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भारत के महानतम शासकों में से एक सम्राट अशोक को हत्यारा, क्रूर कहें जाने पर भी भारतीय संस्कृति के रक्षकों की जमात में ऐसी चुप्पी!
भाजपा के कल्चरल सेल के प्रमुख और ‘विद्वान’ लेखक दया प्रकाश सिन्हा के मुताबिक सम्राट अशोक बदनाम मुगल शासक औरंगजेब के समान थे! हत्यारा, क्रूर, कामुक, पिता को कैद करने वाला आदि. अशोक का ऐसा चित्रण उन्होंने अपने एक नाटक में किया है. और कमाल कि उसी नाटक के लिए उन्हें साहित्य अकादमी सम्मान मिला है. भारत सरकार ने उनको ‘पद्मश्री’ से भी नवाजा है. कल्पना करें कि अशोक के बारे में ऐसी बातें यदि किसी वामपंथी या मुस्लिम विद्वान ने कही होती तो आज संघ जमात की कैसी प्रतिक्रिया होती!
भाजपा के सहयोगी दल जदयू ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है. श्री सिन्हा से पद्मश्री वापस लेने और भाजपा से निष्कासित करने की मांग की है. मगर मोदी-शाह एंड कंपनी चुप है!
ऐसा नहीं है कि दया प्रकाश सिन्हा ने जो कुछ कहा है, वह सब सर्वथा असत्य है. इतिहास का सामान्य विद्यार्थी भी जानता है कि अशोक अपने भाइयों की हत्या कर ही मगध का सिंहासन पर बैठा था. फिर साम्राज्य विस्तार के लिए भी लगातार युद्धरत रहा. कलिंग युद्ध में हुए भीषण रक्तपात के बाद ही अशोक ने हिंसा का त्याग कर बौद्ध धर्म अपनाया था. फिर अपना शेष जीवन शांति और बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में लगा दिया था. मगर हिंसा का मार्ग छोड़ देने के बाद भी उनका मौर्य साम्राज्य न कमजोर हुआ, न सिकुड़ा. उन्होंने भारत के कोने कोने में बुद्ध के उपदेशों के शिलालेख लगवाये. उनके शासन काल में ही बुद्ध की मूर्तियां स्थापित हुईं. बामियान की गुफाओं में उकेरी गयी विशाल बुद्ध प्रतिमा उसी काल की हैं, जिन्हें तालिबानियों ने नष्ट किया था. उसी दौरान विदेशों में बौद्ध धर्म का विस्तार हुआ. तलवार के जोर पर नहीं, शांति के जरिये. यहां तक कि अपने पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा को भी धम्म को समर्पित कर दिया.
और दुनिया जिस अशोक का सम्मान करती है, वह यही अशोक है- शांतिप्रिय, बुद्ध का अनुयायी, प्रजापालक, मानवीय मूल्यों के प्रति निष्ठावान. इसी कारण नेहरू सहित देश के सभी राजनेता व विद्वान अशोक का सम्मान करते रहे. हमारे तिरंगे में जो चक्र है, वह अशोक के धम्म चक्र से लिया गया है. तीन सिंहों के सिर वाला देश का राजकीय चिह्न और हमारा आप्त वाक्य ‘सत्यमेव जयते’ भी.
ऐसे में विचारणीय है कि आज सम्राट अशोक के ‘दागदार’ अतीत को याद करते हुए उनको हत्यारा बताने के पीछे मंशा और ऐसा लिखने वाले की मानसिकता क्या हो सकती है? यह भी कि भारत के इस महानायक के प्रति ऐसी अपमानजनक बातें कहे जाने पर भी भारतीय संस्कृति के स्वघोषित संरक्षकों का खेमा खामोश क्यों है? इसलिए ऐसा किसी अर्बन नक्सल वामपंथी ने नहीं, इसी जमात के विद्वान ने कहा है?
नहीं. डाकू रहे बाल्मीकि के ऋषि और ‘रामायण’ के रचयिता बन जाने और अंगुलीमाल जैसे हत्यारे के संत बन जाने की चमत्कारी घटनाओं को गर्व से याद करने वाला देश अचानक अशोक के उस रूप को भला क्यों याद करेगा, जो आम तौर पर राजाओं का होता है.
सच यह है कि संघ बुद्ध और बौद्ध धर्म को ही नापसंद करता रहा है. यह जमात मानती रही है कि बुद्ध की अहिंसा नीति के कारण ही भारत कमजोर (नंपुसक) हो गया. सम्राट अशोक के हिंसा त्याग देने से देश की सीमाएं असुरक्षित हो गयीं. यह बात दूसरे सर संघचालक श्री गोलवलकर ने भी लिखी है.
एक तथ्य यह भी है कि बौद्ध धर्म के आविर्भाव और उसके व्यापक प्रभाव से हिंदू या सनातन धर्म सिकुड़ने लगा था. खास कर ‘ब्राह्मण’ इससे आहत थे. दोनों धर्मों के अनुयायियों के बीच अविश्वास और टकराव बढ़ रहे थे. बौद्ध धर्म के खिलाफ बौद्धिक (शंकराचार्य) अभियान ही नहीं चला, बकायदा बौद्धों का बलपूर्वक दमन भी किया गया.
यह भी कहा जाता है बौद्ध राजा और धर्माचार्य विदेशी आक्रांताओं की मदद करते थे.
श्री गोलवलकर ने लिखा है, “…बौद्ध धर्म को एक अलग धर्म के रूप में मातृभूमि से मिटा दिया गया, यद्यपि बुद्ध निःसंशय रूप से अवतार बने रहे. निःसंदेह हम शिव की पूजा करते हैं, किन्तु इस कारण उनके चारों ओर एकत्रित रहने वाले दानवों का स्वागत नहीं करते…” (‘विचार नवनीत’; पृष्ठ- 64)
वे उस ब्राह्मण योद्धा पुष्यमित्र शुंग का नाम नहीं लेते हैं, जो अपने राजा बृहद्रथ की हत्या कर राजा बन गया था, जिस पर बौद्धों के संहार और बौद्ध मठों को नष्ट करने का आरोप है. प्रकारांतर से कहें तो जिनको हिंदू धर्म और व्यवस्था को पुनर्स्थापित करने का श्रेय दिया जाता है. तो अशोक के प्रति तिरस्कार भाव का कारण यह है. हालांकि इस जमात के स्थापित लोग ‘मन की बात’ कहते हुए भी बहुत कुछ छिपा लेते हैं. यह काम दूसरे तीसरे दर्जे के नेताओं पर छोड़ दिया जाता है.
गांधी हों, आंबेडकर हों या बुद्ध, यह दोहरापन इस जमात का बुनियादी चरित्र है.
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं