Gladson Dungdung
झारखंड के अनुसूचित क्षेत्र में हो रहे नगर निकाय चुनाव को लेकर इस बार आदिवासी आक्रोशित हैं, क्योंकि राज्य निर्वाचन आयोग के द्वारा अपनाये गये रोटेशन पद्धति से उनके लिए आरक्षित नगर निगम, नगर परिषद एवं नगर पंचायत के एकल पद को अनारक्षित या अनुसूचित जाति के लिए अधिसूचित कर दिया गया. आदिवासी सवाल उठा रहे हैं कि अनुसूचित क्षेत्र में पंचायत चुनाव पेसा कानून 1996 के तहत किया जाता है, फिर नगर निकाय का चुनाव सामान्य कानून के तहत क्यों हो रहा है? वे इसे रोकने की मांग करते हुए कहने लगे कि सरकार का यह काम असंवैधानिक, अनुसूचित क्षेत्र की मूल भावना के खिलाफ एवं आदिवासी विरोधी है. यहां मौलिक प्रश्न यह है कि क्या अनुसूचित क्षेत्र में ‘-झारखंड नगरपालिका अधिनियम 2011’ को लागू करना असंवैधानिक है? झारखंड राज्य निर्वाचन आयोग द्वारा जारी अधिसूचना को देखने से स्पष्ट है कि इसे अनुसूचित क्षेत्र में आदिवासियों के प्रतिनिधित्व पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा, क्योंकि रांची, दुमका, साहिबगंज, पाकुड़, जामताड़ा, पूर्वीसिंहभूम एवं सरायकेला-राजखरसावां जिले में नगर निगम, नगर परिषद एवं नगर पंचायत के एकल पद, जो पहले आदिवासियों के लिए आरक्षित थे, अब उसे अनारक्षित या अनुसूचित जाति के लिए अधिसूचित कर दिया गया है, जबकि ये जिले पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत आते हैं. यदि ऐसा ही चलता रहा तो आने वाले वर्षों में खूंटी, सिमडेगा, गुमला, लोहरदगा एवं चाईबासा में भी उनका प्रतिनिधित्व नगण्य होगा.
इस मसले को संवैधानिक, कानूनी एवं ऐतिहासिक पक्ष से समझने की जरूरत है. भारतीय संविधान में कई प्रावधानों के संदर्भ में स्पष्ट रूप से उल्लेखित है कि उक्त प्रावधान अनुसूचित क्षेत्र एवं जनजातीय इलाके में लागू नहीं होंगे. लेकिन संसद कानून बनाकर उसके उपबंध का विस्तार कर सकता है. संविधान के भाग 9 में पंचायत एवं नगर निकायों की स्थापना से संबंधित प्रावधान किये गये हैं, जिसमें अनुच्छेद 243एम1 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि अनुसूचित क्षेत्र में पंचायत व्यवस्था लागू नहीं किया जा सकता है, लेकिन अनुच्छेद 243एम 4बी के द्वारा संसद कानून बनाकर इसके उपबंध का विस्तार कर सकता है.
इसी तरह नगर निकाय की स्थापना के बारे में अनुच्छेद 243जेडसी1 में लिखा हुआ है कि यह अनुसूचित क्षेत्र में लागू नहीं होगा, लेकिन 243जेडसी3 के तहत संसद कानून बनाकर अनुसूचित क्षेत्र में इसके उपबंध का विस्तार कर सकता है. इसका सीधा अर्थ यह है कि जिस तरह से पंचायत के उपबंध का अनुसूचित क्षेत्र में विस्तार हेतु संसद में पेसा कानून पारित किया गया था, ठीक उसी तरह से नगर निकाय के उपबंध का अनुसूचित क्षेत्र में विस्तार हेतु संसद के द्वारा मेसा कानून पारित किये
बगैर अनुसूचित क्षेत्र में नगर निकाय की स्थापना एवं चुनाव कराना असंवैधानिक है, क्योंकि विधानमंडल को इसका अधिकार नहीं है.
अनुसूचित क्षेत्र के संवैधानिक प्रावधानों को लेकर झाररखंड हाई कोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट का रुख अलग-अलग दिखायी पड़ता है. झारखंड उच्च न्यायालय ने पेसा कानून 1996 की धारा- 4 जी एवं इसी के आधार पर बने -झारखंड पंचायत राज अधिनियम 2001 की धारा – 21बी, 40बी एवं 55बी को अतिवादी, अतार्किक एवं समानता के सिद्धांत के खिलाफ बताकर असंवैधानिक करार दिया था, जबकि संवैधानिक प्रावधानों का हवाला देकर अनुसूचित क्षेत्र में नगर निकायों की स्थापना को असंवैधानिक करार देने की मांग वाली जनहित याचिका को सीधे खारिज कर दिया था. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने पेसा कानून के मामले पर फैसला देते समय स्पष्ट कहा कि झाररखंड के कई जिलों में बाहरी जनसंख्या के आगमन की वजह से आदिवासियों की जनसंख्या कम हो गई है, लेकिन ऐतिहासिक रूप से ये क्षेत्र उनके थे, इसलिए वहां एकल पदों पर सौ प्रतिशत आरक्षण विशेष प्रावधान के तहत दिया गया है, जो संवैधानिक है. अनुसूचित क्षेत्र में सामान्य कानून लागू करने को लेकर संविधान सभा का विचार था कि चूंकि आदिवासी लोग पिछड़े, सहज, सरल स्वभाव एवं अदूरदर्शी हैं, इसलिए वहां सामान्य कानून लागू करने से उनके लिए दो महत्वूपर्ण खतरे हो सकते हैं. पहला, उनकी खेती की जमीन को दूसरे लोग हड़प लेंगे, जो उनकी आजीविका एवं अस्तित्व के लिए खतरा उत्पन्न होगा और दूसरा यह कि वे साहूकारों के छल-कपट के शिकार होंगे. इन दोंनो खतरों से आदिवासियों को सुरक्षित रखने हेतु संविधान में विशेष प्रावधान किया गया एवं विशेष कानून लागू करने की सिफारिश की गई. लेकिन सरकारी तंत्र के द्वारा अनुसूचित क्षेत्र के लिए किये गये संवैधानिक प्रावधान एवं कानूनों को न सिर्फ नजरंदाज किया गया, बल्कि इनका घोर उल्लंघन करते हुए असंवैधानिक तरीके से वहां सामान्य कानूनों को लागू किया गया. जब अनुसूचित क्षेत्र विशेष उद्देश्य के तहत बना है, तब वहां सामान्य कानून कैसे लागू हो सकता है?
निःसंदेह, अनुसूचित क्षेत्र ऐतिहासिकरूप से आदिवासियों का है, इसलिए वहां जनसंख्या के आधार पर संसद, विधानमंडल एवं पंचायत व नगर निकायों में प्रतिनिधित्व देना उनके साथ सरासर अन्याय है. संविधान के अनुच्छेद 19 उप-अनुच्छेद 5 एवं 6 के तहत कानून बनाकर इन्हें संरक्षण देने की संवैधानिक जिम्मेवारी राजसत्ता की है. बावजूद इसके बाहरी जनसंख्या को वहां बसने से रोकने हेतु न सरकार और न ही राज्यपाल ने अबतक कोई पहल की. अनुसूचित क्षेत्र में भारी संख्या में बाहरी आबादी बस रही है, फलस्वरूप, आदिवासियों की जनसंख्या निरंतर घट रही है. आज आदिवासियों का अस्तित्व दांव पर लगा हुआ है, जिसे संरक्षण देने की बहुत जरूरत है.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.