Faisal Anurag
सांस्कृतिक अस्मिता वाले राज्यों के राष्ट्रीय दल हाशिए पर ही हैं. केरल और तमिलनाडु के ताजा चुनाव परिणाम इसे एक बार फिर प्रमाणित करते हैं. 2 मई के चुनाव परिणामों के बाद जितनी चर्चा बंगाल की हुई है, उसकी तुलना में इन दोनों राज्यों को नजरअंदाज ही किया गया हैं. हालांकि इन राज्यों के चुनाव परिणाम भी दूरगामी असर वाले हैं. लेकिन कथित हिंदी की राजनीति और मीडिया के लिए यह गंभर विमर्श का विषय नहीं बन पाया. कथित राष्ट्रीय मीडिया तो बंगाल पर ही सीमित रहा.
केरल और तमिलनाडु की राजनीति में जो नए बदलाव आए हैं, वे कई मायनों में खास हैं. एक तो दक्षिण के इन दो राज्यों में राजनीति समान्यजन के विकास पर केंद्रित है और दोनों ही राज्यों की अपनी सांस्कृतिक समझ और विरासत है. दक्षिण के तीन अन्य राज्यों में इन दोनों की तुलना में क्षेत्रीय पहचान का सवाल तो है, लेकिन उन्हें राष्ट्रीय पार्टियों से परहेज नहीं है. कनार्टक में तो भाजपा मजबूत है लेकिन आंध्रप्रदेश और तेलंगाना में वह अब भी अकेले सत्ता की दावेदारी करने की स्थिति में नहीं है. आंध्रप्रदेश से तेलांगना के विभाजन होने के पहले तक कांग्रेस सत्ता में थी. लेकिन राज्य विभाजन के उसके फैसले के बाद दोनों ही राज्यों में वह हाशिए से अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है.
लेकिन कर्नाटक, आंध्रप्रदेश और तेलंगाना की तुलना में केरल और तमिलनाडु की राजनीति और मुद्दे भी भिन्न हैं. केरल में 60 साल में पहली बार किसी सत्तारूढ़ पार्टी की वापसी हुई है और तमिलनाडु में द्रविड़ आंदोलन की पेरियारधारा की वापसी. केरल में हर पांच साल में सत्तारूढ़ दल को बाहर की राह दिखाने का रिवाज टूटा. आखिर ऐसा कैसे संभव हो पाया है. 2019 के लोकसभा चुनाव में यूडीएफ ने केरल में भारी कामयाबी हासिल की थी, लेकिन पंचायत चुनावों में पासा बदल गया. दरअसल केरल में लंबे समय के बाद एक ऐसे नेता की पहचान को मान्यता मिली है तो मुसीबत के समय सक्रियता के साथ मुकाबला करता नजर आता है. पी विजयन ने पिछले पांच सालों में तीन आपदाओं का मुकाबला किया है. निफा वायरस, बाढ़ और कोरोना. कोरोना के उभार के साथ ही केरल एक सफल मॉडल के रूप में उभरा है. इसका एक बड़ा कारण तो स्वास्थ्य संरचना पर लंबे समय से किए गए निवेश की भूमिका है. जिसने कम्युनिटी स्तर पर एक ऐसे सचेत ढांचे का निर्माण कर रखा है. हिंदी इलाकों के राज्य तो मंदिर मस्जिद के झगड़ों में ही फंस कर रह गए हैं.
केरल में विजयन ने दो साल से लगातार विधायक रहे अनेक बड़े नेताओं को टिकट नहीं दिया. बावजूद वामफ्रंट को 2016 की तुलना में ज्यादा सीटें और वोट हासिल हुए. क्या देश के किसी भी अन्य राज्य में यह कल्पना किया जा सकता है कि कोई पार्टी अपने ताकतवर और लोकप्रिय नेता को चुनाव नहीं लड़ने को कहे और वह नेता पूरे अनुशासन के साथ पार्टी का फैसला माने और सक्रिय प्रचार करे. केरल में यह संभव हुआ. कांग्रेस के नेता जब गुटबाजी के परेशान दल से भाग रहे थे तब विजयन अपने गठबंधन की ताकत बढ़ा रहे थे. केरल कांग्रेस जो यूडीएफ की बड़ी पार्टनर रही उसे एलडीएफ में शामिल किया और उसके लिए एलडीएफ ने सम्मानजनक सीट तय किया. देश के किसी भी अन्य राज्य में इसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती है.
दक्षिण की राजनीति न केवल अपनी क्षेत्रीय संस्कृति की पैरोकार है, बल्कि उसके लिए विकास के सवाल ही केंद्र में हैं. शिक्षा,स्वास्थ्य सहित विकास के अन्य मानकों पर इसी कारण ये राज्य अव्वल हैं. तमिलनाडु में व्यक्तिपूजा तो है, लेकिन वहां भी विकास को नजरअंदाज करने की ताकत किसी में नहीं है. तमिलनाडु में अन्ना द्रमुक दस सालों बाद सत्ता से बाहर हुई है. वहां की मीडिया में लिखा जा रहा है कि अन्ना द्रमुक को भारतीय जनता पार्टी का साथ महंगा साबित हुआ है. वैसे तो स्टॉलिन के द्रमुक ने सत्ता में दस साल बाद वापसी की है. लेकिन पेरियार के विचारों पर चलने वाले स्टॉलिन की एक नयी छवि बन कर उभरी है. वे करूणानिधि के पुत्र जरूर हैं लेकिन उनकी राजनीति अपने पिता से भिन्न है.
इस समय पूरे तमिलनाडु में एक ऐसे नेता हैं जिनके भीतर संघर्ष करने की जबरदस्त क्षमता है. उनके उभार से नरेंद्र मोदी विरोधी राष्ट्रीय प्रतिरोध के विपक्षी स्वर को बड़ी ताकत मिली है. हालांकि अन्ना द्रमुक इस बात लिए संतोष कर सकता है कि बिना किसी विरासत के उसके नेता पनीरसेलवन ने जयललिता के बाद पार्टी का नेतृत्व किया है. तमिलनाडु राजनीति के जानकारों का मत है कि इस बार भी पनीरसेलवन की सरकार के खिलाफ उतना सत्ता विरोधी रूझान नहीं था जितना कि केंद्र की भाजपा सरकार के प्रति. इसका लाभ ही स्टॉलिन को मिला है.