Deepak Ambastha
कृषि कानून वापस लेने के बाद असम में सीएए , नागरिकता संशोधन कानून वापस लेने के लिए केंद्र सरकार पर दबाव बनाने की तैयारी शुरू हो गई है. ऐसा नहीं है कि यह विचार सिर्फ असम में ही उभर रहा हो देश के अन्य हिस्से भी इससे अछूते नहीं हैं, देर सबेर यह बात सामने आ ही जाएगी.
इस संदर्भ में असदुद्दीन ओवैसी का बयान महत्वपूर्ण है, जिसने कहा है कि एनआरसी और सीएए की वापसी हो नहीं तो दिल्ली की सड़कों को शाहीन बाग बना देंगे. ओवैसी की चेतावनी को हल्के में लेना केंद्र के लिए फिर एक फजीहत का कारण बन सकता है, क्योंकि ऐसे बयानों से सिर्फ चिंगारी भड़काने की जरूरत है, बारूद तो पूरे देश में बिछी हुई है. सवाल है कि कृषि कानूनों पर पीछे हटने वाली मोदी सरकार क्या अन्य मांगों पर भी कदम पीछे खींच लेगी?
सीएए वह कानून है, जिसके तहत पड़ोसी देशों में जैसे पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में जो अल्पसंख्यक समुदाय है, उसमें मुख्यत: गैर मुस्लिम जो 31 दिसंबर 2014 तक अपना देश छोड़ चुके हैं, उन्हें भारत की नागरिकता देने का प्रावधान है, लेकिन यह कानून लागू हुआ था तो ठीक कृषि कानूनों की तरह ही नरेंद्र मोदी की सरकार लोगों को यह समझा नहीं पाई थी कि इस कानून से देश में रह रहे अल्पसंख्यकों को कोई खतरा नहीं है, यह सिर्फ और सिर्फ नागरिकता देने का कानून है छीनने का नहीं. असम के कुछ संगठन सीएए पर आंदोलन की रूपरेखा बनाने की कोशिश में हैं, सीएए के खिलाफ प्रदर्शन की योजना बनाने वाले संगठनों में आसू, कृषक मुक्ति संग्राम समिति समेत कई संगठन शामिल हैं. आसू का मानना है कि किसान आंदोलन और किसानों की दृढ़ता इनके लिए सबक है और असम के संगठन भी यही रास्ता अपनाने की योजना बना रहे हैं, यह चीज सरकार के लिए चिंता का विषय बन सकती है और देश में अस्थिरता का कारण.
केंद्रीय अल्पसंख्यक मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी की बात बहुत दीगर है कि देश में फिर से सांप्रदायिक राजनीति की शुरुआत हो चुकी है.
कृषि कानूनों पर मोदी सरकार क्यों झुकी, क्या बाध्यता थी यह बातें और तथ्य अब गौण हो चुके हैं, कृषि कानूनों की वापसी ने एक बहुत साफ संदेश दे दिया है. जिस वजह से मुद्दा गर्म है कि मोदी सरकार झुक सकती है, झुकाई जा सकती है, लेकिन प्रश्न है कि क्या हर आंदोलन को एक ही चश्मे से देखा जा सकता है, उसके महत्व को एक ही तरह से रेखांकित किया जा सकता है और क्या हर आंदोलन से सरकारें झुकाई जा सकती हैं यदि ऐसा कोई सोचता है तो वह हकीकत से आंख चुरा कर मनमानी की सोच रहा है. सरकार भाजपा की हो या किसी और की देश में मनमानी की छूट नहीं हो सकती ना ही यह अवसर बार-बार दिया जा सकता है कि आंदोलनकारी हर बात को लेकर शहर दर शहर देश ठप कर दें. पर क्या इस बात से कोई इनकार कर सकता है कि किसान आंदोलन के पीछे जो ताकतें सक्रिय थीं, वह अब चादर तानकर सो गई होंगी क्योंकि केंद्र सरकार ने कृषि कानून वापस लेने की तैयारी कर ली है? क्योंकि न पहले और ना अब, किसान आंदोलन सिर्फ कृषि कानूनों का विरोध नहीं था, दरअसल निशाना तो दिल्ली की गद्दी पर है पर क्या हर दफे एक ही दांव से कुश्ती जीती जा सकती है अगर ऐसा होता भी है तो देश का क्या होगा?
वैसी स्थितियों का क्या होगा, जो देश और आम आदमी के सामने मुंह बाए खड़ी हैं? फिर सवाल यह भी है जो इस रास्ते और तौर-तरीकों से सत्ता परिवर्तन के बाद दिल्ली पहुंचेंगे क्या गारंटी है कि उनके खिलाफ भी यह हथियार उन्हें हटाने के लिए फिर प्रयोग नहीं होंगे मुद्दे भले बदल जाएं देखना यह है कि आने वाले दो चार महीने कौन-कौन से गुल खिलाते हैं.