Dr. Santosh Manav
वसुधैव कुटुंबकम वाले देश में यह वैसा ही है, जैसे बुआ का परिवार, मौसा का परिवार, चाचा का परिवार एक जगह इकट्ठा हो, दो-तीन दिन गपशप, हंसी-मजाक हो, सुख-दु:ख बांटा जाए, एक दूसरे की मदद हो और फिर मिलने के वायदे के साथ विदा हों, मध्य प्रदेश के औद्यौगिक शहर इंदौर में 8 से 10 जनवरी तक आयोजित प्रवासी भारतीय सम्मेलन में ऐसा ही कुछ हुआ और पहले भी ऐसा ही होता रहा है.
सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, गुयाना के राष्ट्रपति मोहम्मद इरफान अली, सूरीनाम के राष्ट्रपति चंद्रिका प्रसाद संतोखी भी शामिल हुए. सेमिनार, पैनल चर्चा, सांस्कृतिक कार्यक्रमों की धूम रही. विधायक, सांसद, उद्योगपति, बिजनेसमैन, शिक्षाविद आदि शामिल हुए. सरकार ने उपलब्धियां बताईं और निवेश की उम्मीद जताई. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रवासी भारतीयों को देश का ब्रांड एंबेसडर कहा यानी वे विदेश में भारत के राजदूत हैं. उनकी छवि, शील-संस्कार के आइने में दुनिया के लोग भारत को देखते हैं. राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने कहा कि प्रवासी विस्तारित परिवार के सदस्य हैं. भारतवासियों के दिल में उनके लिए खास जगह है.
पर यह सवाल अब भी प्रासंगिक है कि जब दुनिया एक गांव है, उस दौर में ऐसे सम्मेलनों का क़ोई औचित्य है भी या नहीं? भारतीय विदेश मंत्रालय के इस आयोजन में मध्य प्रदेश सरकार सहयोगी रहा. यह 17 वां आयोजन था. पांच सौ से ज्यादा प्रवासी इसमें शामिल हुए. माना जाता है कि विधिवेत्ता स्व. लक्ष्मीमल सिंधवी ने इस तरह के आयोजन की कल्पना की थी और 2003 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने इसे मूर्त रूप दिया. 2015 में इसे हर दो साल पर आयोजित करने का फैसला हुआ. बीच में दो साल कोरोना प्रकोप के कारण आयोजन नहीं हुआ.
प्रवासी भारतीय सम्मेलन नौ जनवरी को ही क्यों, इसके पीछे इतिहास है. महात्मा गांधी नौ जनवरी 1915 को दक्षिण अफ्रीका से लौटे थे और देश में स्वतंत्रता की अलख जगाई थी. उसी को याद करते हुए नौ जनवरी तय किया गया. अब मूल सवाल पर लौटते हैं कि दुनिया एक गांव के दौर में इस तरह के आयोजन पर करोड़ों रुपए बहाने का औचित्य है क्या? औचित्य है. इसलिए कि हम भारतीय उत्सवप्रिय लोग हैं. चाहे विवाह हो या अंतिम संस्कार हमारे यहां सब उत्सव ही होता है. टेक्नोलॉजी कितना भी आगे बढ़ जाए, प्रत्यक्ष का सुख अनुपम होता है. मेले की परंपरा हमारे यहां यूं ही नहीं है. जैसे मेला, वैसे ही सम्मेलन. मेले में खरीदारी के साथ मिलना-जुलना, विचार-विमर्श, सुख-दुख बांटने का वादा भी होता है. मेले में बिछड़े भाई भी मिल जाते हैं.
भारत दुनिया के उन देशों में शामिल है, जहां के लोग सौ से ज्यादा देशों में बसे हैं. ये तीन-चार करोड़ के आसपास हैं और जहां भी हैं, अपवादों को छोड़कर उस देश के विकास में सहयोग कर रहे हैं, साथ ही भारत का नाम रोशन कर रहे हैं. नाम गिनना हो, तो गिन सकते हैं- श्रृषि सुनक, कमला हैरिस, स्टील किंग, लक्ष्मी नारायण मित्तल, गूगल के सुंदर पिचाई, एडोब के शांतनु नारायण, माइक्रोसॉफ्ट के सत्या नडेला, आईबीएम के अरविंद कृष्ण, मास्टर कार्ड के अजयपाल सिंह- सैकड़ों-हजारों नाम. आज दुनिया के टॉप पांच सौ कंपनियों में से साठ से ज्यादा कंपनियों के सीईओ प्रवासी भारतीय हैं. ये समय-कुसमय भारत की मदद करते हैं. विदेशी मुद्रा के स्रोत हैं. बीते साल एक सौ अरब डालर प्रवासियों ने भारत भेजे.
प्रवासियों के मामले में रूस, मैक्सिको और चीन हमसे आगे जरूर हैं. यानी इन देशों के लोग हमसे ज्यादा दूसरे देशों में बसे हैं. हमारे लोग बेहतर अवसर, शिक्षा, तरक्की के लिए भारत से गए, पर जहां भी गए, स्वदेश का प्रेम बना रहा. उनमें भी बना रहा, जिनके माता-पिता सौ साल पहले गए. प्रवासियों की तीन श्रेणी है. इसे यूं समझ सकते हैं-नान रेजिडेंट इंडियन (एनआरआई) यानी वे जो शिक्षा या रोजगार के लिए बाहर गए और वहीं बस गए. पर्सन आफ इंडियन ओरिजिन (पीआईओ) यानी वे जो भारत में पैदा हुए या उनके परिवार का भारत से नाता रहा है. ओवरसीज सिटीजन आफ इंडिया (ओएलआई) यानी वे जो 26 जनवरी 1950 या उसके बाद भारत के नागरिक रहे और अब विदेश में बस गए हैं.
भारतीय जहां भी गए या ले जाए गए, अपनी मेहनत, ईमानदारी, प्रतिभा का लोहा मनवाया. अपनी संस्कृति, अपने धर्मग्रंथ साथ ले गए. बहुत कुछ भूले पर अपने संस्कार नहीं भूले. अपनी मिट्टी की खुशबू नहीं भूले. गिरमिटिया मजदूर बनकर गए, तब भी कालांतर में वहां के ‘राजा’ बने. दुनिया में अनेक देश हैं, जहां शासन की बागडोर आज भारतीय मूल के लोगों के हाथ में है. वहां अब भी रामायण और गीता है. ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक के पूर्वज कई पीढ़ी पहले भारत से गए. लेकिन, आज भी सुनक में भारतीय संस्कार जीवित हैं. संतों के पैर छूते या पूजा करते सुनक को सहज ही देखा जा सकता है.
ऐसे में वे अपने ही हैं, चाहे उनके जिस्म में विदेशी अनाज से बना खून हो, पर दिल हिंदुस्तानी ही है. अपने लोगों को आमंत्रित करना, उनसे विचार-विमर्श करना, मदद लेना और देना गलत कैसे हो सकता है? इस पर हजार करोड़ बह भी जाए, तो क्या गम है. आखिर हम देश के वासी हैं, जहां जन्म-जन्मांतर के संबंधों पर विश्वास किया जाता है. जहां गांव में किसी के घर आया अतिथि उसकी अनुपस्थिति में पूरे गांव का अतिथि हो जाता है. आखिर हम उस देश के वासी हैं- जहां होठों पर सच्चाई रहती है, दिल में सफाई होती है और यह भी कि मेहमां जो हमारा होता है, वह जान से प्यार होता है-आते रहें प्रवासियो आप, हमारे ही ह़ो और हम आपके.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.