से निकाल दिया गया. 1890 में बिरसा तथा उनके पिता चाईबासा से वापस आ गये.
18 86 से 1890 तक चाईबासा मिशन के साथ रहना बिरसा के व्यक्तित्व का निर्माण काल था. 1890 में चाईबासा छोड़ने के बाद बिरसा और उनके परिवार ने जर्मन ईसाई मिशन की सदस्यता छोड़ दी, क्योंकि मुंडाओं/सरदारों का आंदोलन मिशन के विरुद्ध था और लूथरन चर्च तथा कैथोलिक मिशन ने आंदोलन का विरोध किया था. मुंडाओं ने ईसाई धर्म इसलिए अपनाया कि ईसाईयों ने यह भरोसा दिलाया था कि यदि वे ईसाई धर्म अपने लेंगे अपना लेंगे, तो उनकी छीनी गई भूमि और विरासत उन्हें वापस दिला दी जाएगी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. बिरसा ने मन ही मन यह संकल्प लिया कि वे मुंडाओं का शासन वापस लाएंगे तथा अपने लोगों में जागृति पैदा करेंगे.
बिरसा मुंडा ने अंग्रेजी शासन के खिलाफ उलगुलान का आह्वान कर दिया. उन्होंने जल, जंगल और जमीन का टैक्स जमींदारों तथा अंग्रेजी हुकूमत को नहीं देने का एलान किया. अंग्रेजी हुकूमत नाराज हो गयी. प्रधान कांस्टेबल को आदेश मिला कि वह चलकद जाये और बिरसा को गिरफ्तार कर लें. 9 अगस्त, 1895 को बिरसा चलकद में गिरफ्तार कर लिये गये. लेकिन गांव वालों ने उन्हें छुड़ा लिया तथा हेड कांस्टेबल तथा उनके सिपाहियों को भगा दिया. 14 अगस्त, 1895 को पुनः बिरसा को गिरफ्तार करने का प्रयास किया गया, लेकिन बिरसा के समर्थकों के प्रतिरोध के कारण पुलिस लौट आई. 18 अगस्त, 1895 को हेड कांस्टेबल ने थानेदार की इसकी रिपोर्ट की.
पुलिस को भगाने की घटना से बिरसा पर आदिवासियों का विश्वास जम गया. विद्रोह की आग धीरे-धीरे पूरे छोटानागपुर में फैलने लगी. लोगों को विश्वास होने लगा कि बिरसा मुंडा भगवान के दूत के रूप में उन्हें मुक्ति दिलाने के लिए स्वर्ग से आये हैं. इस विद्रोह ने अंग्रेजी हुकूमत को झकझोर दिया. 22 अगस्त, 1895 को अंग्रेज अधिकारियों ने बिरसा को पकड़ने के लिए बैठक की. जिला पुलिस अधीक्षक जीआरके मेयर्स को दंड प्रक्रिया संहिता 353 और 505 के तहत बिरसा मुंडा को गिरफ्तार करने का आदेश दिया गया. अगली सुबह बाबू जगमोहन सिंह सशस्त्र पुलिस बल लेकर बिरसा मुंडा को गिरफ्तार करने चल पड़े.
पुलिस पार्टी 8.30 बजे सुबह रांची से निकली एवं 3.00 बजे शाम को पहुंची.
उन्होंने चुपके से उस घर को घेर लिया, जिसके एक कमरे में बिरसा मुंडा सो रहे थे. उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. शाम 4.00 बजे उन्हें रांची में डिप्टी कलेक्टर के सामने पेश किया गया. जब उन्हें रांची लाया जा रहा था, तो उनके पीछे हजारों आदिवासियों की भीड़ थी. अंग्रेज अधिकारी को आशंका थी कि उग्र भीड़ कोई उपद्रव न कर बैठे, लेकिन बिरसा मुंडा ने भीड़ को समझाया. बिरसा के खिलाफ मुकदमा चला. राजद्रोह के लिए लोगों को उकसाने के आरोप में उन्हें 5 रुपया जुर्माना तथा 2 वर्ष कारावास की सजा दी गयी. 30 नवंबर के दिन बिरसा को रांची जेल से छोड़ दिया गया.
जेल से निकलने के बाद बिरसा मुंडा ने राजनीतिक आंदोलन के साथ-साथ धार्मिक सुधार पर भी ध्यान दिया. वह लोगों को जीव हत्या न करने, नशे से दूर रहने, सादा जीवन व्यतीत करने तथा अपनी परंपरा को बनाये रखने का प्रवचन देने लगे. बिरसा मुंडा के अनुयायियों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती गई. 24 दिसंबर, 1899 को सिंहभूम जिले के चक्रधरपुर और रांची जिले के खूंटी तोरपा, तमाड़ और बसिया थाना क्षेत्रों में उलगुलान की आग धधक उठी. क्रांतिकारियों ने ईसाइयों के घरों और गिरजा घरों में तीर चलाये. बसिया में इसाई मिशन पर तीरों की बौछार की गयी. इस विद्रोह का मुख्य केंद्र खूंटी थाना क्षेत्र था.
विद्रोह को कुचलने के लिए रांची के डिप्टी कमिश्नर 6 जनवरी, 1900 को दिन के 11.00 बजे सशस्त्र सिपाहियों के साथ बिरसा के सबसे विश्वस्त सहयोगी गया मुंडा के घर पहुंचे. गया मुंडा एवं उनकी पत्नी ने अंग्रेजी सिपाहियों का जमकर मुकाबला किया. गया मुंडा के कंधे में गोली लगी. उनकी पत्नी का सिर फट गया था. बड़ी मुश्किल से गया मुंडा को गिरफ्तार किया गया. उनकी गिरफ्तारी के बाद आंदोलन चरम पर पहुंच गया.
7 जनवरी, 1900 के दिन बैठक के बाद विद्रोहियों ने करीब 10.00 बजे दिन में खूंटी थाना पर हमला कर दिया. थाने में घिरे कांस्टेबलों ने आगे बढ़ती भीड़ पर गोली चलायी. पर गोली किसी को नहीं लगी. इससे बिरसा के अनुयायियों को यह विश्वास हो गया कि बिरसा भगवान हैं और उनकी वाणी सत्य है. उन पर चली गोली नाकामयाब हो जायेगी, इस भावना से भरे विद्रोहियों ने एक सिपाही की हत्या कर दी. सिपाही की हत्या ने ब्रिटिश सरकार को हिला दिया. 9 जनवरी, 1900 को डोंबारी से कुछ दूर स्थित सायको से करीब 3 मील उत्तर में सैल रैकब पहाड़ी पर विद्रोही पारंपरिक हथियारों से साथ सभा के लिए जुटे थे. तभी पुलिस वहां पहुंच गयी. बिरसा मुंडा का दूसरे सबसे बड़े भक्त नरसिंह मुंडा ने पुलिस को ललकारते हुए हथियार डालने को कहा. इस पर अंग्रेजी सेना ने भीड़ गोलियां बरसायीं. इतिहासकार इस झड़प में 40 से लेकर 400 की संख्या में मुंडाओं के मारे जाने की बात कहते हैं. बाकी विद्रोहियों को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया.
3 फरवरी, 1900 को 5 रुपये के सरकारी इनाम के लालच में जीराकेल गांव के सात लोगों ने बिरसा मुंडा के छिपे होने का पता अंग्रेजों को बता दिया. बिरसा गिरफ्तार कर लिये गये. लेकिन वह आदिवासियों की आंखों में अबुआ:दिशोम अबुआ:राज का सपना जगा गये.
3 फरवरी, 1900 का दिन. आगे-आगे अंग्रेज पुलिस के सिपाहियों से घिरे बिरसा चल रहे थे. पीछे-पीछे हजारों की भीड़. जिस रास्ते से बिरसा को खूंटी से रांची ले जाया जा रहा थी. बिरसा के अनुयायी बड़ी संख्या में उनका अभिवादन करने खड़े थे. जिस बिरसा को पूरी अंग्रेज फौज नहीं पकड़ पायी थी, उसे लालच ने पकड़वा दिया. 5 रुपये के सरकारी इनाम के लालच में जीराकेल गांव के सात लोगों ने अंग्रेजों को बिरसा मुंडा के गुप्त स्थान का पता दे दिया था. उलगुलान का नायक गिरफ्त में था.
1 जून, 1900 को डिप्टी कमिश्नर ने एलान किया कि बिरसा मुंडा को हैजा हो गया है. उनके जीवित रहने की कोई संभावना नहीं है. अंततः 9 जून, 1900 को जेल में बिरसा ने अंतिम सांस ली. लेकिन वे आदिवासियों की आंखों में एक सपना जगा गये. यह सपना था- “अबुआ:दिशोम रे अबुआ:राज” कायम होगा और दिकूओं (शोषकों) का राज्य समाप्त हो जायेगा. अंग्रेजी शासन के खिलाफ उलगुलान करनेवाले, अंग्रेजों के शोषण नीति और असह्य परतंत्रता से भारत को मुक्त करनेवाले महापुरुषों की एक कड़ी का एक अहम नाम है भगवान बिरसा मुंडा.






