Walter Bhengra Tarun
वर्तमान प्रतिस्पर्धा के युग में प्रगतिशील आदिवासी समाज के सामने मातृभाषा को लेकर एक समस्या आ खड़ी हुई है. आज का शिक्षित आदिवासी चाहता है कि उसकी संतान अन्य लोगों के साथ खड़ी हो कर उन्नति करे. इसके लिए आज के आदिवासी माता पिता अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा प्रदान करने का प्रयास कर रहे हैं. अगर आर्थिक रूप से अंग्रेजी शिक्षा देने में सक्षम नहीं हैं तो वे हिन्दी माध्यम के अच्छे स्कूल में अपने बच्चों का दाखिला करते हैं. यही नहीं भाषा की अच्छी पकड़ हो इसलिए वे बच्चों के साथ हिन्दी में ही बातचीत करने का प्रयास करते हैं. अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा प्रदान कर रहे हैं तो अलग से उनके लिए ट्यूशन की व्यवस्था भी करते हैं, ताकि उनका बच्चा पढ़ाई में पीछे नहीं रहे. हरेक मां बाप की ऐसी इच्छा होती है. आदिवासी माता पिता भी यह चाहते हैं.
बदल रहा पारिवारिक स्वरूप
ऐसी परिस्थितियों में आदिवासी बच्चों को अपनी मातृभाषा में सीखने का अवसर नहीं मिल पाता है. पहले की तरह संयुक्त परिवार की परम्परा भी अब रही नहीं, इस कारण दादा दादी का साथ बच्चों को नहीं मिल पाता और स्वतः मातृभाषा सीखने का अवसर नहीं मिल पाता है. वैसे भी वर्तमान में पति और पत्नी गांवों में न रह कर कस्बों और शहरों की ओर जा रहे हैं. अगर नौकरी में हैं तो गांव में रहना कठिन है. ऐसी स्थिति में बच्चे अपनी मातृभाषा से वंचित रह जाते हैं. शहरी क्षेत्रों में रहने वाले अधिकांश आदिवासी युवा दम्पत्ति अपनी मातृभाषा में बातचीत लगभग नहीं करते हैं. वे चाहते हैं कि उनके बच्चों को ऐसा वातावरण मिले, जिससे भाषाई स्तर पर वे हिचकिचाहट महसूस नहीं करें.
भाषा से इतर विवाह
आदिवासी समाज में लड़के-लड़कियों को अपना जीवन साथी चुनने की आजादी है. नौकरी पेशा वाले युवा पीढ़ी के लोग अक्सर अपनी पसंद से अपने लिए पति अथवा पत्नी का चयन कर रहे हैं. इस प्रक्रिया में वे अपने स्तर पर मातृभाषा को प्राथमिकता नहीं देते बल्कि आर्थिक रूप से अपने समकक्ष जीवन साथी का चयन करते हैं. आज की महंगाई में यह उनके लिए अधिक जरूरी है. एक आम परिवार को आर्थिक रूप से सबल और सफल बनाने में यह कदम आवश्यक समझते हैं आज की आदिवासी युवा पीढ़ी. परिणाम यही होता है कि मातृभाषा उनके जीवन में गौण रह जाती है. यहां यह भी देखा गया है कि आदिवासी युवा पीढ़ी जाति के उलझन में नहीं पड़ना चाहती. अधिकांश आदिवासी युवा अपनी जाति में ही विवाह करना चाहते हैं, लेकिन आदिवासी समाज के भीतर अर्थात मुण्डा, उरांव, खड़िया,हो,संथाल किसी से भी विवाह करने में भिन्न विचार नहीं करता. बस, जीवन साथी उपयुक्त हो. कुछ स्थितियों में , विशेष कर महानगरों में आदिवासी युवक और युवतियां गैर आदिवासी समाज में भी शादी कर लेते हैं. ऐसी परिस्थितियों में मातृभाषा का प्रश्न ही नहीं उठता. इस तरह से आदिवासी समाज अपनी मातृभाषा से दूर हो जाता है.
यह शुभ संकेत
ऐसा भी नहीं है कि समूची आदिवासी युवा पीढ़ी मातृभाषा से दूर हो रही है. महाविद्यालयों में आदिवासी भाषाओं का अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों की संख्या में हाल के वर्षों में आशातीत वृद्धि हुई है. मुण्डा, कुड़ुख,हो, संथाली भाषाओं की पढ़ाई में तेजी आई है. लेकिन चिंता की बात है कि इन भाषाओं को पढ़कर आदिवासी युवा पीढ़ी को नौकरी नहीं मिल पाती है. संथाली भाषा आठवीं अनुसूची में सम्मिलित है. इस कारण इससे विद्यार्थी लाभान्वित हो रहे हैं, लेकिन अन्य आदिवासी भाषाओं से छात्र -छात्राओं को समुचित लाभ नहीं मिल रहा है. इस कारण भी आदिवासी समाज अपनी मातृभाषा से दूर हो जाते हैं. आदिवासी भाषाओं को अन्य भारतीय भाषाओं की तरह सरकारी स्तर पर प्रोत्साहन दिये जाने की आवश्यकता है. लेकिन समाज को ही अपनी मातृभाषा को आगे बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए. इस दिशा में प्रबुद्ध समाज अपनी -अपनी मातृभाषा को लेकर जागरूकता अभियान चलाये, वही बेहतर होगा.
यह भी एक वजह
आदिवासी समाज क्षेत्रीय संपर्क भाषा के चंगुल में भी फंसा हुआ है. झारखण्ड में सादरी व नागपुरी बोली छोटा नागपुर की मुख्य संपर्क भाषा है. आम तौर पर छोटा नागपुर में नागपुरी बोली में बोलचाल होती है. इस कारण भी आदिवासी समाज अपनी मातृभाषा से दूर हो जाता है. प्रचलन में देखा गया है कि नागपुरी गीतों की भरमार है. लेकिन मुण्डारी, कुड़ुख आदि भाषाओं में गीत कम हो रहे हैं. इस दिशा में भी समुचित कदम उठाया जाना चाहिए. यह तो मानना पड़ेगा कि आज की आदिवासी युवा पीढ़ी अपनी मातृभाषा से दूर हो रही है.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.
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