LagatarDesk : अस्तित्व की लयबद्धता मनोहारी है. इसमें अखंड रास चल रहा है. यह विराट नृत्य का अनुष्ठान है. नटराज ही इसके सर्जक है. वह नृत्य में मग्न है. उस नृत्यरस में ही ब्रह्मांड का विस्तार है. सूर्य, चंद्र और तारों का संतुलन है. पृथ्वी का सृजन है. हमसब इस नृत्य में भागीदार है. जगत के इस नर्तन की धारा विस्मय से भरी-परी है. वृक्ष में सौंदर्य है, पक्षियों में कलरव है, सूर्य में ताप है, चंद्र में मधु का वास है. प्रकृति में अंतर्संगीत है. नृत्य का अनवरत अनुष्ठान हमारी जीवन को गतिमान रखता है. ऋषियों ने अपनी अनुभूति में पाया कि समूचे जगत में लयबद्धता है. उन्होंने इसे ऋत यानी एक-दूसरे में लयबद्ध कहा. इसकी लयबद्धता ही प्रकृति का विधान है. वैदिक ऋत की अंतरध्वनी में ओम का सस्वर है. यह परम ध्वनि है. यह अस्तित्व का संगीत है.
ऋग्वेद कहता है कि जब सृष्टि का आरंभ हुआ, तब तप से ऋत और सत्य का उदभव होता है. सत्य और ऋत एक ही तत्व के दो रूप हैं. दोनों एक दूसरे के पूरक हैं. ऋत जहां सनातन गतिमान नियम है, वहीं सत्य को सत्त की अनुभूति बताया गया है. सत्त का तात्पर्य यह पूरा जगत है. जहां गति और प्रवाह नहीं, वह सत्य नहीं हो सकता है. और जो सत्य नहीं है, वहां ऋत की संभावना नहीं है. अतएव दोनों के लिए खुद को तपाना पड़ता है. सृष्टि का लयबद्ध नृत्य ही उसका तपना है. इस तप से ही संगीत, नृत्य और रास निःसृत होता है.
सारा जीवन नाच रहा है. सूर्य और चंद्र का नृत्य से दिन-रात होता है. नृत्य के कारण नदियां गतिमान है. ठहरा पानी सरोवर होता है. बहता पानी सागर में जा मिलता है. यह नृत्य उस परम के साथ जुड़ने का कर्मकांड है. चंद्रमा का उगना-घटना और घटकर अमावस्या हो जाने में एक नृत्य है. यही नृत्य जब प्रगाढ़ होता है, तो वही चंद्र बड़ा होकर पूर्णिमा बन जाता है. प्रकृति में जो सात रंग है, उसे लोक में इंद्रधनुष तथा जो सात ध्वनियां है, उसे ही सात स्वर कहते हैं. आकाश में सात ऋषि इस जगत के सभी सातों आयाम के साथ लोक को आनंद से भरते हैं. प्रकृति नृत्य से भरी है. प्रकृति का नृत्यम स्वरूप का भाव रंग और स्वर से प्राचीन है. प्रकृति का यही मधु प्रसाद अखंड और अनवरत है, जो लोक में मधुरस को भरता है. सूर्य उगते हैं, अस्त होते हैं. इससे मास आते हैं और जाते हैं. संवत्सर, युग और मन्वन्तर आते हैं. काल अपनी गति से देश में उत्सव का संचार करता है.
जगत की प्रकृति सतचितानंद है. वह नृत्य में मग्न है. यह नृत्य श्रीकृष्य के रास में है तो शिव के तांडव में है. तुलसीदास भी लिखते है कि सबहिं नचावत राम गोसाई. अस्तित्व का आमंत्रण है लयबद्धता. नृत्योत्सव. शरीर भी परिधि पर स्थिर है, लेकिन भीतर केंद्र पर नृत्य चल रहा है. यह नृत्य न हो, तो जीवन न हो. गीता प्रबोधन में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया कि ईश्वर सबके हृदय में बैठा है और वह सबको नचाता है. अध्यात्म का भौतिक रूप नृत्य है, लेकिन वही नृत्य जब आनंद के चरम पर पहुंच जाता है तो नृत्य और नर्तक का अंतर खत्म हो जाता है. यहां ब्रह्म और माया का रूपारूप खत्म हो जाता है. द्वैत का भाव अद्वैत में बदल जाता है. देशकाल की सीमा खत्म हो जाती है, जब नर्तक ही नृत्य बन जाता है.
माता पृथ्वी पिता आकाश का चक्कर लगाती है. वह संपूर्ण रस और लय में नाचते हुए सूर्य का परिभ्रमण करती है. प्रीति ऐसी कि उसकी गति में कोई अंतर नहीं आती. पृथ्वी की इस प्रीति का उत्तर आकाष भी देता है. आकाश से ऋतुएं नाचते हुए आती है. वर्षा ऋतु इसका उत्तम उदाहरण है. बादल कभी नाचते हुए, कभी गाते हुए. कभी तीव्र, कभी मद्धम. हमारे मन को वर्षा नृत्यमय बनाती है. शरद के साथ तो मधुरास है. लोक अस्तित्व का अनुसरण करता है. ऋग्वेद इस सृष्टि नृत्य का वर्णन करता है कि- हे देव आप नाचो और आकाश धलि के बादलों से आच्छादित हो गया. यह सृष्टि सृजन का मंगल मुहूर्त है. देवों के नर्तन से तीव्र रेणु प्रकट हुए (ऋ0 10.70.06) जब देव नाचते हैं तो लोक के अधिष्ठाता शिव नृत्य का निमंत्रण देते हैं और समूचा लोक नटराज के साथ नृत्य में लीन हो जाता है. शिव के साथ लोक भी नृत्य बढ़ता है तो कृष्ण के साथ नृत्य में रास का समावेश होता है. यह रास और रस का संयोजन है.
लोक से यह नृत्य आगे बढ़ता है और यह हमारी परंपरा और उत्सव का अंग बन जाता है. यह हमारे कर्म, धर्म, अर्थ और मोक्ष का अनुष्ठान बन सदैव ही हमारी लोकरीति को प्रीति, रस और ऊर्जा से जोड़ता है. यह रस, प्रेम और ऊर्जा का घनीभूत रूप छंद है जो हमारे व्यवसाय, कृषि, वाणिज्य, कला, संस्कृति में भी समावेशित होकर उसमें उत्सव और अध्यात्म का मूल्यबोध कराता है. सृष्टि सृजन से चला नृत्य की अनवरत यात्रा दिक्काल से होकर लोक, फिर लोक से जन और उसके जीवन अनुप्राणित करता है. यह नृत्य जीवन के बाद भी अव्यक्त रूप में जारी रहता है, ताकि वह व्यक्त हो सके.
शिव का तांडव
नटराज स्वरूप में भगवान शिव को ब्रह्मांड के भीतर सभी प्रकार की गति के स्रोत के रूप में दिखाया गया है और प्रलय के दिन को नृत्य, ज्वाला के मेहराब द्वारा दर्शाया गया है, ये ब्रह्मांड के विघटन को संदर्भित करते हैं. ज्यादातर लोग तांडव नृत्य को शिव के उग्र रूप से जोड़कर देखते हैं, जबकि ऐसा नहीं है. शिव तांडव के भी दो प्रकार हैं. पहला है तांडव नृत्य. इसमें शिव का यह रूप रुद्र कहलाता है. जबकि दूसरा है आनंद-तांडव. शिव का ये रूप नटराज कहलाता है. रुद्र रूप में शिव समूचे ब्रह्माण्ड के संहारक बन जाते है. नटराज शिव की प्रसिद्ध प्राचीन मूर्ति की चार भुजाएं हैं. उनके चारो ओर अग्नि का घेरा है. अपने एक पांव से शिव ने एक बौने को दबा रखा है. दूसरा पांव नृत्य मुद्रा में ऊपर की ओर उठा हुआ है. शिव अपने दाहिने हाथ में डमरू पकड़े हुए हैं. डमरू की ध्वनि यहां सृजन का प्रतीक है. ऊपर की ओर उठे उनके दूसरे हाथ में अग्नि है. यहां अग्नि विनाश का प्रतीक है. इसका अर्थ यह है कि शिव ही एक हाथ से सृजन और दूसरे से विनाश करते हैं. शिव का तीसरा दाहिना हाथ अभय मुद्रा में उठा हुआ है. उनका चैथा बांया हाथ उनके उठे हुए पांव की ओर इशारा करता है, इसका अर्थ यह भी है कि शिव के चरणों में ही मोक्ष है. शिव के पैरे के नीचे दबा बौना दानव अज्ञान का प्रतीक है, जो कि शिव द्वारा नष्ट किया जाता है.
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