Girish Malviya
केंद्र सरकार कह चुकी है कि उनकी तरफ से जनवरी में कोरोना वैक्सीन को भारत में अनुमति मिल जाएगी. लेकिन ध्यान देने वाली बात यह है कि अनुमति के संदर्भ में अभी एक टर्म इस्तेमाल की जा रही है, जो हैं EUA या इमरजेंसी यूज ऑथोराइजेशन. इस टर्म को बहुत ध्यान से समझ लेना चाहिए कि आखिरकार यह EUA क्या है ?
जब किसी बिना मंजूरी वाली दवाओं या टीके या स्वीकृत दवाइयां या टीके जिन्हें आपात स्थिति में गंभीर या जानलेवा बीमारियों, इलाज या रोकथाम के लिए नियामक द्वारा मार्केटिंग का अधिकार दिया जाता है, तब उसे ही EUA कहा जाता है. यहां एक बहुत महत्वपूर्ण बात जान लेना आवश्यक है कि आज तक किसी भी वैक्सीन को इमरजेंसी यूज ऑथोराइजेशन नहीं दिया गया है. यह पहली बार है जब किसी वैक्सीन का इमरजेंसी यूज ऑथोराइजेशन मांगा जा रहा है.
आज से पहले एक टीका तैयार करने के लिए अनुसंधान में कई साल लगते थे और डेटा एकत्र करने के साथ-साथ लंबी अवधि में इनका विश्लेषण किया जाता था. यह कोरोना काल के पहले की बात है. इसलिए इससे पहले कोई ऐसा टीका नहीं बना जिसे ईयूए दिया गया है.
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वैक्सीन के इतिहास को देखें, तो अब तक गलसुआ या कंठमाला के रोग (मम्प्स) का वैक्सीन ही सबसे तेज अप्रूव हुआ था. 1960 के दशक में इसके अप्रूवल में साढ़े चार साल लगे थे.
अब जो भारत मे इमरजेंसी अप्रूवल की बात की जा रही है वह अमेरिका से कितना अलग है वो समझ लीजिए.
यूएस एफडीए तब इमरजेंसी अप्रूवल देता है जब यह संतोषजनक रूप से यह निर्धारित कर लेता है कि जांच में शामिल उत्पाद के संभावित फायदा संभावित जोखिम की तुलना में कहीं ज्यादा होगा. EUA केवल पहले चरण और दूसरे चरण के क्लीनिकल परीक्षण डेटा के आधार पर कभी नहीं दी जाती है.
तीसरे चरण के परीक्षण में पर्याप्त प्रभावशीलता वाले आंकड़े मिलने के बाद ही ईयूए दिया जाता है.
USFDA ने कोविड-19 के लिए तय किया है कि अगर फेज-3 एफिकेसी डेटा में वैक्सीन 50% से ज्यादा इफेक्टिव रहती है, तो ही उसे इमरजेंसी अप्रूवल दिया जाएगा. यह डेटा 3000 से ज्यादा वॉलेंटियर्स का होना चाहिए. भारत में सेंट्रल ड्रग्स स्टैंडर्ड्स कंट्रोल ऑर्गेनाइजेशन (CDSCO) यह अप्रूवल देता है. भारत में ऐसी कोई प्रक्रिया तय नही की गई है. वैक्सीन की रेगुलेटरी प्रोसेस से जुड़े एक रिसर्चर ने कहा है कि आपको किसी भी वैक्सीन के लिए स्थानीय आबादी पर हुए ट्रायल्स का डेटा देना होता है.
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अब तक भारत में जितने भी वैक्सीन बने या इम्पोर्ट किए, उनके लिए लोकल क्लिनिकल ट्रायल्स अनिवार्य था. इसकी एक बड़ी वजह है भारत की विविधतापूर्ण डेमोग्राफी और सामाजिक-आर्थिक विविधता. इसका वैक्सीन की सेफ्टी और इफेक्टिवनेस पर बहुत असर पड़ता है.
फाइजर की वैक्सीन और अन्य वैक्सीन केंडिडेट इस पैमाने पर खरे नहीं उतर रहे हैं. उन्होंने कोई लोकल ट्रायल नहीं किया है. सिर्फ एस्ट्राजेनेका-ऑक्सफर्ड टीका के लिए सीरम इंस्टीट्यूट ने भारत मे मात्र 1500 लोगों पर अपनी वैक्सीन को टेस्ट कर के इमरजेंसी अप्रूवल मांगा है. जो कि भारत जैसे वृहद देश की डेमोग्राफी के लिहाज से बहुत छोटा सैंपल साइज है. भारत की एक चौथाई से भी कम जनसंख्या वाले अमेरिका में यह सैंपल साइज बहुत कम है. यदि सिर्फ इसी आधार पर अनुमति दी जा रही है, तो आप खुद समझ लीजिए कि कितना बड़ा रिस्क है.
एस्ट्राजेंका द्वारा भारत में तीसरे चरण के लिए 1500 लोगों पर वैक्सीन का ट्रायल कुछ महीने पहले शुरू किया गया और दिसंबर की शुरुआत में ही इमरजेंसी अप्रूवल मांग लिया गया. यानी कि बहुत जल्दबाजी मचाई जा रही है. दूसरी बात यह है कि क्लीनिकल परीक्षण डेटा की अंतरिम समीक्षा के आधार पर ही अप्रूवल मांगा जा रहा है. वैक्सीन के दीर्घकालीन प्रभावों पर कोई भी स्टडी उपलब्ध नहीं है.
एक ओर बात यह समझना चाहिए कि रेमडेसिविर और फेविपिराविर जैसी दवाओं को नियामकों द्वारा ईयूए प्रदान किया गया था. लेकिन बाद में WHO द्वारा रेमेडीसीवीर से यह EUA वापस लेने की अनुशंसा की गई. इसका मतलब यह भी संभावना हो सकती है कि हो सकता है कि आगे चलकर वैक्सीन का इमरजेंसी अप्रूवल हटा दिया जाए और पूरा प्रोजेक्ट ही बंद कर दिया जाए.
ऐसे में हमें बहुत सोच समझ कर वैक्सीन लगवाने के बारे में विचार करना होगा.