Faisal Anurag
राजाजी के नाम से मशहूर भारत के पहले गर्वनर जनरल सी. राजगोपालाचारी ने जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद कहा था : ईश्वर, हमारे लोगों की रक्षा करे. राजाजी जवाहरलाल नेहरू से उम्र में 11 साल बड़े थे और उन्होंने नेहरू की नीतियों से असहमत होते हुए एक अलग स्वतंत्र दल का गठन किया था. स्वतंत्र दल सही अर्थों में भारत का पहला पूंजीवाद समर्थक दल था. लेकिन नेहरू के व्यक्तित्व का असर इतना व्यापक था कि उनके विरोधी भी यह मानते थे कि नेहरू ने एक आधुनिक और धर्मनिरपेक्ष भारत की नींव रखी है. नेहरू अक्सर कहा करते थे, लोकतंत्र का अर्थ शालीनता है, जो केवल अपने समर्थकों के लिए नहीं बल्कि राजनीतिक विरोधियों के लिए भी जरूरी है. आज के भारत में नेहरू के इस कथन के महत्व को नहीं समझा जा सकता है, क्योंकि आज की राजनीति में शालीन होने का अर्थ है कमजोर होना. नेहरू अपने विरोधी राजनीतिक दलों के नेताओं के बीच भी कितने प्रिय थे, राजाजी की श्रद्धांजलि से समझा जा सकता है. नेहरू न केवल अपने विरोधियों का आदर करते थे, बल्कि उनकी बातों और आलोचनाओं को ध्यान से सुनते थे.
एक बार लोकसभा में जवाहरलाल नेहरू की सरकार के खिलाफ उनके कट्टर विरोधी हो चुके आचार्य कृपलानी ने अविश्वास प्रस्ताव लाया. उस समय लोकसभा में नेहरू के समाने विपक्ष की ताकत नगण्य थी. आचार्य कृपलानी के समर्थकों की संख्या तो और भी कम थी. बावजूद इसके अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा हुयी. पूरी बहस के दौरान नेहरू सदन में मौजूद रहे और ध्यान से सदस्यों को सुना. आज के दौर की तरह नेहरू ने न तो अविश्वास प्रस्ताव के बहाने विपक्ष के नेताओं का खिल्ली उड़ायी और न ही व्यंग्य किया. एक-एक आरोप खासकर आलोचनाओं का तर्कसंगत जवाब दिया और विपक्ष का मनोबल बढ़ाया. वे लोकतंत्र के लिए एक स्वतंत्र और मुखर विपक्ष की ताजिंदगी वकालत करते रहे.
आत्ममोह ग्रस्त नेता नहीं थे नेहरू
नेहरू की महानता को तो इसी से समझा जा सकता है कि जब कभी कोई महत्वपूर्ण विदेशी मेहमान भारत आता उससे विपक्ष के नताओं को जरूर मिलवाते. वे आत्ममोह ग्रस्त नेता नहीं थे और इस मुगालते से भी बचते थे कि भारत केवल उन्हीं के कारण है. जनसंघ के सदस्यों की संख्या लोकसभा में कम होती थी बावजूद इसके नेहरू ने अटल बिहारी वाजपेयी को सोवियत नेता निकिता ख्रुशचेव से मिलवाते हुए उन्हें भविष्य के प्रधामंत्रियों में एक बताया था. क्या आज के दौर में इस उदारता की कल्पना की जा सकती है. उस दौर के कांग्रेस में नेहरू के समकालीन नेताओं की वह पौध थी, जो उन से बराबरी का व्यवहार करती थी. राज्यों के मुख्यमंत्री ताकतवर होते थे. बावजूद एक विरोधी नेता का इस तरह परिचय कराने का साहस आज तो कल्पना से भी परे है.
बहुमत के बावजूद उसके अहंकार से मुक्त नेहरू ही हो सकते थे. राम मनोहर लोहिया की ऐतिहासिक बहस नेहरू के समाने ही हो सकती थी, जिसमें लोहिया ने 3 आना बनाम 13 आना का मशहूर सवाल खड़ा किया था. आज के दौर में तो संसद में विपक्ष के नेताओं के बोलने के समय के हो हंगामें और किए जाने वाले तंज के बाजाय सार्थक बहस को प्रोत्साहन मिलता था. भारत के संसदीय इतिहास का वह दौर बिलकुल अलग दिखता है. इसका एक बड़ा कारण था, जिसके लिए उस जमाने के मशहूर कम्युनिस्ट सांसद हिरेन मुखर्जी, जिनकी बहसों की बड़ी अहमियत थी, कहा करते थे : जवाहरलाल नेहरू सफल राजनेता नहीं हो सके, क्योंकि राजनीति में सफलता के लिए जो असभ्यता चाहिए, नेहरू उसके सर्वथा अयोग्य थे. एक विपक्षी नेता की यह टिप्पणी बताती है कि नेहरू एक वास्तविक स्टेट्समैन थे और उनके बाद से भारत एक स्टेट्समैन के लिए तरस रहा है.
पिछले कुछ सालों में नेहरू उनकी विरासत और उनके व्यक्तित्व को ले कर दुष्प्रचार हुए हैं, लेकिन नेहरू एक ऐसे दीपक हैं जो लोकतंत्र,आधुनिकता, वैज्ञानिक नजरिया और धर्मनिरपेक्षता के लिए विस्मृत नहीं किए जा सकते. जब कभी लोकतंत्र और भारत की विविधता संकटग्रस्त होंगे नेहरू के विचार मार्गदर्शन कर आमजन को भटकाव से बचा लेंगे. नेहरू होना आसान नहीं है और उससे भी कठिन हैं उनके विचारों को हमेशा के लिए दफन कर आधुनिकता के सपने को अतीतजीवी बना देना.