Faisal Anurag
क्या विपक्षी दल वास्तव में राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा विरोधी साझा मंच बनाने के लिए संजीदा हैं या फिर वे भाजपा के बजाय एक दूसरे को कमजोर करने के खेल में लगे हुए हैं ? इसी सवाल के जबाव में विपक्षी दलों के गठबंधन की सीमा और संभवना दोनों ही पहलू जुड़े हुए हैं. बंगाल चुनाव में भाजपा की करारी हार के बाद तो राष्ट्रीय स्तर पर जिस तरह विपक्षी दलों के मिलने जुलने का सिलसिला शुरू हुआ था वह अचानक थम—सा गया है. पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के पहले तो साफ यही दिख रहा है कि सभी दलों के बीच प्रतिस्पर्धा इस बात को ले कर है कि वे स्वयं ही बड़ी पार्टी बन कर उभर जाएं. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी बंगाल चुनाव के परिणाम अचानक केंद्रीय भूमिका में दिखने लगी थी. लेकिन ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस जिस तरह कांग्रेस के नेताओं को तोड़ने में लगी हुयी है उस के संकेत तो कुछ और ही कहानी की कुछ और ही इशारा कर रहे हैं.पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव अनेक अर्थो में महत्वपूर्ण है.एक तो देश का सबसे बड़ा राज्य का राजनैतिक जनादेश भविष्य की राजनीति के लिए बेहद महत्वपूर्ण है. 2017 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव नोटबंदी के बाद सबसे बड़ा जनमत संग्रह जैसा ही हुआ था. इसमें भाजपा की कामयाबी ने बाद के दिनों के भारतीय राजनैतिक भविष्य में भाजपा को केंद्रीय ताकत के रूप में स्थापित कर दिया.चूंकि शेष चार पंजाब,गोवा,उत्तराखंड ओर मणिपुर हैं छोअे जरूर हैं लेकिन क्षेत्रीय सतर पर उनका भी राष्अ्रीय महत्व है.. पंजाब को छोड़ कर शेष चारों में भाजपा सत्ता में है. लेकिन विपक्षी दलों के बीच इन पांचों राज्यों में अलग अलग ही लड़ने की प्रवृति स्पष्ट है..
ममता बनर्जी का इस समय तो लक्ष्य यही दिख रहा है कि वे उत्तर प्रदेश,गोवा,मणिुपर ओर उत्तराखंड में चुनाव लड़ेंगी. हालांकि बंगाल के बाहर तृणमूल कांग्रेस का आधार नहीं है. बावजूद ममता बनर्जी कांग्रेस के उन नेताओं को ही तोड़ रही हैं जो या तो प्रियंका गांधी या फिर राहुल गांधी के करीबी माने जाते हैं. तृणमूल कांग्रेस ने सबसे पहले सुष्मिता देब को तोड़ा. सुष्मिता देब कांग्रेस से सात बार सांसद रहे संतोष मोहन देब की बेटी हैं. संतोष मोहन देब आखिरी बार नरसिंह राव सरकार में कैबिनेट मंत्री थे. वे पांच बार असम से और दो बार त्रिपुरा से लोकसभा के लिए चुने गए थे.
सुष्मिता देब को राज्यसभा भेज कर यह संदेश दिया गया है कि तृलमूल कांग्रेस से आए नेताओं को सम्मान देने का मन बना चुकी है. दूसरी बड़ी कामयाबी टीएमसी ने यह हासिल की है कि वह गोवा के एक मजबूत कांग्रेसी नेता लुईजिन्हो फलेरो को टीएमसी में लाने में कोमयाब रही हैं. फलेरो गोवा के मुख्यमंत्री भी रहे हैं. आम आदमी पहले से ही गोवा में अपनी ताकत बढ़ा कर कांग्रेस के आधार को ही कमजोर करने में लगी है. इसी महीने गुजरात के निकाय चुनावों में आम आदमी पार्टी के कारण कांग्रेस को नुकसान हुआ. हालांकि जीत तो आम आदमी पार्टी भी नहीं पायी लेकिन भारी कुप्रबंधन और लोगों के असंतोष के बावजूद भाजपा कामयाब रही.
उत्तर प्रदेश में ममता बनर्जी की पार्टी में ललितेश त्रिपाठी का जाना तय है. वे कांग्रेस से इस्तीफा दे चुके हैं. ललितेश उस रसूख वाले परिवार से आते हैं जिसका पूर्वी उत्तर प्रदेश में आधार रहा है. वे कांग्रेस के बड़े नेता जो यूपी के मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री भी रहे कमलापति त्रिपाठी के पोते हैं. ममता बनर्जी की रणनीति ललितेश त्रिपाठी के सहारे यूपी में पैर जमाने की है.
माना जा रहा है कि प्रशांत किशोर की रणनीति यह है कि तृणमूल को बंगाल के बाहर भी जीत मिले और वह लोकसभा में एक प्रभावी दल के रूप में उभरे. प्रशांत किशोर के बारे में पहले यह कहा गया कि वे कांग्रेस में शामिल होंगे. इसी सिलसिले में उनकी सोनिया गांधी से मुलाकात की भी चर्चा थी. लेकिन अब यह साफ दिख रहा है उनके एजेंडा कांग्रेस को कमजोर करने वाला साबित हो रहा है.
यही नहीं शरद पवार की रणनति भी कुछ साफ नहीं दिख रही है. उनके अंतरविरोधी बयानों से यह आभास मिलता है कि वे भी अपने भविष्य को लेकर संभावनावों को बनाए रखना चाहते हैं. दक्षिण के राज्यों में केवल स्टालिन ही कांग्रेस के साथ दिख रहे हैं. वाम पर्टियां क्या रूख लेंगी इसे लेकर भी कोई स्पष्टता नहीं है. तेलांगना में चंद्रशेखर राव भाजपा के पास भी दिखना चाहते हैं और दूर भी. आंध्र प्रदेश में जगन रेड्डी हो सकता है अकेले ही चुनाव लड़ें लेकिन भाजपा के करीब हर हाल में बने रहेंगे. चंद्रबाबू नाडू तो 2019 की हार के बाद से ही खामोश हैं. कांग्रेस या भाजपा किसी एक को वे चुन नहीं पा रहे हैं. कांग्रेस छोड़ कर पिछले पांच सालों में उसके तीस नेता भाजपा या किसी अन्य विपक्षी दल का झंडा थाम चुके हैं.
कांग्रेस की चुनौती यह है कि वह न केवल अपने मजबूत आधार वाले राज्यों में डट कर खड़ा रहे और नयी ताकतों को जोड़े बल्कि अपने खोए आधार वाले राज्यों में भी मजबूती से दावा पेश करे. उत्तर प्रदेश में जिस तरह प्रियंका गांधी लड़ रही हैं उससे साफ है कि कांग्रेस इस समय गठबंधन से ज्यादा विस्तार को ही महत्व दे रही है. बिहार के दो उपचुनावों में लबे समय के बाद राजद और कांग्रेस आमने सामने हैं. कांग्रेस ने लंबे समय के बाद राजद के बगैर ही चुनाव लड़ना तय किया है. इससे राजद के साथ उसके भविष्य के रिश्तों को लेकर सवाल पूछे जा रहे हैं. हालांकि बिहार में कांग्रेस का न केवल ढांचा बिखरा हुआ है बल्कि उसने पिछले दो विधानसभा चुनावों में गठबंधन के कारण ही ठीक प्रदर्शन किया है.कांग्रेसी कन्हैया कुमार को लेकर बिहार में उत्साहित हैं. लेकिन यह जुआ जैसा ही है.
इन हालातों में विपक्ष किस तरह उस भाजपा का मुकाबला कर सकता है जिसके पास एक सुसंगठित संगठन और आरएसएस की विचारधारा है. विपक्ष अब तक न तो संजीदगी से विकल्प बनने का प्रयास किया है और न ही इस दिशा में कोई ठोस प्रयास दिख रहा है. बंगाल चुनाव के बाद गठबंधन के लिए तो तेज प्रयास दिखे थे वह दम तोड़ चुका है. प्रशांत किशोर एक रहस्य बने हुए हैं. आखिर वह उनकी ब्यूहरचना का मकसद क्या है कांग्रेस को कमजोर करना या फिर भाजपा के खिलाफ सभी विपक्षी दलों के मंच के लिए माहौल बनाना. वे अतीत में ममता बनर्जी के अलावे कांग्रेस के लिए पंजाब और यूपी, आंध्र प्रदेश में जगन रेड्डी और तमिलनाडु में स्टालिन के लिए काम कर चुके हैं.