Shyam kishore Choubey
‘धूल का फूल’ मुख्यमंत्री मधु कोड़ा हालांकि बहुत उत्साहित थे लेकिन उन पर खुद सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष का किस कदर शिकंजा कसता चला जा रहा था, इसका शायद उनको इलहाम नहीं था. कांग्रेस और राजद ने मंत्रिपरिषद से बाहर रहकर कमान कस दी तो झामुमो ने ‘सरकार’ बनकर भी अपने दो उपमुख्यमंत्री सुधीर महतो और स्टीफन मरांडी देकर मानसिक दबाव बनाये रखा. प्रतिपक्ष को तो खैर हल्ला-हंगामे की छूट थी ही. उनके संगी-साथी एनोस, हरिनारायण, कमलेश, भानु आदि मंत्री बनकर मनमानी करने का एक तरह से सर्टिफिकेट हासिल कर ही चुके थे. तिस पर कोड़ा के बचपन के दोस्त विनोद सिन्हा और संजय चौधरी ने राजनीति से दूर रहते हुए भी कई फैसलों की राजनीतिक कमान मानो अपने हाथ में ही रख ली थी.
इसी काल में यह भी खबर आयी कि एक मंत्री हरिनारायण राय ने नोट गिनने की मशीन मंगा ली है. इसी काल में यह भी हुआ कि सदन में वित्त विधेयक पारित कराने के लिए रूठे हुए विधायक को उनके घर से हेलीकॉप्टर से लाना पड़ा.
यह वही काल था, जब आये दिन खबरें आतीं कि आज फलां मंत्री का सीएम से झंझट हुआ, तो कल ढेमाका मंत्री का. इसी काल में यह भी खबर आयी कि एक मंत्री हरिनारायण राय ने नोट गिनने की मशीन मंगा ली है. इसी काल में यह भी हुआ कि सदन में वित्त विधेयक पारित कराने के लिए रूठे हुए विधायक को उनके घर से हेलीकॉप्टर से लाना पड़ा. तरह-तरह की बातें, तरह-तरह की अफवाहें. कोड़ा काल के पहले एक अहम राजनीतिक घटनाक्रम यह हुआ कि न केवल बाबूलाल मरांडी और अर्जुन मुंडा की राम-भरत की जोड़ी टूट गयी, बल्कि बाबूलाल ने भाजपा से विद्रोह कर झारखंड विकास मोर्चा-प्रजातांत्रिक नामक अपनी अलग पार्टी बना ली. बाबूलाल उन दिनों हालांकि भाजपा के ही टिकट पर सामान्य सीट कोडरमा के सांसद थे लेकिन स्वयं को उपेक्षित महसूस कर रहे थे. इसी कारण उन्होंने सांसदी भी त्याग दी, हालांकि बाद में उपचुनाव में वे विजयी रहे.
भाजपा में जनजातीय राजनीति के दो ध्रुव बन गये थे. सूबाई शासन में उनकी सुनी न जा रही थी. उनके संगी-साथी बने भाजपा के ही प्रदीप यादव, रवींद्र राय जैसे विधायक, प्रवीण सिंह जैसे विधान पार्षद और दीपक प्रकाश जैसे नेता. उन्हीं दिनों सदन में बाबूलाल को लेकर इतनी तीखी नोंकझोंक हुई कि रवींद्र राय ने गुस्से में स्पीकर टेबल पर रखे तिरंगे को उलट दिया. यहां इस बात का जिक्र इसलिए कि आने वाले दिनों में सदन में हल्ला-हंगामा, कुर्सी फेंकाफेंकी, आसन की ओर लक्ष्य कर पिन लपेटा कागज फेंकने की जैसे रवायत ही बन गयी. कई बार तो सदन चला ही नहीं. इसी कारण ऐसा महसूस किया जाता रहा कि सदन की बैठकें वित्तीय और विधायी कार्यों की खानापूरी के लिए ही बुलायी जाने लगीं. जिस सदन को पहले और अबतक के इतिहास में सर्वाधिक समय तक स्पीकर रहे इंदर सिंह नामधारी ने देश का आदर्श सदन बनाने का सपना दिखाया था, वह आपसी तू-तू, मैं-मैं का अखाड़ा बनकर रह गया. कहने को तो अबतक इसी सदन में 49 विशेष बहसें हुईं, 52 मामलों में विशेष समितियों का गठन किया गया लेकिन अमल कितने पर हुआ, यह शोध का विषय है. ऐसे सियासी हालात का फायदा उठाया नौकरशाही ने. गुजरे 20-21 वर्षों में सदन में सरकार द्वारा दिये गये आश्वासनों में तकरीबन ढाई हजार मामलों पर कार्रवाई न हो पाना, यह बताता है कि अपने आश्वासनों पर न तो मंत्री गंभीर रहते हैं, न नौकरशाही उन पर कान देती है.
बारह सदस्यों वाली कैबिनेट एक तरह से बारह सरकार बन गयी थी. जिस किसी सदस्य की कैबिनेट बैठक में बात न मानी जाती, वही वॉकआउट कर जाता. परिवार हो कि सरकार, जब मुखिया को सपोर्ट न मिले और उसकी बात अन्य सदस्य न मानते हों, न ही उचित सलाह देते हों तो उसका बिखरना और लुटना-पिटना तय माना जाता है. अंततः यही हाल उस सरकार का हुआ.
बहरहाल, जिन परिस्थितियों में कोड़ा सरकार चल रही थी, वह अद्भुत थी. कहा यही जाता था कि वे हर किसी को संतुष्ट रखने की कोशिश करते थे, लेकिन प्रतिपक्षी भाजपा से अधिक कांग्रेस ही हमलावर रही. कांग्रेस के तत्कालीन प्रदेश प्रभारी अजय माकन अक्सर रांची आते और कोड़ा पर जुबानी ‘दो-चार कोड़े’ फटकार कर चलते बनते. संघ और आयरन ओर ट्रेड यूनियन की उपज कोड़ा की उम्र कम थी, हालांकि वे अपने क्षेत्र जगन्नाथपुर की कौन कहे, पूरे पश्चिम सिंहभूम में बेहद लोकप्रिय थे लेकिन मुख्यमंत्री पद के लिहाज से अनुभवहीन थे. निर्दलीय होने के कारण वे अकेले थे लेकिन उनको सहेजने-संभालने की कोशिश न कांग्रेस ने की, न ही राजद ने. और तो और उनके संगी-साथी भी शायद यही समझते थे कि वे अल्लामियां बन चुके हैं, उनका जलवा अब कभी कम नहीं होनेवाला और उन पर किसी का भी कस-बल नहीं चलनेवाला. ऐसी परिस्थिति में बारह सदस्यों वाली कैबिनेट एक तरह से बारह सरकार बन गयी थी. जिस किसी सदस्य की कैबिनेट बैठक में बात न मानी जाती, वही वॉकआउट कर जाता. परिवार हो कि सरकार, जब मुखिया को सपोर्ट न मिले और उसकी बात अन्य सदस्य न मानते हों, न ही उचित सलाह देते हों तो उसका बिखरना और लुटना-पिटना तय माना जाता है. अंततः यही हाल उस सरकार का हुआ. कालांतर में कोड़ा सहित एनोस, हरिनारायण, कमलेश और भानु जेल में नजर आये. भानु के साथ बतौर सचिव रहे दो सीनियर आइएएस पदाधिकारी भी उसी गति को प्राप्त हुए. सब पर घोटाले के आरोप लगे, सीबीआइ, ईडी, आइटी आदि-आदि ने सबको घेरा. जैसा कि सुना जाता है, चारा घोटाले की तरह इस बार भी घेरे में कुछ पत्रकार भी आये, लेकिन जैसे उस समय उनको बख्श दिया गया, वैसे ही इस मर्तबा भी उनको छुआ न गया. सबसे चालाक निकले चंद्रप्रकाश चौधरी, जो उसके बाद तीन सरकारों में मंत्री रहे और अब एनडीए के बैनर तले आजसू सदस्य के तौर पर सांसद हैं. (जारी)
(नोटः यह श्रृंखला पूर्णतः लेखक के संस्मरणों पर आधारित है. इसमें छपी बातों से संपादक की सहमति आवश्यक नहीं है.)