Umesh Prasad Singh
आजादी के आंदोलन के दौरान स्वतंत्रता की अभीप्सा से उत्क्रांत भारतीय चेतना की बिल्कुल नई, मौलिक और ठोस उपलब्धि राष्ट्र की परिकल्पना है. राष्ट्र के स्वरूप से प्रेम और राष्ट्र की अस्मिता के प्रति पूजा का यह भाव भारतीय इतिहास की महत्तम उपलब्धि है. बहुसंख्यक देवताओं के इस देश में राष्ट्र देवता की उपस्थिति बहुत-बहुत अर्थों में बेहद मूल्यवान है. यह देवता चेतना के सूक्ष्म धरातल पर अवलंबित न होकर हमारे प्रयत्क्ष बोध पर आधारित है. वह इतना ठोस और प्रयत्क्ष है कि हम अपने हर व्यवहार में उससे अनायास जुड़े हैं. इतना ही नहीं, वह हमारे बीच पहली बार एक ऐसे देवता के रूप में है, जिसके अस्तित्व में हमारा अस्तित्व ही घटक के रूप में मौजूद है. हर देशवासी देश की अस्मिता के तत्त्व में मौजूद है. हमारे देवता का स्वरूप हमारे ही स्वरूप के सामूहिक संयोजन का स्वरूप है.
हमारी परंपरा में कुल देवता और ग्राम देवता पहले से मौजूद थे. राष्ट्र देवता के रूप में उनका उन्नयन भारतीय जाति के चिंतन के विस्तार और उत्कर्ष का साक्ष्य बन जाता है. राष्ट्र देवता की परिकल्पना में हमें अनायास ही कृष्ण की गोवर्धन पूजा के मन्तव्य का आधुनिक विकास भी सुलभ हो जाता है. ऐतिहासिक रूप से राष्ट्रदेव की धारणा हमारी गौरवपूर्ण उपलब्धि बन जाती है. राष्ट्र पूजा और राष्ट्र प्रेम की आस्था के पीछे और कुछ नहीं, भारतीय जाति की सामूहिक उन्नति, सामूहिक उत्कर्ष, सामूहिक समृद्धि और सामूहिक मजबूती की अदम्य अभिलाषा ही जाग्रत होकर सजीव हो उठी थीं. राष्ट्र की देवता के रूप में अधिष्ठापना भारतीय जनमानस की सामूहिक अस्मिता की पहचान की उद्घोषणा से अलग नहीं है. इसी उद्घोषणा का संपूर्ण उद्घोष भारतीय अस्मिता को वैश्विक धरातल पर प्रतिष्ठित करने वाले कवि गुरु रवींद्रनाथ ठाकुर के राष्ट्रगान में व्यक्त है.
इसमें बंकिमचंद्र के वंदे मातरम की समूची गरिमा भी गुंजित है. इसमें जयशंकर प्रसाद के ‘अरुण यह मधुमय देश हमारा’ की असीमता का गौरव-बोध भी समाहित है. हमारे राष्ट्रगान में राष्ट्रबोध और राष्ट्रभक्ति का अपूर्व सामासिक संयोजन चमत्कारिक रूप से घटित हो सका है. हम कह सकते हैं कि स्वाधीनता आंदोलन के समूचे सर्वथा मौलिक मूल्यबोध को राष्ट्रगान अकेले पूरी तरह से व्यक्त करने में सफल सिद्ध हो सका है. अभी तक अधिनायक जन समूहों पर शासन करने वाले होते रहे हैं. मगर अभी-अभी जो भारत नाम का देवता हमारे बीच अधिष्ठित हुआ है, वह समस्त देशवासियों के हृदय पर प्यारपूर्ण शासन करने वाला है. उसका शासन प्यार का अनुशासन है. उसे सबने अपना हृदय दे रखा है. हृदय का सारा प्यार दे रखा है. समस्त भारतवासियों का अलग-अलग भाग्य नहीं है. बल्कि समस्त देशवासियों के भाग्य का निर्माण करने वाला, उनके भविष्य को बनाने वाला स्वयं भारत है. राष्ट्र से ही समस्त राष्ट्रवासियों का भाग्य जुड़ा हुआ है. बड़ी ही सादी, किंतु आलंकारिक शैली में कवि ने भारत राष्ट्र को संबोधित किया है. सामासिक भाषा में इतने विपुल अर्थ-विस्तार का संयोजन कविता के क्षेत्र में यहां एक दुर्लभ घटना की तरह शोभित है.
विराम और समास चिह्नों के साथ यदि कविता का आलेखन हो तो प्रारंभिक राष्ट्रगान की पंक्तियों का पाठ कुछ इस तरह का होगा-
जन (के) गण (के) मन (का) अधिनायक,
जय हे, भारत! भाग्यविधाता
यह पता नहीं हमारा दुर्भाग्य है या दुर्विपाक! जो भी कहें, मगर हमेशा ही हमारे बीच अपने को महत्तम समझने वाले लोगों की बुद्धि में अपनी राष्ट्रीय उपलब्धियों की हेयता को प्रमाणित करने की सूझ कौंध ही जाती है. राष्ट्रगान में भी कौंधी. उन्होंने राष्ट्रगान में भारत भाग्यविधाता पद को संबोधन समझकर उसकी खोज शुरू कर दी. इस तलाश की मुक्कमल अभिव्यक्ति हिंदी के विशिष्ट कवि रघुवीर सहाय की कविता की पंक्तियों में व्यक्त है-
राष्ट्रगान में भला कौन वह भारत भाग्य विधाता
पहन सुथन्ना जिसके हरिचन्ना गुन गाता.
राष्ट्रगान में भारत के भाग्य विधाता की खोज छिद्रान्वेषी दम्भी बुद्धिजीविता ने शुरू की और उपाधिधर्मी साहित्यिक अनुसंधानों की तरह जार्ज पंचम को खोज भी लिया. तब से अब तक एक वर्ग का दुष्प्रचार राष्ट्रगान के साथ चस्पा कर दिया गया कि यह कविता जार्ज पंचम के स्वागत के लिए जार्ज पंचम को संबोधित स्वागत गान है. राष्ट्रगान को स्वागत-गान में बदलने वाली सूझ पर हमें गर्व करना चाहिए या ग्लानि में लज्जित होना चाहिए, यह तो भारतीय गणतंत्र के भावी उत्तराधिकारियों के गौरव पर निर्भर है. मगर हमें यह कतई नहीं भूलना चाहिए कि लोकतंत्र की अवधारणा का जन्म ही व्यक्तिसत्ता के निषेध और सामूहिक सत्ता की गरिमा की अभ्यर्थना से हुआ है.
हमारे राष्ट्रगान में हमारे राष्ट्र का ठोस और चाक्षुष स्वरूप भी मूर्तिमान है और उसका तरल आत्मिक स्वरूप भी उसमें बिम्बित है. ‘पंजाब-सिन्ध-गुजरात-मराठा’ में उसकी ठोस संरचना व्यक्त है और ‘विन्ध्य-हिमाचल-यमुना-गंगा’ में उसकी सांस्कृतिक आत्मचेतना बिम्बित है. इस विशाल देश की असीम जनभावना की भक्ति को, देशभक्ति को कवि ने ‘तव शुभ नामे जागे’ कहकर जो मार्मिक उदघाटन किया है, वह अन्यतम है. हृदयहारी है. देश के समस्त देशवासियों का जागरण देश के नाम के साथ होने का बोध देशभक्ति के अपूर्व भाव की अनूठी अभिव्यक्ति है. देश के नाम से जागकर अपनी सारी दिनचर्या को देशसेवा के लिए अर्पित करके फिर देश देवता से ही अपनी अभ्युन्नति के लिए आशीष मांगने का समुज्ज्वल भावबोध भगवद्भक्ति और देशभक्ति में अभेद की प्रतिष्ठा करता है.
भगवद्भक्ति की भिन्न प्रणालियों और भिन्न बोधों के बीच देशभक्ति की सर्वथा नयी प्रणाली और नये बोध को जोड़ने के कारण भक्ति के इतिहास में यह एक नये अध्याय का आविर्भाव है. इस अध्याय का हमारा राष्ट्रगान मंगलाचरण है. इस अध्याय का पाठ हमारे राष्ट्र और हमारे लोकतंत्र के वर्तमान और भावी गौरव का आधार है.
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.