Ayodhya Nath Mishra
‘अब तो इस तालाब के पानी बदल दो’ दुष्यंत की यह पंक्ति बार बस आज के संसदीय विधाई मर्यादा के तेजी से ह्रास के प्रसंग में याद आ जाती है और प्रश्न खड़ा करती हैं. संवैधानिक व्यवस्था के तहत विधानसभाएं और संसद हमारे भाग्य विधाता हैं. इन्हीं में लोकतंत्र की लोक शक्ति समाहित, प्रतिबिंबित और प्रतिभाषित हैं. लोकतंत्र की आत्मा हैं ये प्रतिनिधि सभाएं. देश के 90 करोड़ से अधिक मतदाताओं सहित 140 करोड़ की जनास्था इनमें निहित है. इनको लोक ने इतनी शक्ति प्रदान की है कि ये समस्त जीवन क्रम में नियामक हैं, विधायक हैं.
भारतीय संविधान जिसे जन-जन की आत्म स्वीकृति प्राप्त है, के माध्यम से इन्हें विशेषाधिकार प्राप्त हैं. सदन में संवाद, चर्चा, विमर्श, विनियमन में ये विशेषाधिकार प्रदर्शित होते हैं. भारत की करोड़ों आंखें इन्हें बड़े गौर से ललचाई नजरों से निहारती हैं और पल-पल अपने हित की उम्मीद लगाए रहती हैं. उन्हें विश्वास है कि इसी मार्ग से सार्वदेशिक हित की गाड़ी आगे बढ़ती है. लोकतंत्र के प्रति अटूट जनास्था सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय की उम्मीद लिए प्रतिनिधिक व्यवस्था में विश्वास और सहभागिता रखती है. पर आज इस अटूट जनास्था के समक्ष एक भयावह प्रश्न चिह्न खड़ा होने का प्रयास कर रहा है.
क्या लोकतंत्र के ये मूर्धन्य स्तंभ जनादेश का सम्मान कर रहे हैं, उसके अनुरूप संव्यवहार हो रहे हैं? लोक से प्रदत्त शक्ति का सदुपयोग हो रहा है? लोग मर्यादाएं क्या अक्षुण्ण हैं? और सबसे बढ़कर क्या ये संस्थाएं ‘योग क्षेम वहाम्यहम ‘की दिशा में अग्रसर हैं? भारी भरकम कर संचित निधि के विनियोजन से उभर चुनाव परिणाम लोक और उसके तंत्र को क्या मुंह नहीं चिढ़ा रहे? आदि अनेक प्रश्न उठते हैं और समय सापेक्ष प्रत्युत्तर की अपेक्षा करते हैं. इसी के बीच कहीं न कहीं उसके प्रति लोक की निराशा और हताशा की स्पष्ट रेखाएं भी दिखाई देती हैं. महत् प्रश्न है, क्या यह भारतीय लोकतंत्र के लिए समीचीन है?
भारत लोकतंत्र की जननी है. जब विश्व सभ्यताओं की दौड़ में कहीं पीछे खड़ा था, हमने इस आदर्श व्यवस्था को अंगीकृत किया था. हम सर्वानुमति के लोकतंत्र के समीप थे. “जो पांचहि मत लागहिं नीका” के पीछे का यही भाव था. हमारे गांव टोला मोहल्ले न्याय की सर्वोच्च पीठ थे, पंच परमेश्वर. शासन व्यवस्था संपर्क, संवाद, चर्चा, विमर्श, सहमति, स्वीकृति आधारित थी. इसी से तो निकला लोकतंत्र ‘लोगों का ,लोगों के द्वारा और लोगों के लिए. हमारे बारे प्राचीन गणतंत्र इसके आधार पृष्ठ थे, जहां से लोक के सामवेत स्वर मुखरित होते थे. लंबे संवाद विमर्श के उपरांत सूत्रित भारतीय संविधान उन सारे लोक हित के अपबंधों से आच्छादित हैं, जिनमें प्रत्येक नागरिक के समग्र विकास, सह अस्तित्व और सहभागी लोक संस्कृति की परिकल्पना को मूर्त रूप देने के सूत्र रेखांकित हैं. पर आज संविधान हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था से अनेक प्रश्न पूछ रहा है . क्या है रोड मैप समग्र विकास का?
खाई रोज क्यों बढ़ रही है? समाज के घटक कब तक स्वावलंबी बन पायेंगे? कबतक खिलाओगे करार्जित लोक निधि से आधी से अधिक आबादी को? हर हाथ को काम और काम का पूरा दाम का संकल्प कौन पूरा करेगा? लूट, अपहरण, हत्या, बलात्कार, भ्रष्टाचार और सबसे बढ़कर सत्ता लोलुपता ने लोक जीवन को किस चौराहे पर खड़ा कर दिया है? अहम प्रश्न इतने विकराल हो चुके हैं कि समाधान के सफल प्रयास अत्यल्प सिद्ध हो रहे हैं. एक आम पहलू है लोक निधि का विचलन. कल्याणकारी योजनाओं से कमीशन खोरी की लत जा नहीं रही है. भ्रष्टाचार निवारण के प्रयास और आंशिक सफलता से किंचित मिल रहे संतोष को इसकी व्याप्ति झुठला रही है. बात-बात पर संविधान की दुहाई देने वाले ही संवैधानिक मूल्यों, मानकों की अवहेलना में अग्रणी हैं.
ऐसा लगता है, राजनीति में लोकतंत्र को शिकस्त में डाल दिया है. ‘जिन पर तकिया था, वही पत्ते हवा देने लगे’. राजनीतिक -प्रशासनिक भ्रष्टाचार से आमजन का दम निकल रहा है. सेवा से पेशा और पेशा से व्यवसाय बनी राजनीति का जाल ऊपर से नीचे तक फैल गया है. मर्यादाएं, संव्यवहार तो कहीं राह भूल गए हैं. संसद और विधानमंडल राजनीतिक दुश्मनी (प्रतिद्वंदिता नहीं ) के अखाड़े स्वरूप दिखाई पड़ रहे हैं. संस्थानों पर प्रश्न चिह्न उठाना आम बात हो गयी है. उंगली तो संसद तक में प्रश्न पूछने पर उठाई जा रही है. अब तो उपकृत होकर प्रश्न पूछना, वरिष्ठ सदस्यों ही नहीं, मुख्यमंत्री तक के संवाद एवं व्यवहार अमर्यादित बताये जा रहे हैं तो शेष के बारे में क्या कहा जाए. कभी-कभी तो संसदीय मानकों मूल्यों को शर्मसार करने वाली घटनाएं भी देखी जाती हैं. पीठासीन पदाधिकारी से लोकतंत्र जो अपेक्षा करता है, उस पर भी शंका की दृष्टि उठ रही है. बार-बार न्यायपालिका का हस्तक्षेप विधायी संप्रभुता को मुंह चिढ़ा रहा है. इतना ही नहीं, सिकुड़ती कार्य अवधि एवं सुविधा के हिसाब से संसदीय व्यवस्था का संचालन भी लोकतंत्र के लिए सुखद संकेत नहीं देते. कहीं न कहीं आम मतदाता सकते में है. जाए तो जाए कहां?
भारत से विश्व तक लोकतंत्र की अपेक्षाओं से इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन ज्वलंत मुद्दों से कतराने एवं सार्थक संवाद से उत्पन्न लोकहित की संभावना का बाधित होना चुनौती तो है. संसदीय व्यवस्था में मताधिकार द्वारा लोक से प्रतिनिधि निर्वाचित होते हैं . उन्हें जो भी शक्तियां, विशेषाधिकार प्राप्त हैं, वे मतदाताओं के हैं. मूलत: विशेषाधिकार ही नहीं, लोकतांत्रिक सर्वाधिकार उन्हीं के हाथों में है. पर हो रहा है इसके विपरीत. अपेक्षा है, भारतीय लोकतांत्रिक मानकों मूल्यों के संरक्षण हेतु संस्थागत संव्यवहार में परिवर्तन आएगा और हमारा लोकतंत्र एवं हमारी संसदीय व्यवस्था सर्वथा आदर्श साबित होती रहेगी. लोकतंत्र भारत की आत्मा में बसा है. विश्व बंधुत्व और सर्वेसन्तु निरामया से अभिषिक्त हमारा लोकतंत्र सभी परिस्थितियों, दशाओं में सर्व स्वीकार्य एवं स्तुत्य रहेगा.
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.