
वह 77-79 का समय था. भारत यायावर भाई रांची विश्वविद्यालय से एमए कर रहे थे. उसी समय से उनकी यायावरी दिखलायी पड़ने लगी थी. कविता, निबंध, आलोचना में आवाजाही बारंबार. बाद में संपादन भी. बहुत-बहुत बाद में उन्होंने जो वृहद, श्रमसाध्य कार्य रेणु जी, द्विवेदी जी, नामवर जी, राधाकृष्ण जी पर किया है, वह सबको पता है. लेकिन पूत के पांव उसी समय पालने से झांकने लगे थे.
पतले-दुबले, लंबे, धीर-गंभीर, गौरवर्णी भारत भाई ने उसी समय अपना नाम यायावर रख छोड़ा था. जींस के ऊपर लंबा कुर्ता, और कांधे पर कपड़े का बड़ा सा थैला. थैले में अनगिन साहित्यिक किताबें. उन दिनों के कवियों, साहित्यकारों, यायावरों की मुकम्मल तस्वीर. मोटे चश्मे के भीतर से झांकतीं दो बुद्धिदीप्त आँखें! अत्यधिक विनम्र, निश्छल भी.
वे प्रायः सुबह की चाय मेरे घर पर बाबूजी और मेरे साथ पीते थे. प्रायः मेरी आंखें उनके आगमन के बाद खुलतीं. फिर आनन-फानन में चाय की केतली चढ़ा देती. रांची के सभी प्रमुख साहित्यकारों के घर जाते. हम भी बहुत दिनों तक मिलते रहे, साहित्य गढ़ते रहे.
पढ़ाई के बाद वे अपने गृह नगर हजारीबाग चले गये. स्नातक की परीक्षा से निवृत्त होकर गई तो हजारीबाग के मेन रोड में ‘नवलेखन प्रकाशन’ के बोर्ड ने आकर्षित कर लिया. महत्वपूर्ण लघु पत्रिका ‘नवतारा’ का दफ्तर. मैं दो-तीन हस्तलिखित काव्य के साथ वहां दूसरे दिन ही जा पहुंची. अपनी रचनाएं दीं. उन्होंने उलट-पुलटकर देखी. बाद में निर्णय से अवगत कराने का आश्वासन. आया तो उसमें में अपनी रचना थी.
भारत भाई ने रदीफ, काफिया, शेर, मात्राएं सब कुछ सिखाने की कोशिश पुनः रांची आने पर की. संभव नहीं हो पाया तो तौबा ही कर ली. उन्हीं दिनों उनके काव्य संग्रह छपे, साझा संकलनों का भी संपादन किया. भारत भाई की कर्मठता, प्रतिबद्धता ‘नवतारा’ को बहुत ऊँचाई पर ले गयी. ‘नवतारा’ के संपादकीय और रचनाओं की उत्कृष्टता ने कमलेश्वर जी, राजेन्द्र यादव जी से लेकर संजीव जी जैसे नामचीन लेखकों का ध्यान खींचा था. बाद में अनियतकालीन ‘विपक्ष’ के प्रकाशन की सूचना. बड़े-बडे़ नाम जुड़े. काफी सालों तक चास में अध्यापन के साथ उन्होंने ‘विपक्ष’ को जिलाये रखा.
बाद में उनसे मिलना कम हो गया. पत्र के माध्यम से वे विविध पत्रिकाओं का पता भेजते. प्रेरित करते. फिर पत्राचार भी कम हो गया. मैं व्यस्त…अति व्यस्त! वे विनोबा भावे विश्वविद्यालय में आ गये. पर उनसे भेंट नहीं हो पाई कभी फिर. जीवन की दुश्वारियों ने कई रिश्तों की तरह इस पर भी बहुत दिनों तक ब्रेक लगा दी. अब तीस-इक्कतीस सालों बाद फेसबुक पर मिले. कुछ दिनों पश्चात 12 दिसंबर 2019 को पहली बार मोबाइल के रिंगटोन के साथ भारत भाई का नाम फ्लैश हुआ. उनसे फोन पर बात हुई…लंबी…सार्थक! राम खेलावन पांडेय जी, सिद्धनाथ कुमार जी, श्रवण कुमार गोस्वामी जी, अशोक प्रियदर्शी जी, विद्याभूषण जी, शैलप्रिया दी, अशोक पागल जी आदि की याद को जीते रहे.
समझ न पाई, इतनी जल्दी सब शेष हो जायेगा. भारत भाई स्मृति शेष!…विश्वास कहां हो रहा है, अब कोई फोन उनका नाम नहीं फ्लैश करेगा. ऐसे कर्मठ, चिरयुवा साधक साहित्य के अनन्य भक्त जाकर भी कहां जाते हैं, भारत भाई भी नहीं जा पाएंगे…मन की जमीन पर पल्लवित है पक्का विश्वास.