Dr. Santosh Manav
अपवादों को छोड़, अधिकतर किसान आंदोलन हिंसक रहे हैं. हिंसा के कारण आंदोलन बीच में ही रद्द कर दिए गए और अपने मकसद में नाकामयाब रहे. ऐसे में सवाल है कि क्या 9 अगस्त 2020 से दिल्ली बार्डर पर शुरू हुए किसान आंदोलन का हश्र ऐसा ही होना है? सिंघु बार्डर पर किसान आंदोलन के मंच के समीप हाथ-पैर कटा शव मिलने के बाद यह सवाल प्रासंगिक हो गया है. यह शव पंजाब के तरनतारन के युवा का बताया गया है. किसान आंदोलनों का इतिहास 1859 से प्रारंभ होता है. बंगाल के पाबना में 1873 में कृषक संघ की स्थापना और आंदोलन को ऐतिहासिक माना गया है. 1918 में गुजरात के खेड़ा में हुए किसान आंदोलन का आंदोलनों के इतिहास में अपना महत्व है. लेकिन, देखा यही गया है कि इक्का-दुक्का आंदोलनों को छोड़कर अधिकतर आंदोलन हिंसक रहे. बीच में टूट गए. मांगें अधूरी रह गईं. यह भी देखा गया कि कई दफा किसान आंदोलनों को राजनीतिक दल हाईजैक कर लेते हैं और आंदोलन सत्ता हथियाने का जरिया बन जाता है.
यह आंदोलन बीजेपी-मोदी विरोधियों का भी आंदोलन हो गया है. बीजेपी विरोधी दल इसे मोदी को सत्ताच्युत करने का अवसर मान रहे हैं. इसमें वे कितना सफल होंगे, यह भविष्य की बात है. लेकिन, इतना तो साफ दिख रहा है कि एक साल बाद भी आंदोलन गति नहीं पकड़ पायी. यह तीन राज्यों से बाहर प्रभावी नहीं है. ऐसे में मोदी को सत्ताच्युत करने की बात दूर की कौड़ी है. कहा जा सकता है और मोदी विरोधी कह भी रहे हैं कि लोगों का विरोध अंडरकरंट है. इसका फैसला मार्च 2022 मे होने वाले यूपी चुनाव से हो जाएगा.
अप्रैल 2011 में दिल्ली से अन्ना आंदोलन शुरू हुआ. अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी, प्रशांत भूषण आदि अनशन पर बैठे. सवाल भ्रष्टाचार मिटाने का था. कहा गया कि पूरे आंदोलन को बाद में बीजेपी और संघ परिवार ने हाईजैक कर लिया. आंदोलन पूरे देश में फैल गया. आंदोलन को संघ के सहयोगी संगठनों ने बल दिया. दिल्ली में केजरीवाल को सत्ता मिली. और देश की सत्ता बीजेपी को. दोनों सत्ता पाने वालों को आंदोलन का बड़ा सहारा मिला. भ्रष्टाचार का सवाल, वहीं का वहीं रह गया. 9 अगस्त 2020 से दिल्ली के बार्डर पर प्रारंभ हुए किसान आंदोलन का हश्र क्या होगा? यह तो साफ हो गया है कि किसान आंदोलन, सिर्फ किसान आंदोलन नहीं रह गया है. यह आंदोलन बीजेपी-मोदी विरोधियों का भी आंदोलन हो गया है.
बीजेपी विरोधी दल इसे मोदी को सत्ताच्युत करने का अवसर मान रहे हैं. इसमें वे कितना सफल होंगे, यह भविष्य की बात है. लेकिन, इतना तो साफ दिख रहा है कि एक साल बाद भी आंदोलन गति नहीं पकड़ पायी. यह तीन राज्यों से बाहर प्रभावी नहीं है. ऐसे में मोदी को सत्ताच्युत करने की बात दूर की कौड़ी है. कहा जा सकता है और मोदी विरोधी कह भी रहे हैं कि लोगों का विरोध अंडरकरंट है. इसका फैसला मार्च 2022 मे होने वाले यूपी चुनाव से हो जाएगा. लेकिन, इससे कौन इंकार करेगा कि आंदोलन हिंसक हो गया है. जहां तक मकसद में कामयाब होने ता सवाल है, मोदी सरकार बार-बार कह चुकी है कि वह तीनों कृषि कानून वापस नहीं लेने जा रही है. फिर आंदोलन की दशा-दिशा क्या है?
1987 में यूपी के शामली में बिजली की बढ़ी दरों के खिलाफ बड़ा किसान आंदोलन हुआ. आंदोलन हिंसक हुआ. पुलिस के जवान मारे गए. बिना किसी परिणाम के आंदोलन समाप्त हुआ. 1988 में मेरठ के किसान आंदोलन में पुलिस फायरिंग से मौत हुई. 1988 में ही दिल्ली के वोट क्लब पर 110 दिनों तक किसान बैठे रहे. पुलिस से झड़प में एक किसान की मौत हो गई, आंदोलन बिना किसी निष्कर्ष के समाप्त हुआ. 1989 में अलीगढ़, 93 में लखनऊ, 2010 में नोएडा और 2018 में किसानों के दिल्ली कूच आंदोलन का समापन भी हिंसा के साथ बिना किसी परिणाम के हुआ. अभी दिल्ली के किसान आंदोलन में हिंसा दर हिंसा है. ताजा मामला एक युवक का हाथ-पैर काटकर मार देने का है. तो क्या यह किसान आंदोलन भी समापन की राह पर है?
आंदोलन की शुरुआत 9 अगस्त को हुई और 15 अगस्त को लालकिले पर उपद्रव और तिरंगे का अपमान हुआ. पंजाब, हरियाणा में बीजेपी विधायकों के कपड़े फाड़े जा रहे हैं. लखीमपुर खीरी में आठ लोग मारे गए. हिंसा के इस तांडव पर राजनीतिकों ने सियासी बयानबाजी और सियासी दौरे किए. लेकिन, गौर से देखिए, अब कृषि कानूनों पर बात नहीं हो रही. बात मोदी और बीजेपी को सत्ता से हटाने की हो रही है. किसान नेता राकेश टिकैत ने बंगाल चुनावों में हिस्सा लेकर मंशा साफ कर दी. एक दूसरे किसान नेता गुरनाम सिंह चढूनी ने राजनीतिक दल बनाकर चुनाव लड़ने की बात की. महाराष्ट्र की ठाकरे सरकार ने किसानों के भारत बंद का समर्थन कैबिनेट में प्रस्ताव पास कर किया. इस सरकार में शिवसेना, कांग्रेस, राकांपा शामिल हैं.
मतलब, किसान आंदोलन की आड़ में राजनीतिक दल अपना हित साध रहे हैं, जैसे अन्ना आंदोलन से बीजेपी ने साधा था. अन्ना आंदोलन व्यापक-देशव्यापी हो गया. इसलिए मनमोहन सरकार चली गयी. इस किसान आंदोलन से मोदी सरकार का जाना तय नहीं दिखता. आंदोलन हिंसक, अराजक हो चला है. जन समर्थन बढ़ नहीं रहा. तो क्या असफल किसान आंदोलनों की कतार में एक और आंदोलन जुड़ने जा रहा है? जवाब समय देगा.
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