Faisal Anurag
किसी भी देश के लिए यह फख्र का विषय होता है कि आर्थिक ताकत के साथ ही खेलों की दुनिया पर भी उसकी बादशाहत हो. आर्थिक क्षेत्र में भारत ने जिस तेजी से प्रगति की है, खेलों में उसकी यह गति नहीं दिखी है. एशिया में चीन, जापान और दक्षिण कोरिया आर्थिक शक्ति के साथ वैश्विक खेल शक्ति भी माने जाते हैं. ओलंपिक वह मंच है, जहां दुनिया के प्रभावी देश खेलों के माध्यम से अपने राजनीतिक और आर्थिक असर को दिखाते रहे हैं. शीतयुद्ध के जमाने में अमेरिका और सोवियत संघ के ओलंपिक प्रदर्शन न केवल उनके वैश्विक टकराव में श्रेष्ठता की जंग की तरह माना जाता रहा बल्कि, उन देशों की वैज्ञानिक और आर्थिक प्रगति को भी प्रकट करता रहा. सोवियत संघ के पतन के बाद चीन पश्चिमी और अमेरिकी देशों के सामने एक बड़ी खेल महाशक्ति बन कर चुनौती दे रहा है.
ओलंपिक दिवस पर भारत कहां खड़ा है, यह मूल्यांकन जरूरी है. टोक्यो के लिए तैयारी कर रहे भारत के एथलीटों और खिलाड़ियों से बड़ी उम्मीदे हैं. बावजूद इसके भारत के खेल ढांचे को लेकर चर्चा जरूरी है. झारखंड की दो लड़कियां टोक्यो में भारतीय महिला हॉकी टीम का प्रतिनिधित्व करेंगी, लेकिन उन खिलाड़ियों की ओलंपिक टीम तक का सफर ही बता देता है कि प्रतिभाओं के चयन और उन्हें वैज्ञानिक तरीके से प्रशिक्षित करने की भारत की तैयारी और उसकी ग्रामीण पहुंच की वास्तविकता क्या है. भारत ने आखिरी बार 1980 में मास्को में हॉकी का गोल्ड जीता था. उस टीम के गोल्ड मेडलिस्ट सिलवानुस डुंगडुंग, रांची में ही रहते हैं, लेकिन उनके अनुभव का कितना इस्तेमाल किया गया है, इसकी गहरी छानबीन की जानी चाहिए.
ओलंपिक के इतिहास में भारत के नाम कुल 28 मेडल हैं. व्यक्तिगत स्पर्धा में केवल एक गोल्ड है, जबकि ट्रैक एंड फील्ड में भारत के नाम एक भी पदक दर्ज नहीं है. ट्रैक एंड फील्ड वह इवेंट है, जिसे दुनिया बेहद दिलचस्पी और उत्सुकता से देखती है और उसकी लोकप्रियता किसी भी अन्य खेल से ज्यादा है. जमैका जैसे छोटे से देश के नाम 22 गोल्ड मेडल के साथ कुल 78 मेडल दर्ज है, लेकिन दुनिया की सबसे बड़ी दूसरी आबादी के नाम कुल 9 गोल्ड मेडल दर्ज हैं. इसमें आठ तो केवल हॉकी के हैं. व्यक्तिगत इवेंट में इकलौता गोल्ड शूटिंग में अभिनव बिंद्रा ने बीजिंग में जीता था. 1928 से 1956 तक तो भारत हाकी का बेताज बादशाह रहा. लेकिन उसके बाद की कहानी बेहद तकलीफदेह है. 1980 में मास्को में भारत ने गोल्ड जरूर जीता, लेकिन उस समय राजनैतिक कारणों से अनेक पश्चिमी और अमेरिकी देशों ने ओलंपिक खेलों का बहिष्कार किया था. भारत ने स्पेन को हरा कर अपना परचम लहराया था.
कुश्ती, टेनिस, शूटिंग, भारोत्तोलन, बाक्सिंग, बैडमिंटन में भारत ने पदक जीते हैं. लेकिन फुटबॉल, तैराकी और ट्रैक और फील्ड इवेंट में भारत अभी तक कोई पदक नहीं जीत सका है. हालांकि इसमें एक अपवाद है जब 1900 में नार्मन पिचार्ड ने ट्रैक एंड फील्ड में दो रजत पदक जीते थे. इस पर काफी विवाद है कि इन पदकों को भारत के खाते में रखा जाए या नहीं, क्योंकि भारत की पहली अधिकृत ओलंपिक इंट्री 1928 में हुई थी और जयपाल सिंह के नेतृत्व में ध्यानचंद के जादू के दम पर भारत ने पहला हॉकी गोल्ड जीता. पिचार्ड भारत में जन्मे जरूर थे, लेकिन बाद में वे इंगलैंड चले गये और उस समय भारत इंगलैंड की टीम का ही हिस्सा माना जाता था.
भारत ने 1928 के बाद अब तक केवल आठ बार ट्रैक एंड फील्ड के फानइल तक पहुंचने का कारनामा किया है. मिल्खा सिंह और पीटी उषा कांस्य के बेहद करीब पहुंच कर चूक गये. गुरुचरण सिंह रंधावा, श्रीराम सिंह, अंजू बॉबी जार्ज, विकास गौड़ा, कृष्णा पुनिया और ललिता बाबर भी फाइनल तक पहुंचे, लेकिन पदक नहीं जीत सके. खेल संघों पर सालों-साल से काबिज राजनेताओं या अधिकारियों पर इसकी जबावदेही क्यों नहीं आरोपित की जाती है कि वे क्यों ऐसा ढांचा अब तक नहीं खड़ा कर सके हैं, जो भारत को पदकों की तालिका में दुनिया में एक महत्वपूर्ण स्थान दिला सके. केवल 2012 के लंदन ओलंपिक में भारत ने एक साथ छह मेडल जीते थे, जिसमें 2 रजत और 6 कांस्य पदक थे.
सवाल है कि भारत ने जिस गति से आर्थिक प्रगति की है, उसकी प्रतिछाया खेलों के महाकुंभ में क्यों नहीं दिखती. भारत केवल क्रिकेट नेशन बन कर यदि रह गया है, तो इसके सामाजिक-सांस्कृतिक कारणों को भी देखना होगा. ओलंपिक हो एशियाई खेल, एक जमाने तक फुटबॉल में भी भारत को गंभीरता से लिया जाता था. ओलंपिक के सेमीफाइनल तक भारत पहुंच चुका है, लेकिन भारत में गैर क्रिकेट खेलों की क्या स्थिति है और खिलाड़ियों के साथ किस तरह का व्यवहार होता है, यह किसी से छिपा नहीं है. टेनिस में कुछ खिलाड़ियों ने अपने व्यक्तिगत कौशल और पराक्रम से कुछ सफलताएं हासिल की हैं. लेकिन पेस और भूपति के बाद टेनिस में सन्नाटा क्यों है. महिला टेनिस में सानिया मिर्जा के रिटायर होने के बाद तो सन्नाटा और गहरा जायेगा. ओलंपिक दिवस पर खेल ढांचे और खेल संघों को ज्यादा कारगर बनाने और खेल में आर्थिक निवेश के ज्यादा अवसर पर चर्चा करना सार्थक है. क्रिकेट की तरह ही अन्य खेलों को महत्व दिये बगैर भारत ओलंपिक तो क्या, एशिया में भी बादशाहत कायम नहीं कर सकता.