Barbarik
विश्व पुस्तक मेले के समय से जो लोकार्पण सुख के रस में ऊभचूभ कर रहा हूं वह अनिर्वचनीय है, आनंदातीत है. एक तो मेले के मार तमाम लोकार्पण. फोटू चेंपते चेंपते उंगलियां न थमी लेकिन लाइक करते करते थक गईं. बड़े बड़े लोकार्पक कुर्ता बंडी धारे मुस्कियाते घूम रहे थे कि किसी स्टॉल पर जल्दी में बुला लिए जाएं. कविगण सद्यःप्रकाशित कविता संग्रह लिए योग्यतम लोकार्पक की खोज में वन-वन भटक रहे हैं क्योंकि हर किसी से तो नहीं करवा सकते हैं न लोकार्पण. लोकार्पक का वजन ही तो तय करता है कविता संग्रह का वजन.
ईश्वर का क्रूरतम कृत्य था सदी के महानायक लोकार्पक को समय से पहले उठा लेना. हाय! मेरे कविता संग्रह को ही नसीब न हुआ उनका पावन हाथ. वे ऐसे लोकप्रिय लोकार्पक थे जिन्हें हर कवि कथाकार और प्रकाशक चाहता था. लेकिन अब तो बस… खद्योतसम बचे हैं जंह तंह करत प्रकाश. फिर भी लोकार्पण तो होना ही है क्योंकि लोकार्पण तो अंतिम सत्य है. दृश्य मोहल्लों के सरस्वती पूजा की तरह है. पंडित जी को कभी कोई इधर खींचता कभी उधर. पहले हमारी पूजा पहले हमारी… पहले इस प्रक्रिया को विमोचन कहा जाता था लेकिन बहुत सारे लोगों को इसकी ध्वनि पसंद नहीं थी. कहते इसमें कुछ मोचन नोचन टाइप हिंसात्मक ध्वनि निकलती है. इसलिए अब ज्यादा लोग लोकार्पण कहना पसंद करते हैं, तेरा तुझको अर्पण की तर्ज पर.
इसमें एक बड़े जनसमुदाय से जुड़ने का आभास भी होता है भले हमारा कविता/कहानी संग्रह साढ़े तीन लोग पढ़ रहे हों . लोकार्पण भी कई प्रकार के होते हैं – चाय बिस्कुट वाले, समोसा- मिठाई वाले, सैंडविच-काजू कतली और ग्रीन टी वाले, कुछ और आगे इंडिया इंटरनेशनल सेंटर वाले भी होते हैं तरल गरल के साथ. लेकिन छोटे शहरों कस्बों के लेखकों कवियों की उसमें रसाई नहीं रहती. लेकिन हर तरह के लोकार्पण में एक बात तय होती है कि अधिकतर लोगों ने किताब नहीं पढ़ रखी होती है. इसके लिए तरह-तरह के बहाने भी होते हैं – किताब कल रात मिली है, उलट पलट कर देखा है, एक वैचारिक आलेख लिखने में लगा था, लोकार्पण तो शुभकामनाएं देने का अवसर होता है आलोचना का नहीं, नया कवि कोंहड़े की बतिया की तरह होता है उसे उंगली नहीं दिखाया जाता वगैरह-वगैरह. कुछ तो बहुत प्रतिभाशाली होते हैं – संग्रह के शीर्षक पर ही पंद्रह मिनट खींच देते हैं या कवर पर जो चित्र छपा होता है उसकी तारीफ अलग अलग कोणों से कर डालते हैं.
अपुष्ट सूत्रों के अनुसार कुछ ऐसे भी लोकार्पक हुए हैं जो किताब को सिर्फ सूंघकर एक घंटे तक बता सकते हैं कि इसकी कविताओं या कहानियों में या कथेतर में क्या है. शहर में कुछ ऐसे लोग होते हैं जो हर आयोजन में उपस्थित रहते हैं. एकाध वृद्ध साहित्यकार हर शहर में होता ही है जो अध्यक्ष पद के लिए सर्वथा उपयुक्त होता है. सबसे राहत देने वाली बात यह है कि हर लोकार्पण में एक किताब तो होती ही है लोकार्पण का सुख सबको देने के लिए. तो जब भी मौका मिले आप भी यह सुख जरूर भोग लें.
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.