Faisal Anurag
अंबानी अडाणी समूहों को निशाने पर लिये जाने के बाद किसानों के खिलाफ केंद्रीय मंत्रियों और भाजपा ने मोर्चा खोल दिया है. किसान आंदोलन को माओवादी,अर्बन नक्सल, विकास विरोधी बताये जाने के बाद अब टुकड़े- टुकड़े गैंग से प्रभावित बताने का अभियान चलाया जा रहा है. केंद्र सरकार के वरिष्ठ मंत्री इस मुहिम की अगुवायी कर रहे हैं. इस बीच रातों-रात नये-नये किसान संगठन उभर कर आ गये हैं, जो सरकार के तीनों कानूनों के समर्थन में हैं.
आंदोलनरत किसान संगठनों के बीच फुट पैदा करने के प्रयास भी तेज हैं. हालांकि इसमें कामयाबी मिलती नहीं दिख रही है. सरकार किसानों को फ्रस्ट्रेट करने के नजरिये से आंदोलन को लंबा होने दे रही है और देशभर में उनके खिलाफ माहौल बनाने के लिए अपने मंत्रियों,सांसदों और विधायकों को खुला छोड़ दिया है. आंदोलन को पंजाब और हरियाणा के चंद किसानों का आंदोलन भी बताने का प्रयास किया जा रहा है. बावजूद इसके किसानों का आंदोलन देश के अन्य राज्यों में भी समर्थन हासिल कर रहा है. किसान संगठनों ने राजनैतिक दलों के नेताओं के लिए अपने मंचों पर प्रवेश बंद कर रखा है.
बावजूद आंदोलन को विपक्ष की साजिश बताया जा रहा है. मंत्री और सांसद तो यही तय नहीं कर पा रहे हैं कि आंदोलन पर प्रभाव किसका है या यह एक वास्तविक दर्द और अंदेशा है. माओवाद से लेकर पाकिस्तान-खालिस्तान तक की चर्चा सरकार के मंत्रियों और विधायक सांसदों ही अविश्वसनीय बना रहा है. छह सालों से किसी भी आंदोलन से उठे सवालों से बचने का यही तरीका मोदी सरकार ने अपना रखा है. लेकिन किसान फ्रंट पर अब तक इसका असर नहीं दिख रहा है.
आंदोलन को लेकर देश दुनिया के बड़े बुद्धिजीवियों में भी गंभीर चर्चा है. नाबेल लॉरेट अभिजीत बनर्जी ने किसान आंदोलन के प्रति सहानुभूति जताया है. एक बातचीत में उन्होंने कहा है कि सरकार और किसानों के बीच गंभीर रूप से अविश्वास है. उन्होंने कहा है कि किसानों का आंदोलन मुख्यत: सरकार की मंशा को लेकर संशंकित हैं. एक मीडिया सबमिट में बोलते हुए उन्होंने कहा कि किसान तीनों कानूनों को लेकर सशंकित हैं, क्योंकि उन्हें लग रहा है कि इन कानूनों से उनका भारी नुकसान होगा. बनर्जी ने केंद्र राज्य संबंधों का भी उल्लेख किया है. यह धारणा बनी हुई है कि सरकार ने राज्यों की राय लेना जरूरी नहीं समझा. पंजाब के मुख्यमंत्री ने भी एक ट्वीट किया है, जिसमें उन्होंने राज्यों की उपेक्षा का सवाल उठाया है.
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी कहा है कि कृषि कानून न केवल किसान बल्कि आम जनता के भी खिलाफ है. उन्होंने अपने ट्वीट में कहा है कि इससे अगले चार सालों में महंगाई चार गुणा बढ जायेगी.
कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के आगे बातचीत जारी रखने की अपील के जबाव में किसानों ने भी अपनी शर्ते रख दी हैं. इन शर्तो में कहा गया है कि वे सरकार के अब तक सभी प्रस्तावों को खारिज कर चुके हैं, इसलिए उसपर सरकार से दुबारा बात नहीं की जा सकती है. सरकार यदि चाहती है कि बातचीत फिर शुरू हो तो उसे नये प्रस्ताव पेश करने की जरूरत है. किसानों की एक स्पष्ट शर्त है कि बातचीत सिर्फ तीनों कानूनों को रद्द करने पर ही होगी.
अंबानी और अडाणी के प्रोडक्ट बहिष्कार का असर भी सरकार को परेशान किये हुए है. अंबानी की कंपनी जिओ से बड़ी संख्या में पोर्टबिलिटी का असर दिखने लगा है. जिओ ने आइडिया, बोडा और एयरटेल पर लोगों को बहकाने का आरोप लगाया है. यह कॉरपारेटवार सरकार की सेहत के लिए हानिकारक है. जिओ ने ट्राई को पत्र लिखा है. इस पत्र में पोर्टबिलिटी को लेकर एयरटेल और वोडा आइडिया पर हमला किया गया है. कॉरपोरेट समूह देश में पहली बार किसी बडे आंदोलन की जद में है और ओर उन्हें लगने लगा है कि इससे उनके बिजनेस पर असर पड़ेगा. यह दबाव भी केंद्र सरकार पर ही है.
देश के एक और अर्थशास्त्री अमित भदुड़ा ने भी किसान आंदोलन के समर्थन में लेख लिखा है. भदुड़ी के प्रकाशित लेख में कहा गया है : हालांकि यह सिर्फ ‘याराना पूंजीवाद’ का मामला नहीं है, जिसके बारे में हम बात कर रहे हैं. तीन कृषि कानूनों को हाल ही में जल्दबाजी में लगभग निष्प्रभावी हो चुके संसद से पारित करा लिया जाना एक तरह से निर्धारित हो चुकी प्रवृत्ति का अपवाद भी नहीं है.
सरकार ने ऐसा बार-बार किया है, लेकिन इस प्रवृत्ति की शुरुआत पूर्व में जनता को संभलने का समय दिये बिना ताबड़तोड़ हमलों के साथ हुई थी. इसकी शुरुआत पहले नोटबंदी के गुरिल्ला हमले और फिर रणनीतिक रूप से जीएसटी के खराब क्रियान्वयन से हुई, जिसने छोटे एवं मंझोले व्यवसायों और हमारे संघीय वित्तीय ढांचे में राज्यों को कमजोर कर दिया. इसके बाद प्रवासी मजदूरों की बारी आयी, जिनके जीवन और आजीविका को निर्ममता से सबसे सख्त लॉकडाउन के 4 घंटे की नोटिस पर उखाड़ फेंका गया. सभी तरफ बेचैनी, घबराहट और परेशानी थी. लेकिन जनता की प्रतिक्रिया अभी भी नाराजगी वाली नहीं थी.
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